Maihar-1

मैहर : जहाँ अतीत मौजूदा वक़्त के साथ-साथ चलता है

छोटा-सा साफ-सुथरा रेलवे स्टेशन, क्षितिज में सुरमई पर्वत और दूर एक पहाड़ी से टकटकी लगाए मंदिर।

“खास बात तो यही है, आप यहाँ कहीं भी रहें, मैहर देवी की कृपा दृष्टि हमेशा आप पर रहेगी।” छोटे-से सरौते से सुपारी की महीन छिलके जैसी कतरनें बनाते उस अधेड़ शख़्स की आवाज हमारे कानों से टकराई जो स्वागत के लिए स्टेशन पर पहले से मौजूद था।

यह था मैहर। सतना जिले का एक छोटा-सा कसबा- कुछ बेरुखी-सी दिखाती मार्च की धूप में नहाया हुआ। पथरीली ज़मीन और सपनीली पहाड़ियों से घिरा एक कसबा- जहाँ की हवाओं में साल-दर-साल संगीत के स्वर गूंजते रहते हैं। वहाँ की गलियों, सड़कों और चौराहों पर भटकते अनश्वर स्वर का एहसास वक्त बीतने के साथ-साथ उसी तरह से हमारे दिमाग पर हावी होने लगा था, जैसे कोई राग अपनी विलंबित लय में आहिस्ता-आहिस्ता खुलता जाता है।

यह मैहर था। यह अनिश्चय से भरे वर्ष 1998 की शुरुआत थी। नए अखबार में नौकरी लगे अभी कुछ ही दिन बीते थे। पहला एसाइनमेंट मिला- मैहर संगीत समारोह की कवरेज का। मैं इस काम को अपने हाथ में लेकर थोड़ा असमंजस में था। तब संगीत के बारे में मुझे बहुत थोड़ी जानकारी थी और तब मुझे यह भी पता नहीं था कि अखबार में कुछ लिखने के लिए उसके बारे में जानना जरूरी नहीं होता। बहरहाल मैंने यह मान लिया कि शायद इसी से मुझे खुद को नौकरी में बने रहने लायक साबित करना होगा।

मैं इलाहाबाद रेलवे स्टेशन से रवाना हुआ था। पता नहीं कब पीली-पथरीली चट्टानों वाली धरती ट्रेन की खिड़कियों के बाहर दौड़ने लगी। मुझे इस न्यूज कवरेज के दौरान फोटोग्राफर नरेंद्र यादव के साथ जुगलबंदी करनी थी। यह अलग बात थी कि कम पढ़े-लिखे मगर बेफ़िक्र और आत्मविश्वासी नरेंद्र को शास्त्रीय संगीत में थोड़ी भी दिलचस्पी नहीं थी।

हम दोनों मैहर के उस छोटे से स्टेशन पर खड़े थे, जहाँ नन्हे सरौते से सुपारियों छीलकर खाने वाले अधेड़ संवाददाता हमारे इंतजार में पहले से मौजूद थे। पता लगा कि वे कई अखबारों के लिए वहाँ से खबरें भेजते थे हमारे प्रति उनका रवैया शंका से भरा हुआ था। उन्हें खास तौर से यह बात बिल्कुल गले नहीं उतर रही थी कि कोई अखबार सिर्फ संगीत समारोह की कवरेज के लिए किसी ख़बरनवीस और फोटोग्राफर को बाकायदा तीन दिन-दो रातों के लिए भेज सकता है। बात तो मेरे गले भी नहीं उतरती, मगर मेरा वहाँ आना सिर्फ एक इत्तेफाक था।

