यूसुफ़ी: जो उर्दू फ़र्श पर बैठ कर लिखते थे और अंग्रेज़ी कुर्सी पर

उर्दू के विख्यात हास्य और व्यंग्य लेखक मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी का व्यक्तित्व भी उनके लेखन की तरह बहुत निराला और अचंभे में डाल देने वाला था। उनकी तहरीरों की शगुफ़्तगी और क़हक़हों से भरी दुनिया से परिचित होने के बाद जब कभी किसी शख़्स को उनसे मिलने का मौक़ा मिलता तो मिलकर हैरान रह जाता। उसके लिए यह यक़ीन करना ही मुश्किल होता कि सामने मौजूद दुबला-पतला, कम-गो (कम बोलने वाला), शर्मीला, बज़ाहिर बहुत ख़ुश्क और बोर सा लगने वाला व्यक्ति उन शब्दों का रचयिता हो सकता है जिनमें मुस्कुराहट, हंसी और क़हक़हों की एक दुनिया आबाद है।

सुपरिचित लेखक और यूसुफ़ी के दोस्त शान-उल-हक़ बताते हैं, “कुछ लोग परिचय कराने पर भी आसानी से नहीं मानते थे कि ये यूसुफ़ी साहिब ही होंगे। उन्हें दो बातों की उम्मीद होती है। यूसुफ़ी साहब जो बहुत बड़े बैंकर हैं, पाकिस्तान बैंकिंग काउंसिल के चेयरमैन हैं, उन पर या तो भरपूर अफ़सरी और दौलत बरसनी चाहिए या फिर हास्य-व्यंग्यकार की हैसियत से उनके इर्द-गिर्द फुल-जड़ी छूटनी चाहिए। लोगों को उन पर लजाता हुआ अंदाज़ पसंद नहीं आता था। उन्हें देखकर लगता था कि उन्हें हँसाना तो दूर हँसना भी नहीं आता होगा।”

Mushtaq Ahmad Yusufi with Faiz Ahmad Faiz
बाएं से: मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, इफ़्तिख़ार आरिफ़

यूसुफ़ी को हँसना चाहे न आता हो लेकिन उनके क़लम से निकलने वाले हर जुमले में हँसाने की वो ताक़त होती थी कि उसे पढ़ते ही पाठकों के चेहरे खिल उठते थे। यूसुफ़ी जब किसी महफ़िल में अपनी तहरीरें पढ़ते तो उनकी चौड़ी पेशानी और पतले होंठों पर शर्मीली मुस्कुराहट की सिर्फ़ एक पतली सी लकीर होती, लेकिन उन्हें सुनने वाले पेट में धुएं की तरह फैले क़हक़हों से बेक़ाबू हो जाते।

आँसुओं में लिपटी हँसी

यूसुफ़ी के लिए मज़ाह लिखना सिर्फ़ लोगों को हँसने-हँसाने तक महदूद रखने का काम कभी नहीं रहा। उनके लेखन से गुज़रते वक़्त पाठकों के लिए तीन मरहले होते, पहले वो हँसते फिर उदास होते और फिर गहरी सोच में चले जाते। यूसुफ़ी ने जो लिखा वह कटे-फटे समाज की विचलित कर देने वाली परिस्थितियों से प्रभावित हो कर लिखा। उनके मज़ाह (हास्य) की इस विशेषता को रेखांकित करते हुए विख्यात आलोचक आल-ए-अहमद सुरूर लिखते हैं,

“यूसुफ़ी के मज़ाह, ज़र्राफ़त और तंज़ की तह में अथाह दर्द-मंदी है। उनके तबस्सुम के पीछे आँसूओं की एक लहर रवां है। मुझे अक्सर वो चार्ली चैप्लिन की याद दिलाते हैं। उसकी ख़ूबी ये है कि वो अपने हाव-भाव से ज़िंदगी के दुख-सुख को गवारा बनाता है। मुझे तो यूसुफ़ी के मज़ाह में भी यही सूरत और यही दर्द-मंदी नज़र आती है।”

