Hasrat Mohani

स्वतंत्रता आंदोलन: जब दुबले-पतले हसरत जेल में चक्की पीसने पर लगा दिए गए

मौलाना हसरत मोहानी का शुमार उर्दू के उन अदीबों और शायरों में होता है जो आज़ादी की जद्द-ओ-जहद में पूरी शिद्दत के साथ शामिल रहे। मौलाना ने अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ और वतन की आज़ादी के लिए अपना संघर्ष छात्र जीवन से ही शुरू कर दिया था। वो ना सिर्फ़ अपने लेखन के ज़रिए इस आंदोलन के सहयोगी रहे बल्कि उम्र-भर समाज और सियासत की पुर-पेच गलियों की ख़ाक छानते रहे।

आज़ाद मुलक के अपने ख़्वाब के लिए उन्होंने बेशुमार मुसीबतें और मुश्किलें बर्दाश्त कीं, जिस्मानी यातनायें झेलीं और ज़िंदगी के कई बरस जेल में गुज़ारे। उनका दिया हुआ नारा ‘इन्क़िलाब ज़िंदाबाद’ अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ संघर्ष का प्रतीक बना। हसरत आज़ाद मुल्क में सविधान सभा के सदस्य भी रहे।

आज हम 73वें स्वतंत्रता दिवस के मौक़े पर आपको उस समय में ले चलते हैं जब आज़ादी के इन ख़ूबसूरत दिनों के लिए हमारे अज्दाद संघर्ष कर रहे थे और जेलों में बंद अंग्रेज़ी सरकार की ज़्यादतियाँ बर्दाश्त कर रहे थे।

नीचे पेश की गई तहरीर हसरत मोहानी की जेल की यादों पर आधारित किताब ‘क़ैद-ए-फ़रंग’ से माख़ूज़ है। इसमें उन्होंने ने जेल के उन दिनों को याद किया है जब वो लमबे आरसे तक चक्की पीसने की मशक़्क़त झेलते रहे। हसरत ने ये यादें अपनी बहुचर्चित पत्रिका ‘उर्दू-ए-मुअल्ला’ में सिलसिलेवार प्रकाशित की थीं।

Hasrat Mohani in Urdu-e-Mualla

इलाहाबाद सेंट्रल जेल और चक्की की मशक़्क़त

इलाहाबाद सेंट्रल जेल में चक्की की मशक़्क़त सबसे ज़्यादा सख़्त है क्योंकि वहाँ राम-बाँस या हाथी-चंगार कूटने की मशक़्क़त मौजूद ही नहीं है, जो चक्की से भी बदतर समझी जाती थी, और जिसकी निसबत हर जेल में ये शेर क़ैदियों के ज़बान-ज़द है,

जेल-ख़ाने का बुरा रवैय्या, कोई किसी का यार नहीं
राम-बाँस की कड़ी मशक़्क़त, चक्की से इन्कार नहीं

राक़िम-उल-हुरूफ़ के हाल पर हुक्काम-ए-जेल की ये ख़ास इनायत थी कि तक़रीबन तमाम मुद्दत-ए-क़ैद इसी मशक़्क़त में बसर हुई। क़ायदे की रू से एक क़ैदी 15 सेर के हिसाब से दो क़ैदियों को 30 सैर ग़ल्ला पीसना चाहिए। लेकिन इलाहाबाद में 30 सैर के बजाए 40 सैर पिसवाते हैं, जिसके इवज़ में हर तीन महीने पर दो या तीन दिन रिहाई के दिए जाते हैं। ब-शर्तेकि इस अर्से में कोई क़ुसूर ऐसा ना सरज़द हो जाए जिससे पेशी की नौबत आ जाए और लेने के देने पड़ जाएं।