Maihar Temple

और जिंदगी में ऐसे तमाम इत्तेफाक हमेशा के लिए अपने निशान छोड़ जाते हैं।

मेरे लिए मैहर आना दरअसल मेरे बचपन के नास्टेल्जिया से जुड़ा था। बहुत साल पहले की बात है। तब मैं नौ बरस की उम्र में पिता के साथ उस पहाड़ की पथरीली ऊँची-नीची सीढ़ियाँ चढ़कर मंदिर तक पहुँचा था। माँ पीछे छूट गई थीं। ऊँचाई पर तेज हवा चल रही थी और मेरे कपड़े फड़फड़ा रहे थे। तब पिता के साथ मैंने ऊपर रेलिंग से झाँका था। वहाँ से मैहर किसी खिलौने की तरह बसा नजर आ रहा था। अब इतने सालों बाद मैहर को देख रहा था। यहाँ की सड़कों पर भटकते हुए सचमुच मैहर किसी खिलौना शहर जैसा लगा। घंटाघर, एक जेल, पहाड़ी पर रात को रोशनी से झिलमिलाता मंदिर, दुकानें, गेस्ट हाउस, मजार, होटल और छोटा-सा रेलवे स्टेशन। इन सबके अलावा ये जगह भारतीय शास्त्रीय संगीत की एक महान हस्ती बाबा अलाउद्दीन ख़ाँ की साधनास्थली भी है, जहां संगीत के स्वर इन सपनीली पहाड़ियों के बीच गूंजते रहते हैं।

पहले दिन हम दोनों बाबा की मजार पर भी गए। छोटी-सी, शांत, साफ-सुथरी और खूबसूरत जगह, मानो संगीत के दो स्वरों के बीच पसरी खामोशी हो। देखभाल करने वाले कुछ लोग। इतने चुपचाप, जैसे बाबा उस मजार में अभी-अभी बस दोपहर की एक नींद लेने पहुँचे हों। नरेंद्र ने चुपचाप तस्वीरें खींचीं। हम शांत ही रहे। वहाँ की खामोशी हम पर हावी हो गई थी। वहाँ से हम बाबा के पुश्तैनी मकान पहुँचे, जहाँ गाँव की किसी हवेली की तरह दोपहर का सन्नाटा पसरा हुआ था। हरियाली के बीच लाल और सफेद रंग का नगीने जैसा दोमंजिला मकान। भीतर बड़ा सा आंगन और चारो तरफ बरामदे। आंगन से ऊपर की तरफ जाती सीढ़ियां।

समारोह में हिस्सा लेने बाबा अलाउद्दीन ख़ाँ के पोते व सरोद वादक उस्ताद आशीष ख़ाँ पहुँच चुके थे। वे अपने उसी पुश्तैनी घर में ठहरे थे। हम उनसे मिलने गए तो वे बाहर बरामदे में पसरी मार्च की धूप में बैठे थे। आशीष ख़ाँ शास्त्रीय संगीत की शानदार विरासत को सँभालने वाली तीसरी पीढ़ी हैं। जाने-माने सितार वादक उस्ताद अली अकबर ख़ाँ के बेटे और बाबा अलाउद्दीन ख़ाँ के पोते। बताते हैं कि पाँच साल की उम्र में ही उन्होंने पिता और बाबा से सीखना शुरू कर दिया था। आकाशवाणी पर बाबा के साथ जुगलबंदी भी की और उस ऐतिहासिक क्षण का हिस्सा भी रहे, जब तानसेन संगीत समारोह में शास्त्रीय संगीत का तीन पीढ़ियों ने एक साथ प्रदर्शन किया था।

मेरे जैसे सिनेमा प्रेमी के लिए यह खासा रोमांचक था कि मैं फिल्म ‘अनफारगिवेन’ के अभिनेता-निर्देशक क्लींट ईस्टवुड, ‘लारेंस आफ अरेबिया’ के डेविड लीन, और ‘गाँधी’ के रिचर्ड एटनबरो जैसे महान निर्देशकों के साथ काम करने वाले एक भारतीय संगीतकार से मुलाकात कर रहा हूँ। मेरे पास उनसे बातचीत की एक पृष्ठभूमि भी थी- उस वक्त तक मैं सत्यजित रे की वो तीनों फिल्में देख चुका था, जिनका पार्श्व संगीत शास्त्रीय संगीत के ही दिग्गजों ने दिया था। बातचीत शुरू हुई और आशीष बेहद सुलझे हुए और बिना किसी पूर्वाग्रह के नजर आए।

“सीधी परफार्मेस से हटकर सिनेमा जैसे माध्यम के साथ काम करने का आपका अनुभव कैसा रहा?” मैंने उनसे जानना चाहा।

उन्होंने बताना शुरू किया, “इसकी शुरुआत जॉन ह्यूस्टन की फिल्म ‘मैन हू वुड बी किंग (1975)’ से हुई। रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी (1982)’ में मैंने पंडित रविशंकर के साथ संगीत दिया था। इसके अलावा डेविड लीन की ‘पैसेज टु इंडिया (1984)’ और क्लीट ईंस्टवुड की ‘ब्रीज़ी’ भी उल्लेखनीय रही। बीटल्स ग्रुप के जार्ज हैरिसन के साथ मेरा काम ‘थंडरबॉल’ फिल्म में था। भारतीय फिल्मकारों में मैंने तपन सिन्हा के साथ काम किया है। उनके साथ दो फिल्में ‘जातगृह’ तथा ‘आदमी और औरत’ की…”

