Firaq Gorakhpuri

जब जोश से अनबन हुई और फ़िराक़ गोरखपुरी ने पूरी किताब लिख दी

रमेश चंद्र द्विवेदी जी ने अपने एक मज़मून में लिखा है कि फ़िराक़ साहब जीते-जी अफ़साना बन चुके थे। उनके साथ कई कहानियाँ मंसूब हो गई थीं जिनका कोई सर-पाँव तो नहीं था लेकिन उनसे मानूस हर शख़्स था। ऐसा ही एक क़िस्सा यूँ है कि उन्हें ‘हिन्दोस्तान का स्पॉइलट जीनियस’ (Spoilt Genius) क़रार दिया गया और ये बाद में ये फ़िक़रा गांधी जी से मंसूब कर दिया गया। हालाँकि फ़िराक़ साहब स्पॉइलट तो नहीं, मगर बिला-शुबा एक जीनियस तो ज़रूर थे। एक ग़ज़ल-गो शाइर के तौर पर उनके कारनामों से हर शख़्स वाक़िफ़ है। अफ़सानों में उनका जौहर ‘नौ-रत्न’ में देखा ही जा सकता है। उनकी तन्क़ीदी किताबों की भी एक लंबी फ़ेहरिस्त है मसलन ‘उर्दू की इश्क़िया शाइरी’, ‘उर्दू ग़ज़लगोई’ और ‘नज़ीर की बानी’ वग़ैरह। उनके सियासी शऊर की शिनाख़्त उनकी किताब ‘हमारा सबसे बड़ा दुश्मन’ पढ़ के हो जाती है। फ़िराक़ साहब की शख़्सियत और तख़लीक़ात के मुख़्तलिफ़ पहलुओं पर गाहे-गाहे गुफ़्तगू होती ही रहती है। लेकिन जो काम फ़िराक़ साहब ने रुबाई के मैदान में किया है, उसकी दूसरी मिसाल ढूँढ पाना ना-मुमकिन है।

रुबाई लफ़्ज़ अरबी ज़बान का है जिसके लुग़वी मआनी ‘चार-चार’ के होते हैं। रुबाई चार मिसरों की उस नज़्म को कहते हैं जिसके चारों मिसरे कुछ मख़सूस बहरों में से किसी एक में हों और ख़याल का तसलसुल बरक़रार रहे। अमूमन पहले तीन मिसरे मआनी की तहें तैयार करते हैं या पस-मंज़र बयान करते हैं और चौथे मिसरे में सही मआनी का इंकिशाफ़ होता है। रुबाई दौर-ए-क़दीम से कही जा रही है। ख़य्याम की रुबाइयों को किसी तआरुफ़ की ज़रूरत नहीं है। उर्दू के पहले साहिब-ए-दीवान शाइर क़ुली क़ुतुब शाह ने भी रुबाइयाँ कहीं। मीर, दर्द ,जोश, चकबस्त और दीगर मोतबर शोरा ने भी रुबाइयाँ कहीं, लेकिन चंद वुजूहात की बिना पर ये कहा जा सकता है कि जिस तरह रुबाइयाँ फ़िराक़ साहब ने कहीं, किसी ने भी नहीं कहीं। रुबाई का फ़न ऐसा आसान भी नहीं। इस बात पर फ़िराक़ साहब की एक रुबाई याद आती है, जो है तो ज़िंदगी के मुतअल्लिक़, लेकिन इस पैराए में भी देखी जा सकती है। वो रुबाई यूँ है,

हर साज़ से होती नहीं ये धुन पैदा
होता है बड़े जतन से ये गुन पैदा
मीज़ान-ए-नशात-ओ-ग़म में सदियों तुल कर
होता है हयात में तवाज़ुन पैदा

फ़िराक़ साहब की रुबाइयों के मजमूए’ का उनवान ‘रूप’ है जिससे इन रुबाइयों के मिजाज़ की पूरी-पूरी नुमाइंदगी होती है। फ़िराक़ साहब ने ख़ुद इन रुबाइयों को श्रृंगार रस की रुबाइयाँ कहा है। ‘रूप’ की पहली रुबाई यूँ है :