बैंक की नौकरी

यूसुफ़ी का जन्म 4 अगस्त 1923 को टोंक, राजस्थान में हुआ था। विभाजन के बाद पिता की राजनीतिक सरगर्मियों के चलते उनके परिवार को जयपुर से हिजरत करनी पड़ी। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से दर्शन में एम.ए. कर चुके यूसुफ़ी ने पाकिस्तान जा कर बैंक की नौकरी से अपने कैरियर की शुरूआत की और बहुत जल्द इस पेशे में ताक़ (विशेषज्ञ) समझे जाने लगे।

Mushtaq Ahmad Yusufi with Ahmad Faraz
बाएं से: अहमद फ़राज़, मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी

बैंक की नौकरी में रहते हुए यूसुफ़ी के लिए लिखना काफ़ी मुश्किल था। शुरू में वह मुश्ताक़ अहमद के नाम से लिखते थे ताकि कोई जान न सके कि बैंक की नौकरी करने वाला यह शख़्स लिखने-पढ़ने का भी शौक़ीन है। यूसुफ़ी कहते हैं कि उस समय बैंक में लिखने-पढ़ने वालों को बड़ी हिक़ारत की नज़र से देखा जाता था और लोग आदाद-ओ-शुमार के मुआमले में उन पर भरोसा नहीं करते थे। एक साहब तो ऐसे थे जिन्होंने कभी उस बैंक में पैसे नहीं रखे जिसमें यूसुफ़ी अपनी सेवा दे रहे होते थे। यूसुफ़ी के पूछने पर वह कहते, ”आप ही बताइए अगर कोई शख़्स यह कहे कि फ़ुलां आँखों का डॉक्टर है और बहुत अच्छा शायर भी है तो क्या आप उससे ऑप्रेशन कराएंगे या उससे जो सिर्फ़ आँखों डॉक्टर का है।”

सिर्फ़ अच्छा लिखने का जुनून

शुरुआती दिनों में यूसुफ़ी के लिए एक मुश्किल यह भी थी कि उर्दू का रिवायती समाज उन्हें आउट-साइडर के तौर पर देखता था। न उनकी तालीम उर्दू भाषा और साहित्य की थी और न उर्दू उनकी मातृभाषा थी। वह तो टोंक में मारवाड़ी बोलते हुए बड़े हुए थे। शिक्षा के लिए अंग्रेज़ी को चुना था। लेकिन जैसे-जैसे वह लिखते गए यह मुश्किल भी आसान होती गई और फिर एक समय वह आया कि बीसवी सदी हास्य लेखन में यूसुफ़ी की सदी कहलाई।

यूसुफ़ी कहते थे कि उर्दू और लिखने-पढ़ने से हमारा रिश्ता मनकूहा (बीवी) का नहीं महबूबा का है। रिश्ते की यही नौईयत थी कि उन्होंने कभी अपनी महबूबा के प्रति ज़रा भी लापरवाही नहीं बरती। उन्हें यह बात बिल्कुल गवारा नहीं थी कि उनके नाम से कोई कमज़ोर तहरीर प्रकाशित हो जाएगा।

1955 के आस-पास यूसुफ़ी के दोस्त हनीफ़ रामे ‘सवेरा’ के नाम से एक पत्रिका निकालते थे। उन्होंने अपनी पत्रिका के लिए बहुत इसरार के बाद यूसुफ़ी से एक लेख लिखवाया था। लिखने के चंद दिनों बाद यूसुफ़ी को एहसास हुआ कि दोस्त की फ़रामाइश पर लिखा गया उनका लेख मेयार से काफ़ी गिरा हुआ है। इसके बाद वह रोज़ डिस्ट्रीब्यूटर को फ़ोन करते और पत्रिका के प्रकाशित होने की ख़बर लेते। जैसे ही पत्रिका छप कर आई यूसुफ़ी ने अपने माहाना वेतन के आधे से ज़्यादा पैसे ख़र्च करके सारी कॉपियां ख़रीद लीं और ख़ामोशी से उन्हें जलवा दिया। यूसुफ़ी को पसंद नहीं था कि उनके क़लम से निकली हुई ग़ैर-मेयारी फ़र्माइशी तहरीर उनके पाठकों तक पहुंचे।