जब निर्देशकों के काम करने के तरीके पर चर्चा चली तो बोले, “डेविड लीन के साथ काम करने का बिल्कुल अलग अनुभव रहा। उन्हें संगीत की गहरी समझ थी और फिल्म माध्यम पर जबरदस्त पकड़। ‘ए पैसेज टू इंडिया’ में उन्होंने फिल्म की एडीटिंग भी खुद ही की थी। अपने जानने वाले भारतीय निर्देशकों में मैंने यह खूबी तपन सिन्हा के अंदर देखी। उन्हें पता है कि कैसे संगीत को सिनेमा से जोड़ना चाहिए। मुझे इस माध्यम के लिए काम करके बहुत कुछ सीखने को मिला, खास तौर पर यह कि किस तरह संगीत को एक खास तरह के मूड से जोड़ा जाए।”

आशीष ख़ाँ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने प्रयोगों के लिए चर्चित रहे हैं। उन दिन की छोटी-सी मुलाकात में आशीष ख़ाँ की शख्सियत ने जो छाप छोड़ी, वह मेरे जहन में आज भी बरकरार है। वे मुझे सही मायनों में एक आधुनिक भारतीय लगे। एक ऐसा आधुनिक भारतीय जो अपनी परंपरा को समझता है और इसे लेकर उनके मन में कोई दुविधा नहीं है। उन्होंने माना कि संगीत से जुड़े प्रयोगों में उनकी दिलचस्पी शुरू से रही है।

“मैंने ‘शांति’ नाम का एक म्यूजिकल ग्रुप 1969 में लॉस एंजेल्स में शुरू किया था। यह उस समय तक संभवतः विश्व का पहला फ्यूजन ग्रुप था। इसमें जैज़, रॉक एंड रोल, भारतीय क्लासिकल और सेमी क्लासिकल का मिश्रण था। इसमें मेरे अलावा उस्ताद ज़ाकिर हुसैन और चार अमेरिकी संगीतकार शामिल हुए।” उस्ताद आशीष ख़ाँ अतीत को खंगालने लगे।

वे इसकी पृष्ठभूमि बताने लगे, “दरअसल जब मैं अमेरिका गया तो जैज़ तथा बीटल्स ग्रुप के जार्ज हैरिसन, रिंगो स्टार तथा एरिक क्लेक्टन के साथ काम करने का मौका मिला। तभी यह प्रेरणा भी मिली। हमारे कुछ एलबम भी बने। अस्सी के दशक में आया ‘वर्ल्ड आई’, यह क्लासिक रागों पर आधारित एलबम था। इसके बाद ‘इनर वॉयस’ और अभी बिल्कुल नया एलबम आया है ‘वायस बियांड’।”

उन्होंने कहा, “मुझे पश्चिमी संगीत में जैज़ का स्वर-विस्तार बहुत पसंद आया। यह भारतीय शास्त्रीय संगीत से बहुत मिलता है। जैज़ में एक थीम होती है, जिसे हम अपने यहाँ गत कहते हैं। जैज़ में प्यानो, की-बोर्ड तथा ड्रम के वादक जैसे हर कलाकार को ग्रुप में अलग-अलग सोलो बजाने का मौका दिया जाता है।”

Beautiful Scenery of Maihar

मैहर रवाना होते वक्त मेरे मन में शास्त्रीय संगीत को लेकर एक सवाल मन में कौंधा था। उन दिनों हर तरफ उदारीकरण और ग्लोबलाइजेशन की बयार बह रही थी और संगीत में फ्यूजन कोई नई चीज नहीं रह गई थी। लिहाजा मैं यह जानना चाहता था कि भारतीय शास्त्रीय संगीत क्या बदलाव से खुद को बिल्कुल अछूता रखना चाहता है? या वहाँ भी किसी किस्म की हलचल है?