क़ैदी जब कोई जेल का जुर्म करता है तो उसे वार्डर सज़ा के लिए सुपरिंटेंडेंट के रू-ब-रू पेश करता है इसी का इस्तिलाही नाम पेशी है जिसकी अजीब-ओ-ग़रीब वारदातें तकरीबन हर रोज़ चक्की ख़ाने में पेश आती हैं। अगर चालिस सैर गल्ले का आटा ठीक चालिस सैर से छटांक आध पाओ भी कम हो जाए तो पेशी, अगर आटा ज़रा भी मोटा रह जाए तो पेशी, अगर आटे में ज़रा भी मिट्टी या पानी मिलाए जाने का शक हो तो पेशी।

मिट्टी या पानी मिलाए जाने का मुआमला इस तौर है कि बाअज़ क़ैदी काफ़ी ख़ुराक ना पाने के सबब से मजबूरन कच्चा ग़ल्ला चबा जाने पर मजबूर होते हैं और बाद में आटा पूरा करने के लिए गेहूँ में मिट्टी या पानी मिला देते हैं, जो लोग कच्चा ग़ल्ला नहीं खाते उन्हें भी कुछ ना कुछ मिलाना ज़रूर पड़ता है, वर्ना ज़ाहिर है कि आटा पीसने के दौरान में कुछ तो चक्की में रह जाता है और कुछ उड़ कर हवा में मिल जाता है, कुछ पीसने वालों के बदन पर पसीने के साथ जम जाता है।

दारोग़ा साहब ऐलानिया फ़रमाते थे कि जो चाहो करो हमको आटा पूरा दो वर्ना हम पेशी कर देंगे। चुनांचे चक्की ख़ाने का बरकंदाज़ (सिपाही) भी डर के मारे ख़ुद ही क़ैदियों को मिट्टी छिपाकर ले आने की इजाज़त दे देता था।

एक रोज़ एक बद-तीनत क़ैदी की बरकंदाज़ (सिपाही) से इस बिना पर कुछ हुज्जत हो गई थी कि बरकंदाज़ ने उसे ग़ल्ला चुराकर ना ले जाने दिया था, उसका नतीजा ये हुआ कि क़ैदी ने दफ़अदार को बुलाया और कहा कि बरकंदाज़ ग़ल्ले में पानी मिलवाता है, क़िस्मत की ख़ूबी देखिए कि सबसे पहली चक्की मेरी ही थी, जिसके पास ही मेरा साथी ब-क़दर-ए-ज़रूरत यानी क़रीब आध पाव या पौन पाव पानी मिला रहा था, मुझको इस वाक़िए की ख़बर ना थी क्योंकि आम तौर पर मैं रोज़ाना ग़ल्ला पीसने के बाद चक्कियों के पीछे जाकर ज़मीन पर लेट रहा करता था। हंगामा बरपा होने पर मैंने भी देखा तो मालूम हुआ कि मेरा साथी गिरफ़्तार है। अगर उसके पास या मेरे पास कुछ पैसे दफ़अदार को देने के लिए होते तो मुआमला रफ़ा-दफ़ा हो जाता लेकिन चूँकि हम दोनों नादार (ग़रीब) थे इसलिए पेशी और कच्चा ग़ल्ला खा जाने के इल्ज़ाम में तीन दिन रिहाई ज़बत हो गई।

सुपरिंटेंडेंट साहब की मुस्कुराहट से ये साफ़ ज़ाहिर होता था कि उन्हें मेरी निस्बत ग़ल्ला खाने का गुमान नहीं है लेकिन उसूल-ए-जेल के मुताबिक़ किसी मा-तहत के पेश करने पर सज़ा देना लाज़िमी था वर्ना उसकी सुबकी होती।

बरकंदाज़ की साज़िश और दो रात के लिए हथकड़ियां

मेरे मुताल्लिक़ पेशी का ये दूसरा वाक़िया था, पहला वाक़िया इससे भी ज़्यादा दिलचस्प है। चक्कियाँ उमूमन इस क़दर भारी होती हैं कि एक शख़्स को उनके ऊपर का पाट उठाना भी मुश्किल होता है, इस लिए दो शख़्स एक चक्की पर आमने-सामने खड़े हो कर पीसते हैं और अगर बराबर पीसे जाएं तो सुबह 6 बजे से लेकर 3 बजे तक ग़ल्ला पिस जाता है लेकिन शर्त ये है कि दोनों पीसने वाले बराबर ज़ोर लगाऐं।

