Premchand

प्रेमचंद की कहानियों के किसानों से मिलिए, जो आज के किसानों से ही मिलते-जुलते हैं

प्रेमचंद हिन्दुस्तान की आत्मा के लेखक हैं। उनके यहाँ आम-ओ-ख़ास सबके लिए लेखन मिल जाता है। उन्होंने जीवन-भर वही लिखा जो देखा और महसूस किया। प्रेमचंद ने वैसे तो हर वर्ग के लोगों को अपनी कहानियों का विषय बनाया, मगर जो एक वर्ग उनकी कहानियों में ख़ास तौर से उभर कर सामने आया, वह था किसान वर्ग। उन्होंने अपनी रचनाओं में किसान और ग्रामीण परिवेश को प्रमुखता से स्थान दिया।

प्रेमचंद के कथा-साहित्य में किसान-जीवन के मुख़्तलिफ़ पहलुओं की अक्कासी नज़र आती है। यहाँ हम आपके लिए ऐसी ही पाँच कहानियाँ लेकर हाज़िर हुए हैं।

किसानों के जीवन को मौज़ूअ बना कर लिखी गईं ये कहानीयाँ पढ़ कर जो एक ख़ास बात सामने आती है वो ये कि प्रेमचंद के समय के किसान और हमारे दौर के किसान एक ही से हालात का शिकार हैं। प्रेमचंद की ये कहानियाँ लम्बा समय गुज़र जाने के बाद भी हमारे आज के दौर के किसानों की कहानियाँ मालूम होती हैं।

सारी कहानियाँ उर्दू और देवनागरी लिपि में रेख़्ता पर मौजूद हैं। पढ़ने के लिए कहानी के नाम पर क्लिक कीजिए।

क़ुर्बानी

यह कहानी क़र्ज़ के बोझ में दबे और धर्म की आड़ में होते शोषण का शिकार, किसान वर्ग की वास्तविक स्थिति को बयान करती है। किसान अपने खेत और बैल, दोनों पर अपनी जान देता है। अपने खेतों को वो अपनी माँ और बैलों को अपने हाथ मानता है। इसलिए वह जहाँ तक बस चलता है अपने खेत और बैल दूसरों को नहीं देना चाहता। यह बात उसके संस्कारों के साथ जुड़ी हुई है। हालांकि उसके गिर्द धर्म और कर्ज़ के शोषण का चक्रव्यूह इतनी मजबूतों के साथ बंधा हुआ है कि वह चाहकर भी जान से ज़ियादा प्यारी अपनी इन दोनों चीज़ों की हिफ़ाज़त नहीं कर पाता। एक दिन वे आता है की इसी शोषण के चलते गिरधारी के खेतों पर भी ज़मींदार क़ब्ज़ा कर लेटा है और महाजन उसके बैल खोल कर ले जाता है। जान से ज़ियादा अज़ीज़ इस सरमाये के छिन जाने का असर गिरधारी पर बहुत गहरा पड़ता है और चंद दिनों बाद ही इसी ग़म में उसकी जान चली जाती है और फिर एक नया दौर शुरू होता है, खेतों से आत्मा के सम्बन्ध का।

सवा सेर गेहूँ

सवा सेर गेहूँ शंकर नामक एक ऐसे सीधे-सादे और भोले-भाले किसान की कहानी है जिसे धोखे से क़र्ज़ के जाल में फंसा दिया जाता है। वह किसी तरह अपना जीवन गुज़ारता है। दो वक़्त के खाने का इंतज़ाम भी बड़ी मुश्किल से कर पाता है। इसी तरह मुश्किलों में समय गुज़र रहा होता है कि इसी बीच उसके जीवन में एक ऐसा वाक़िआ पेश आता है जिससे उसका जीवन नरकीय हो जाता है। उसके दरवाजे पर एक दिन एक साधु आ जाते हैं। साधु को खिलाने के लिए उनकी हैसियत के मुताबिक़ अन्न नही होता, घर में जौ का आटा तो था पर साधु को ये मोटा अनाज कैसे खिलाए ये सोचकर किसान पूरे गाँव में गेहूँ का आटा माँगने जाता है। लेकिन खोजने पर भी गाँव में गेहूँ का आटा नही मिलता। तब वह विप्र जी के घर जाता है, वहाँ उसे आटा तो नही सवा सेर गेहूँ मिलता है। शंकर की पत्नी गेहूँ का आटा पीसती है और भोजन बनाती है। साधु खा-पीकर और आशीर्वाद देकर चले जाते हैं। उनका आशीर्वाद कोई काम नही आता, क्योंकि यही सवा सेर गेंहू आगे चल कर शंकर के गले की फाँस बन जाते है।

पूस की रात

प्रेमचंद ने ‘पूस की रात’ कहानी करीब 100 साल पहले (1921) में लिखी थी। उस दौर में कृषि और किसानों की स्थिति को जानने-समझने के लिए यह एक दुर्लभ कहानी है। मुंशी प्रेमचंद के रचनाकाल और मौजूदा दौर में किसानों की स्थिति का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो एक बात तो स्पष्ट हो जाएगी कि किसानों के लिए स्थितियां आजादी के बाद बहुत बेहतर नहीं हुई हैं। इस कहानी में किसानों की दो समस्याएं मुख्य रूप से उभरकर सामने आती हैं, कर्ज में डूबा किसान और खेती का लाभकारी न होना।

इस कहानी का किसान हल्कू एक ऐसा किसान है जो दिन-रात कड़ी मेहनत करता है और पाई-पाई बचाकर रखता है तो भी अपने लिए सर्दी से बचने के लिए एक कंबल तक हासिल नहीं कर पाता है. वह इतना कमजोर है कि परिस्थितियों के दबाव के कारण नील गायों से अपनी फसल की रक्षा भी नही कर पाता। प्रेमचंद ने इस कहानी के माध्यम से किसानों की बद-हाली के लिए जिम्मेदार शक्तियों पर तीखा व्यंग्य किया है।

राह-ए-नजात

इस कहानी में प्रेमचंद ने अंधविश्वास के कारण बर्बाद होते दो परिवारों की बेहाली को दिखाया है। साथ ही ब्राह्मणों की धर्म की आड़ में दलित वर्ग के शोषण की नीति को भी। झींगुर महतो को अपने खेतों पर बड़ा नाज था। एक दिन बुद्धू गड़रिया अपनी भेड़ों को उधर से लेकर गुजरने लगा तो महतो को इतना गुस्सा आया कि उसने हाथ छोड़ दिया और बुद्धू की भेड़ों पर ताबड़-तोड़ लाठियां बरसा दीं। बदले में एक रात बुद्धू ने महतों के खेतों में आग लगा दी। दोनों के बीच पनपनी यह रंजिश इतनी लंबी चली कि एक दिन वह भी आया जब दोनों परिवारों को एक वक़्त की रोटी के लिए भी संघर्ष करना पड़ा।

पंचायत

कहानी में बताया गया है कि अनुकूल परिस्थितियों के आने पर मनुष्य का हृदय परिवर्तन हो जाता है और वह अपनी कुवृत्तियों का त्याग करके सद्वृत्तियों की ओर अग्रसर होता है। इस कहानी में प्रेमचंद्र ने आशा और विश्वास का सन्देश दिया है। यदि मनुष्य में बुराई आ गयी है, यदि ग्रामीण जीवन दूषित हो गया है तो निराश होने का कोई कारण नहीं है, प्रयास करने पर ग्रामीण जीवन को फिर सुखी बनाया जा सकता है और हृदय-परिवर्तन के द्वारा मनुष्य के समस्त दोषों को दूर करना संभव है।