हर जलवे से इक दर्स-ए-नुमू लेता हूँ
लबरेज़ कई जाम-ओ-सुबू लेता हूँ
पड़ती है जब आँख तुझपे ऐ जान-ए-बहार
संगीत की सरहदों को छू लेता हूँ

Firaq Gorakhpuri

ये सारी रुबाइयाँ जमालियाती या श्रृंगार रस की हैं और इन रुबाइयों की जमालियत में हिन्दोस्तानियत झलकती है। इन रुबाइयों की ज़बान, इस्तिआरे, मज़ामीन, सबमें हिन्दोस्तान की ज़मीन का रंग मिलता है। कुछ और रुबाइयाँ देखें :

तू हाथ को जब हाथ में ले लेती है
दुख दर्द ज़माने के मिटा देती है
संसार के तपते हुए वीराने में
सुख शांत की गोया तू हरी खेती है

आ जा कि खड़ी है शाम पर्दा घेरे
मुद्दत हुई जब हुए थे दर्शन तेरे
मग़रिब से सुनहरी गर्द उठी सू-ए-क़ाफ़
सूरज ने अग्नी रथ के घोड़े फेरे

ऐ मानी-ए-कायनात मुझ में आ जा
ऐ राज़-ए-सिफ़ात-ओ-ज़ात मुझ में आ जा
सोता संसार झिलमिलाते तारे
अब भीग चली है रात मुझ में आ जा

कोमल पद-गामिनी की आहट तो सुनो
गाते क़दमों की गुनगुनाहट तो सुनो
सावन लहरा है मद में डूबा हुआ रूप
रस की बूँदों की झमझमाहट तो सुनो

Firaq Gorakhpuri

इन रुबाइयों के उस्लूब और हिन्दोस्तानी अल्फ़ाज़ के इस्तिमाल ने पूरी उर्दू शाइरी पर एक गहरा असर छोड़ा और अपने बाद के शोरा को बहुत मुतअस्सिर किया। इन रुबाइयों में हुस्न को भी एक अलग पैराए में देखने की कोशिश की गई है गोया एक नई-नवेली दुल्हन को नज़र में रख कर उसका हुस्न बयान किया गया है। ये रुबाइयाँ देखें :

किस प्यार से होती है ख़फ़ा बच्चे से
कुछ तेवरी चढ़ाए हुए मुँह फेरे हुए
इस रूठने पर प्रेम का संसार निसार
कहती है कि जा तुझ से नहीं बोलेंगे

लहरों में खिला कँवल नहाए जैसे
दोशीज़ा-ए-सुब्ह गुनगुनाए जैसे
ये रूप, ये लोच, ये तरन्नुम, ये निखार
बच्चा सोते में मुसकुराए जैसे

अमृत वो हलाहल को बना देती है
ग़ुस्से की नज़र फूल खिला देती है
माँ लाडली औलाद को जैसे ताड़े
किस प्यार से प्रेमी को सज़ा देती है

‘रूप’ की रुबाइयाँ एक और ज़ाविए से अहम हैं क्योंकि वो फ़िराक़ साहब की ज़िंदगी के अहम वाक़िए से जुड़ी हुई हैं। फ़िराक़ साहब और जोश साहब में गहरी दोस्ती थी लेकिन एक बार उनमें कुछ ऐसी अनबन हुई कि एक अर्से तक बात नहीं हुई। जब फ़िराक़ साहब दिल्ली से वापस इलाहबाद आए तो उन्होंने एक रुबाई कही थी, वो रुबाई यूँ है :

मासूम ख़ुलूस-ए-बातिनी कुछ भी नहीं
वो क़ुर्ब वो क़द्र-ए-बाहमी कुछ भी नहीं
इक रात की वो झड़प वो झिक-झिक सब कुछ
और आठ बरस की दोस्ती कुछ भी नहीं

इसी रुबाई से ‘रूप’ की बुनियाद पड़ी और जब ये मजमूआ’ शाया हुआ तो इसका इंतिसाब भी फ़िराक़ साहब ने जोश साहब के नाम किया है।