मेरी निसबत वार्डर को ये गुमान था कि उससे चक्की ना पिस सकेगी, लेकिन जब दूसरे दिन बरकंदाज़ (सिपाही) से दरयाफ़त करने पर उसको मालूम हुआ कि मैंने पहले ही रोज़ अपना काम वक़्त-ए-मुक़र्ररा (निर्धारित समय( से पहले ही ख़त्म कर दिया था, तो उसे यक़ीन न आया और बरकंदाज़ से ऐसी बातें कीं जिनसे उसने अपनी समझ के मुताबिक़ ये नतीजा निकाला कि मेरी निस्बत वार्डर की मंशा ये है कि मेरी पेशी हो जाए। चुनांचे तीसरे दिन उसने मुझे सबसे ख़राब चक्की दी और मेरे जोड़ीदार को समझा दिया कि तुम ढील दे देना, तुम्हें हम पेशी पर न भेजेंगे। नतीजा उसका ये हुआ कि दस सेर ग़ल्ला बाक़ी रह गया। क़ायदे के मुताबिक़ हम दोनों की पेशी होनी चाहिए थी लेकिन हसब-ए-क़रारदाद-ए-साबिक़ सिर्फ़ मेरी पेशी हुई और दो दिन के लिए रात को हथकड़ियां डालने की सज़ा तज्वीज़ हुई। मैं चाहता था कि सुपरिंटेंडेंट से सब हाल कह दूं, लेकिन बरकंदाज़ को पेटी उतार कर ज़द्-ओ-कूब (मार-पीट) पर आमादा पाकर मैंने ख़ामोशी इख़्तियार की और मुआमले को ख़ुदा के सुपुर्द किया।

चक्की के शोर में शायरी

सुबह से शाम तक चक्की पीसना बजा-ए-ख़ुद एक सख़्त मुश्किल काम था, लेकिन राक़िम-उल-हुरूफ़ के लिए इससे भी ज़्यादा तकलीफ़-देह काम ये था कि इब्तिदा-ए-क़ैद से लेकर आख़िर तक कोई किताब, रिसाला (पत्रिका) या अख़्बार किसी क़िस्म का पढ़ने को ना मिला।

ग़ौर करने का मुक़ाम है कि शब-ओ-रोज़ में जिस शख़्स का तक़रीबन कुल वक़्त-ए-शुग़्ल नविश्त-ओ-ख़्वांद (लिखना-पढ़ना) में गुज़रता हो, उसे दफ़्अतन (अचानक) इन तमाम दिलचस्पियों से अर्सा-ए-दराज़ के लिए अलाहिदा कर देना कितने बड़े जब्र की बात है।

मालूम होता है कि मेरी निस्बत सुपरिंटेंडेंट ने अपने मातहतों को ख़ास ताकीद कर दी थी कि काग़ज़, क़लम, पैंसिल, किताब या अख़बार तक इस शख़्स की किसी तरह दस्तरस ना हो सके। इस ख़ास सख़्ती के सबब से चक्की पीसने के दौरान में जितने शेर ख़्याल में आते थे उन्हें अक्सर कई-कई दिन तक ब-कोशिश-ए-तमाम ज़ेहन में महफ़ूज़ रखना पड़ता था। इन ग़ज़लों के जमा होने और ब-हिफ़ाज़त जेल से बाहर पहुंचाने के लिए बड़ी जद्द-ओ-जहद करना पड़ती थी।

Hasrat Mohani

सुपरिंटेंडेंट की सख़्त-दिली

चक्की पीसने वालों की निगरानी एक क़ैदी नंबरदार के सुपुर्द होती थी। राक़िम-उल-हुरूफ़ चूँकि साल भर के क़रीब चक्की ख़ाने में रहा, इसलिए सैकड़ों क़ैदियों और मुतअद्दिद नंबरदारों के वहाँ आने और तब्दील होने का अजीब-ओ-ग़रीब नज़ारा देखने में आया।

