Sher Mein Ek Lafz Ki Kahani

शेर में एक लफ़्ज़ की हैसियत

किसी भी बात को बा-बहर कह देने भर से शेर नहीं होता।

बक़ौल फ़िराक़ गोरखपुरी अगर ऐसा होता, तो:

इखत्तर बहत्तर तिहत्तर चौहत्तर
पछत्तर छियत्तर ससत्तर अठत्तर

भी शेर कहलाता, क्यों कि ये दोनों मिसरे भी ”फ़ऊलुन, फ़ऊलुन, फ़ऊलुन, फ़ऊलुन” के वज़्न पर कहे गए हैं। लेकिन नहीं! ऐसा नहीं है। न ऐसा होता है!!

एक अच्छा शेर कहने से पहले हमें कई बातों का ध्यान रखना पड़ता है। अव्वल तो यह कि हमारा ख़याल यानी शेर का मौज़ूअ क्या है, और हम उसे पेश कैसे कर रहे हैं? शेर का मतलब होता है ”कोई एक बात, कोई एक मौज़ूअ दो मिसरों में कहना न कि दो मुख़्तलिफ़ मौज़ूअ दो मिसरों में कहना” इसीलिए इस बात का ख़ास ख़याल रखा जाना चाहिए कि दोनों मिसरों में रब्त (रिश्ता) हो, यानी मिसरे मरबूत हों। ऊला (पहला) मिसरा कहते वक़्त इस बात का ख़ास तौर पर ख़याल रखना होता है कि जब तक सानी (दूसरा) मिसरा न कहा जाए तब तक शे’र का मौज़ूअ न खुले और न ही बात मुकम्मल हो। शेर कहते वक़्त बहुत ज़रूरी है अल्फ़ाज़ का इन्तेख़ाब। एक ही चीज़ को पुकारने (कहने) के लिए हर ज़बान में कई लफ़्ज़ होते हैं जैसे चाँद को ”क़मर” और ”महताब” भी कहा जाता है। सूरज को ”ख़ुर्शीद”, ”ख़ुर”, ”शम्स” और ”आफ़ताब” भी कहा जाता है। रंज, मिहन, दुःख, ग़म वग़ैरह अल्फ़ाज़ के मआनी भी लगभग एक से हैं। लेकिन एक नहीं। लम्बे मुतालए के बाद हम पर ज़बान के मसअले (बारीकियाँ) खुलते हैं और एक वक़्त के बा’द ही हम में शेरी शऊर का इज़ाफ़ा होता है कि हम इस बारीकी से वाक़िफ़ हो पाते हैं कि हमें शेर कहते वक़्त किस लफ़्ज़ का इस्तेमाल कहाँ करना है। शेर में कौन सा लफ़्ज़ कहाँ ज़ियादा मुनासिब और ख़ूबसूरत लगेगा।

अगर बात की इब्तेदा ‘दुःख’ और ‘ग़म’ लफ़्ज़ के हवाले से की जाए तो ग़ालिब का मशहूर शेर इसकी सबसे ख़ूब-सूरत मिसाल में शुमार होगा। आइए देखते हैं:

इब्न-ए-मरियम हुआ करे कोई
मेरे दुःख की दवा करे कोई

इस शेर में अगर हम दुख की जगह ‘ग़म’ कर दें तो शेर की ख़ूबसूरती और उसका अस्ल कर्ब जाता रहेगा। आप खुद देखिए:

इब्न-ए-मरियम हुआ करे कोई
मेरे ग़म की दवा करे कोई

सैफ़ुद्दीन सैफ़ का शेर है:

दुख तो देता है तिरा ग़म लेकिन
दिल को इक्सीर बना देता है

इस शेर में भी आप ‘दुख’ लफ़्ज़ को ग़म और ग़म लफ़्ज़ को दुख से बदल कर देखिए। आप पाएँगे कि शेर का तमाम हुस्न मर गया।

गाहे-ब-गाहे मैं इस तरह की गुफ़्तगू फ़ेसबुक या दीगर सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स पर करता रहता हूँ। एक मर्तबा जब दुख और ग़म लफ़्ज़ के हवाले से मैंने अपनी बात फ़ेसबुक पर रखी, तब लखनऊ की शाइरा आएशा अयूब साहिबा ने इन्हीं दोनों अल्फ़ाज़ के हवाले से एक शेर कहा। हू-ब-हू वैसा जैसा मैंने अपनी बात को रखने की कोशिश की थी।

तो अब ये दुःख भी दुनिया बाँट लेगी
मुझे इस बात का ग़म खा रहा है

इस शेर पर जब मैंने उनसे कहा कि क्या आप गन पॉइंट पर भी ग़म को दुख और दुख को ग़म से बदलेंगी? उनका जवाब था ”नहीं”। क्यों? क्यों कि उसके बाद शेर का हुस्न जाता रहेगा।

दुख सहते ग़म खाते रहे
फिर भी हँसते गाते रहे

साहिर लुधियानवी

दुख खाते रहे ग़म सहते रहे? ठीक लगेगा? दुख का दाएरा ग़म से बड़ा है। दुख का कर्ब ग़म से ज़ियादा है। ज़िन्दगी का दुख, जी न पाने का ग़म।

चन्द रोज़ क़ब्ल फ़ेसबुक पर मेरे छोटे भाई सामान सौरभि दीपेश का एक शेर बहुत लोगों की जानिब से साझा किया गया:

