#QissaKahani: वो दिन जिसके बाद नेहरू ने उर्दू सीखने और ग़ालिब को पढ़ने का फ़ैसला किया

QissaKahani रेख़्ता ब्लॉग की नई सीरीज़ है, जिसमें हम आपके लिए हर हफ़्ते उर्दू शायरों, अदीबों और उर्दू से वाबस्ता अहम् शख़्सियात के जीवन से जुड़े दिलचस्प क़िस्से लेकर हाज़िर होते हैं। इस सीरीज़ की तीसरी पेशकश में पढ़िए नेहरू के उर्दू सीखने का क़िस्सा।

1947 का अलीगढ़ है। ताला बनाने वाले कारख़ाने के चबूतरे पर कुछ बुज़ुर्ग बैठे बातें कर रहे हैं। अचानक सामने से एक दराज़-क़द (लंबी) औरत का गुज़र होता है। उसे देखकर चबूतरे पर बैठे हुए एक बुज़ुर्ग के मुँह से बे-साख़ता ये मिस्रा निकलता है,

तूल-ए-शब-ए-हिज्राँ से भी दो हाथ बड़ी है

(यानी, हिज्र की रात की लम्बाई से भी दो हाथ बड़ी है)

मिस्रा सुनते ही चबूतरे पर बैठे लोगों के मुँह से ‘वाह’ निकलता है। इसी बीच एक बुज़ुर्ग को इस मिस्रे के पीछे की कहानी याद आ जाती है। वे फड़क कर बोलते हैं,

“क्या आप लोगों को इस मिस्रे के पीछे का किस्सा पता है?” सब चुप रहते हैं। और फिर वो बुज़ुर्ग ख़ुद ही क़िस्सा सुनाना शुरू करते हैं,

“बताते हैं कि एक दिन शायरों की एक महफ़िल में दोस्ताना नोक-झोंक हो रही थी। एक शायर ने ‘तूल-ए-शब-ए-हिज्राँ से भी दो हाथ बड़ी है’ मिस्रा पढ़ कर कहा, ”हज़रात आप में से कोई है जो इस मिस्रे पर गिरह लगा सके, यानी इस मिस्रे पर दूसरा मिस्रा कह सके।”

ये सुनकर महफ़िल में मौजूद एक शख़्स ने फौरन गिरह लगाई और शेर मुकम्मल कर दिया,

ये ज़ुल्फ़ मुसलसल जो तेरे रुख़ पे पड़ी है
तूल-ए-शब-ए-हिज्राँ से भी दो हाथ बड़ी है

मजलिस में मौजूद लोगों को शेर के पीछे की कहानी तो कुछ ज़ियादा पसंद ना आई लेकिन शेर सब के दिल में उतर गया और सब वाह वाह करने लगे।

वाह वाही का शोर जब ज़रा हल्का हुआ तो चबूतरे के कोने पर ख़ामोशी से बैठे मुंशी जी को भी कुछ याद आगया। बोले,

“यारो मुझे भी एक वाक़िया याद आता है, ये उन दिनों की बात है जब मैं हकीम अजमल ख़ाँ के मतब में काम करता था। एक दिन मोती लाल नेहरू, तेज बहादुर सप्रू और जवाहर लाल नेहरू हकीम साहब से मिलने मतब में आए।

नेहरू उन्हीं दिनों इंग्लैंड से पढ़ कर वापस लौटे थे। सब बैठे बातें कर रहे थे कि अचानक मियाँ फ़ज़्ल इलाही भी चले आए और हकीम साहब से माजून की फ़र्माइश की।

हकीम साहब ने पूछा, ”माजून के लिए कोई बर्तन लाए हो।”

इस पर मियाँ साहब ने मिट्टी का एक गंदा बर्तन पेश किया। बर्तन देखकर हकीम साहब ज़रा सा परेशान हुए और बदली-बदली आँखों से मियाँ साहब की तरफ़ देखने लगे।

हकीम साहब की ये हालत देखकर मियाँ साहब ने अपने बचाव में ग़ालिब का ये शेर पढ़ा,

और बाज़ार से ले आए अगर टूट गया
साग़र-ए-जम से मिरा जाम-ए-सिफ़ाल अच्छा है

(ग़ालिब कहते हैं, मेरा ‘जाम-ए-सिफ़ाल’ यानी मिट्टी का बना हुआ प्याला ‘साग़र-ए-जम’ से अच्छा है। अगर कभी टूट भी जाये तो बाज़ार से दूसरा ला सकते हैं। ‘साग़र-ए-जम’ एक प्राचीन बादशाह जमशेद के प्याले का नाम है। जिसे उसने अपने समय के साईंसदानों से बनवाया था।)

मजलिस में मौजूद तमाम लोग मियाँ साहब की हाज़िर-जवाबी पर दाद बरसाने लगे और क़हक़हे लगाने लगे। लेकिन बस एक नेहरू ही ऐसे थे जिनको ज़रा भी शेर समझ नहीं आया था और वे ख़ामोश सब के चेहरे तकते रहे।

जब मोती लाल, नेहरू और तेज बहादुर सप्रू वापस लौटने लगे तो हकीम साहब ने चुपके से तेज बहादुर सप्रू से कहा,

“मोती लाल से कहो कि बच्चे को ज़रा और पढ़ाऐं।”

ये वाक़िया सुना कर वे बुज़ुर्ग बोले, सुना जाता है इसके बाद नेहरू ने ग़ालिब की शायरी पढ़ने और समझने के लिए उर्दू सीखना शुरू की और चंद महीनों में उन्होंने अच्छी उर्दू भी सीख ली और ग़ालिब की शायरी भी पढ़ ली।

साल भर बाद जब वे एक कॉलेज के जलसे में चंदा जमा करने के लिए तक़रीर करने पहुंचे तो उन्होंने शुरूआत मिर्ज़ा ग़ालिब के इस शेर से की,

बदल कर फ़क़ीरों का हम भेस ग़ालिब
तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं

पेशकश: हुसैन अयाज़