Lal Qila 1960 movie blog

लाल क़िला फ़िल्म आज भी हमें अपने असर में रक्खे हुए है

“हिंसा और स्वार्थ दो ऐसे पत्थर हैं जो ख़ुद तो डूबते हैं, मगर जो इन का सहारा लेते हैं, उनको भी डुबो देते हैं।”

ऐसे ख़ूबसूरत मुकालिमों से आरास्ता 1960 में मंज़र-ए-आम पर आयी फ़िल्म “लाल क़िला” सिर्फ़ लाल क़िले और हिन्दोस्तान के आख़िरी ताजदार बहादुर शाह ज़फ़र की कहानी नहीं है, बल्कि उस शरारे की कहानी है जो ज़ुल्म और इस्तेहसाल की हवा पा कर 1857 में एक शोले की शक्ल इख़्तियार कर गया।

पहली जंग-ए-आज़ादी को पर्दे पर उतारने का मंसूबा यक़ीनन नेक था (हालांकि इस से बहुत पहले 1946 में आयी “1857” नाम की फ़िल्म ये कोशिश कर चुकी थी), लेकिन ख़राब अदायगी के बाइस इस फ़िल्म से मायूसी ही हाथ लगती है। फ़िल्म का मंज़र-ए-आग़ाज़ ही मायूसकुन और तकलीफ़देह है। शाही मुशायरे में बादशाह ज़फ़र ग़ज़ल अता फ़र्मा रहे हैं, “न किसी की आँख का नूर हूँ, न किसी के दिल का क़रार हूँ…”। ये बड़ा गुमराहकुन मंज़र है, क्योंकि ये ग़ज़ल बादशाह ज़फ़र की है ही नहीं,  और उन के नाम सहवन मंसूब कर दी गयी है। ये ग़ज़ल दरअसल मुज़्तर ख़ैराबादी (मशहूर शायर और नग़मानिगार जावेद अख़्तर के दादा मरहूम) की है।

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अदाकारों का इंतख़ाब भी बड़े ग़ैरज़िम्मेदाराना तरीक़े से किया गया है। अंग्रेज़ों के किरदार भी हिन्दोस्तानी अदाकारों ने अदा किये हैं। अंग्रेज़ रेज़िडेंट मेटकाफ़ को निहायत हिन्दोस्तानी ख़द-ओ-ख़ाल में देखना कैसे न परेशान करे?  फ़िल्म के हिदायतकार को काश ये फ़हम होता कि महज़ बात-बात पर “होना मांगता है” बोलने से किरदार अंग्रेज़ नहीं लगने लग जायेगा।

कई मौक़ों पर कहानी उलझी हुई सी मालूम होती है और इस के हिस्से मुन्तशिर नज़र आते हैं। वीडियो का घटिया मेयार भी इस में एक हद तक ज़िम्मेदार हो सकता है। एक इंक़लाबी मौज़ू पर बनी फ़िल्म  में अहम किरदारों के बीच इश्क़-ओ-आशिक़ी न सिर्फ़ ग़ैर-ज़रूरी, बल्कि नामुनासिब भी लगती है। ज़बरदस्ती डाले गए मज़ाहिया किरदार फ़िल्म को और बोझल बनाते हैं। गाने कई मवाक़ों पर फ़िल्म को नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त होने से बचा लेते हैं। “प्यारा प्यारा ये समा” निहायत ख़ुशनवा और मशहूर गाना है।

Lal Qila 1960 movie

फ़िल्म में जो कुछ-एक याद रखने लायक़  चीज़ें हैं, उन में से एक है बहादुर शाह ज़फ़र के ये नायब अशआर―

और तो छोड़ा यहाँ का सब यहीं

एक तेरा दाग़ हम लेकर चले

दिल ही क़ाबू में नहीं जब ऐ ज़फ़र

तुम वहाँ किस के भरोसे पर चले

“लाल क़िला” का सबसे मज़बूत पहलू इसके मुकलमात ही हैं, मसलन―

“इस मुल्क की औरतों ने हाथों में चूड़ियाँ खनखनाना ही नहीं सीखा, वो तलवार चलना भी जानती है”

कई जगह तशद्दुद और अदम-तशद्दुद के तज़ाद को भी ज़ाहिर किया गया है। पुरअमन मुख़ालफ़त को दानिशमंद लोगों की तरजीह बताया गया है, और तख़रीबी अमल को दरिंदगी। मेयार पर समझौता करने को राज़ी हों, तो यूट्यूब पर ये फ़िल्म देख सकते हैं।