तंदरुस्त नए क़ैदियों को उमूमन पहले चक्की ही दी जाती है, इसलिए नए आने वालों से सबसे पहले मुलाक़ात का मौक़ा चक्की ख़ाने वालों ही को हासिल होता है।

जितने लोग चक्की-ख़ाने में थे सब अपने-अपने वक़्त पर यानी कोई एक हफ़्ता, कोई पंद्रह रोज़, कोई एक महीना और कोई हद दर्जा (ज़्यादा से ज़्यादा) तीन महीने रह कर दूसरी आसान मशक़्क़तों पर चले गए। हुक्काम-ए-जेल की ख़ास इनायत से ये फ़ख़्र इस ख़ाकसार ही को हासिल हुआ कि तक़रीबन सारा ज़माना-ए-क़ैद इसी एक मनहूस शुग़्ल (काम) में गुज़ारना पड़ा।

जेल में हर दूसरे या तीसरे महीने चक्की पीसने वालों का मुआइना ख़ास इसी ग़रज़ से हुआ करता है कि जो क़ैदी वज़न में कम हो गए हों या जिनको चक्की पीसते कई महीने गुज़र चुके हों वो किसी दूसरे आसान काम पर भेज दिए जाएं। राक़िम-उल-हुरूफ़ के ज़माने में तीन चार बार ऐसे मुआइने हुए जिनमें तक़रीबन तमाम पुराने साथियों की मशक़्क़तें तब्दील कर दी गईं, लेकिन ये कमतरीन जहाँ था वहीं रहा। एक बार जेलर ने ख़ास कर मेरे लिए तब्दीलि-ए-मशक़्क़त की सिफ़ारिश की और सुपरिंटेंडेंट को मेरे वज़न की ग़ैर-मामूली कमी से भी आगाह किया (दाख़िल-ए-जेल से क़ब्ल राक़िम-उल-हुरूफ़ का वज़न 132 पौंड था, लेकिन इस वक़्त सिर्फ़ 108 पौंड बाक़ी रह गया था, लेकिन सुपरिंटेंडेंट की क़सावत-ए-क़ल्ब ने इसकी जानिब भी कुछ तवज्जो न की और मेरे टिकट को वापस कर दिया।

हर रोज़ सुबह को सब क़ैदी जांगया, कुरता, तसला, कटोरी चक्की-ख़ाने के बाहर परेड में लगाकर सिर्फ एक लंगोटी बाँधे हुए अंदर दाख़िल हो जाते हैं और उन सब की गिनती लेकर दफ़अदार बाहर से दरवाज़ा बंद करके क़ुफ़्ल (ताला) लगा देता है। खाने के वक़्त दरवाज़ा फिर खोला जाता है। इससे पहले अगर किसी को रफ़्अ-ए-हाजत (मल-त्याग( के लिए दफ़अदार को दरवाज़ा खोलने की तकलीफ़ देना पड़े तो इस तकलीफ़-दही का इवज़ अक्सर डंडों और सोंटों की शक्ल में यक़ीनन मिलता है। कई क़ैदियों को तो इस जुर्म में इतनी सज़ा मिली कि अर्से तक उनके आज़ा (अंग) मजरूह (जख़्मी) बाक़ी रहे।

क़ैदियों के मारने-पीटने की क़ानूनन ज़रूर मुमानेअत (मनाही) है, लेकिन जब ख़ुद वार्डर क़वाइद-ए-जेल की पाबंदी नहीं करते तो उनके मातहत दफ़अदारों से इसकी उम्मीद रखना अबस )व्यर्थ( है।

हमारे सामने इस्माईल क़ैदी को बेरहम वार्डर ने इस क़दर मारा कि उसका तमाम जिस्म ज़ख़्मी हो गया और फिर उल्टी सुपरिंटेंडेंट से शिकायत कर के उसके पैरों में बेड़ियाँ डलवा दीं। क़ुसूर उसका सिर्फ़ इतना था कि हाथ में ज़र्ब (चोट) आ जाने के सबब से उसने चक्की पीसने से अपनी माज़ूरी ज़ाहिर की थी।