“क्या फ्यूजन संगीत किसी ग्लोबल म्यूजिक जैसी चीज को जन्म दे रहा है? आने वाले दिनों में संगीत कहीं अपनी सांस्कृतिक पहचान की न खो दे?” मैंने उनसे जानना चाहा।

उस्ताद ने कहा, “जिस तरह हमने शुरू किया, बाद में लोगों ने उसे गलत तरीके से अपनाया और अब फ्यूज़न महज एक शोर में बदलकर रह गया। संगीत में सबसे पहले मेलोडी आती है, फिर रिदम और पश्चिम की हारमोनी। इनके सही इस्तेमाल की समझ न हो तो फ्यूजन नहीं रचा जा सकता। मैं एम टीवी देखता हूँ तो लगता है कि संगीत का यह दौर चंद रोज़ का ही है फिर लोग भूल जाएंगे। आज भी जब हम रेडियो खोलते हैं तो वही पुराने हिंदी गाने सुनते हैं, जो बरसों-बरस से सुनते आ रहे हैं।”

उनसे मुलाकात के बाद जब हम निकले तो दोपहर का बचा वक्त सरकारी गेस्ट हाउस में बिताया। थोड़ी-सी नींद ली, क्योंकि हमें आज की रात जागना था। देखते-देखते दिन ढल गया। हम जल्दी-जल्दी तैयार हुए। उस शाम हमें कुछ और इंटरव्यू करने थे। साथ ही पहले दिन हलचलों और उद्घाटन समारोह की रिपोर्ट फैक्स से भेजने का तनाव भी मन में बना था। हम गेस्ट हाउस बाहर निकले। मैं और कैमरा संभाले नरेंद्र उस मैदान की ओर बढ़े जहाँ समारोह शुरू होने वाला था। शाम धीरे-धीरे किसी उत्सव की तैयारियों जैसा रंग लेती जा रही थी।

लोग जुटने लगे और मेरे लिए शास्त्रीय संगीत के महज ‘एलीट क्लास’ के लिए होने का भ्रम भी आहिस्ता-आहिस्ता टूटने लगा। भ्रम टूटने के बाद जो एहसास मुझ पर हावी हुआ, उसका असर आज भी मौजूद है। यह शायद मैहर में ही संभव था कि एक भूतपूर्व विधायक लोगों को बाबा अलाउद्दीन ख़ाँ के संस्मरण सुनाता नजर आए या कोई जेलर संगीत की धुनों पर सिर हिलाता दिखे। आसपास के गाँवों के लोग इस तरह धीरे-धीरे अँधेरा होने के साथ पहुँचते दिखे जैसे किसी मेले में आ रहे हों।

मैंने देखा कि यह मैहर में ही होता है कि गाँवों से आए लोग ऐन मंच के सामने संगीत में खोए-खोए सो जाते हैं। फिर कोई उन्हें हिलाकर जगाता है और संगीत का अपमान करने पर झिड़की भी देता है। पूरे पंडाल में सिर्फ दरियाँ और गद्दे बिछे हुए थे। सामने मंच था और चारों तरफ खुला आसमान व क्षितिज में दिखाई देती सुरमई पर्वत शृंखलाएँ। इन्हीं सुनने वालों में से एक था मैहर संगीत महाविद्यालय का युवा शिक्षक । “यहाँ के लोग किसी ग्लैमर की वजह से संगीत सुनने नहीं आते। अब यह उनके संस्कार में शामिल हो गया है…” उसने कहा। ऐसी ही हैरानी मुझे उस वक्त हुई थी जब दोपहर में ढाबे पर खाना खाते वक्त एक सरकारी दफ्तर का बाबू किसी संगीत मर्मज्ञ की तरह गुजरे वर्षों के दौरान मैहर में हुई ऐतिहासिक जुगलबंदियों के किस्से सुनाने लगा।

सुबह से दोपहर तक आते-आते मैं जैसे एक दूसरी धरती अपने पैरों से टटोल रहा था। इस कसबे में इतिहास भुला दी गई कोई कहानी नहीं थी। अतीत यहाँ हमारे मौजूदा दौर का एक हिस्सा था। लेकिन क्या यह सचमुच मैहर जैसे शहरों की हक़ीकत है या बस बाहरी संसार से कटे हुए कुछ लोगों की खुशफहमी?

मैं बड़ी शिद्दत से शाम का इंतजार करने लगा…

इस संस्मरण की अगली कड़ी में मैहर बैंड के बारे में पढ़ने के लिए यहाँ देखें : मैहर पार्ट -2