कुछ इस लिए भी मैं चुप हूँ तिरे सताने पर
मैं चाहता हूँ मिरा ज़ब्त भी मिसाल बने

मुझे ये शेर तो अच्छा लगा लेकिन मुझे इस शेर में एक बात खटक रही थी, सो मैंने वो शेर अपने एक प्रिय शागिर्द को भेजा और उससे पूछा कि ”ये शेर अच्छा होते-होते रह गया है, बताओ इसमें क्या कमी है”? उसका जवाब आता है कि ”इस शेर को माज़ी के हवाले से कहा जाना चाहिए था कि:

कुछ इस लिए भी मैं चुप था तिरे सताने पर
मैं चाहता था मिरा ज़ब्त भी मिसाल बने

मैंने कहा ”सो भी ठीक है लेकिन इसमें एक बड़ी कमी है, शेर के सानी मिसरे में ”भी” लफ़्ज़ पर ग़ौर करो” जवाब आया ”जी इस पर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया”। ख़ैर ! मैंने कहा इस ”भी” को हटा के बताओ” तो बदले में शेर बना:

कुछ इस लिए भी मैं चुप हूँ तिरे सताने पर
मैं चाहता हूँ मिरा ज़ब्त इक मिसाल बने

वाक़ई शेर बन गया और कितना सुन्दर! लेकिन बात यहाँ ख़त्म नहीं बल्कि शुरूअ होती है, कि इस ”भी” लफ़्ज़ को हटाना क्यों हैं? यह मेरी बात नहीं, बल्कि उससे किया गया सवाल था, जिसके बदले में जवाब आया कि ‘इसमें दो बातें हैं एक तो ये कि ”मिरा ज़ब्त भी” यानी इससे पहले भी इस तरह का किसी का ज़ब्त मिसाल बन चुका है, दूसरी ये कि शाइर के नज़्दीक ज़ब्त के इलावा भी कुछ है जो मिसाल बन सकता है, लेकिन दोनों ही बातों का शेर में ज़िक्र नहीं है! लिहाज़ा यहाँ ”भी” का कोई काम नहीं है, और ये न केवल शे’र की ख़ूब-सूरती पर बल्कि उसके मआनी पर भी ग़ैर-वाजिब असर डाल रहा है।

जैसा कि मैंने पहले अर्ज़ किया है कि चाँद को क़मर और महताब भी कहते हैं लेकिन शाइरी में हर जगह एक ही मआनी के ये तीनों लफ़्ज़ बराबरी की हैसियत नहीं रखते।

गुलज़ार की मशहूर नज़्म का एक मिसरा मिसाल के तौर पर पेश है जहाँ वो कहते हैं कि: ”एक सौ सोलह चाँद की रातें एक तुम्हारे काँधे का तिल” इस मिसरे को हम अगर यूँ करके पढ़ें कि ”एक सौ सोलह ‘क़मर’ की रातें एक तुम्हारे काँधे का तिल” या ”एक सौ सोलह ‘महताब’ की रातें एक तुम्हारे काँधे का तिल”, तब भी मिसरे की मानी नहीं बदले, हू-ब-हू वही मआनी होने के बावजूद मिसरा सुनने में बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा। यानी शाइरी में सोच को तरतीब देने वाले अल्फ़ाज़ के मजमूए में कहीं चाँद बादशाह है तो कहीं क़मर तो कहीं महताब!! मसलन चाँद का टुकड़ा, चाँद-सा चेहरा मज़ीद ख़ूब-सूरत सुनाई पड़ता है, बजाए क़मर का टुकड़ा या क़मर-सा चेहरा के।

आशिक़ी में ‘मीर’ जैसे ख़्वाब मत देखा करो
बावले हो जाओगे महताब मत देखा करो

अहमद फ़राज़

मेरा एक शेर है जो 4 साल तक एक लफ़्ज़ के चक्कर में ठन्डे बस्ते में पड़ा रहा।

घर बनाया था उजालों ने तिरी आँखों में फिर
देर तक सोना तिरा ‘शम्स’ से झगड़ा होना

इस शेर को मैंने जितना नाज़ुक, लचकदार और मा’सूम बनाने कोशिश की थी, लफ़्ज़-ए-शम्स उतनी बेरहमी से इसकी जान लेने पर आमादा था। फिर एक रोज़ अचानक ही ख़याल आया कि ‘शम्स’ की जगह ‘धूप’ कर सकते हैं तब शेर यूँ हुआ कि:

घर बनाया था उजालों ने तिरी आँखों में फिर
देर तक सोना तिरा ‘धूप’ से झगड़ा होना

इस तस्कीन को हासिल करने में कि शे’र ठीक हो गया है 4 साल भी लग सकते हैं। इस तजरबे के साथ आख़िर-आख़िर में एक बात और कि शे’र को लचकदार और नाज़ुक बनाने के बाइस हम कई बार उसमें ग़लत लफ़्ज़ का इस्ते’माल कर लेते हैं, अगर कोई शेर यूँ कहा जाए कि:

आसमानों की सैर करने को
मैंने पहने हैं तितलियों के पर

यहाँ ‘तितलियों के पर’ सुनने में जितना अच्छा मआनी के ऐतबार से है, उतना ही उसका उल्टा है कि तितली के पर कभी आसमान तक नहीं जा सकते। गो कि ज़मीन के क़रीब-तर घूमते किसी अब्र तक भी जा पाएँ, सो भी बड़ी बात होगी।

आसमानों की सैर करने को
मैंने पहने हैं ‘पंछियों’ के पर

बात कुछ हद तक बनती मा’लूम होती है। चलिए अब विदाअ ‘’फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया’’ !!