Mushtaq Ahmad Yusufi with his wife Idrees Begum
बाएं से: मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी, नामालूम, गोपीचंद नारंग

पत्नी की शागिर्दी और डिक्शनरी से प्यार

यूसुफ़ी अपनी तहरीरों के मेयार और भाषा के इस्तेमाल को लेकर हमेशा संजीदा रहे। कभी कभी ऐसा होता कि वह एक शब्द की तलाश में हफ़्तों एक ही सत्र (पंक्ति) पर रुके रहते और शब्दकोश खंगालते रहते। उनका मानना था कि एक अर्थ के लिए हर ज़बान में एक ही शब्द बना होता है। अगर वह शब्द मिल गया तो आप अपनी बात कह लेंगे।

जिन्हें हम लफ़्ज़ों के मुतबादिल और मुतरादिफ़ (समानार्थक) समझते हैं वह कोई दूसरी ही चीज़ होती है।

भाषा के लिए यूसुफ़ी अपनी पत्नी को अपना गुरु समझते थे। इदरीस बेगम अलीगढ़ की तालीम-ए-याफ़ता थीं और ज़बान शनास थीं। यूसुफ़ी उनसे कहते ‘भाषा के मुआमले में हम तुम्हारी मानते हैं बाक़ी मुआमलों में तुम हमारी मानो।’

उन्हें इस बात से भी बहुत तकलीफ़ होती थी कि लोगों ने डिक्शनरी देखनी बंद कर दी है। जिसके कारण धीरे-धीरे भाषा का फैलाव कम होता जा रहा है। कुछ हज़ार शब्द हैं जिनसे सारे लिखने वाले काम चला रहे हैं। वे कहते थे कि कोई दिन मेरी ज़िंदगी में ऐसा नहीं गुज़रा सिवाए बीमारी के जिस दिन मैंने दस पंद्रह बार डिक्शनरी न देखी हो। उन्होंने अपने कई इंटरव्यूज़ में ये बात दोहराई कि अगर कभी मैंने किसी वीरान जज़ीरे में अपने आपको पाया तो मैं अपने साथ सबसे पहले डिक्शनरी ले जाऊँगा। अगर मुझे चुनाव की सहूलत दी जाए तो सबसे पहले डिक्शनरी होगी, दूसरा कलाम-ए-मीर और शेक्सपियर होगा।

उन्हें डिक्शनरी बहुत प्रेरित करती थी और वह ऐसे लोगों को बद-क़िस्मत समझते थे जो डिक्शनरी नहीं देखते।

उर्दू फ़र्श पर अंग्रेज़ी कुर्सी पर

यूसुफ़ी के लिखने का अंदाज़ भी बहुत निराला था। अपनी वज़अ-दार शख़्सियत के चलते उन्होंने कभी उर्दू कुर्सी पर बैठ कर नहीं लिखी। वह कहते थे मैं उर्दू फ़र्श पर बैठ कर और काग़ज़ घुटने पर रखकर लिखता हूँ, जैसे पुराने समय में मुंशी लिखा करते थे। और अंग्रेज़ी कुर्सी पर बैठ कर। मेरे लिए सारी ज़िंदगी इस सूरत को बदलना मुम्किन ही नहीं हो सका। मैं जब तक टाई न बांध लूं और कुर्सी पर न बैठ जाऊं मुझे अंग्रेज़ी नहीं सूझती।

Mushtaq Ahmad Yusufi, Aab e Ghum
मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी की चर्चित किताब आब-ए-गुम

फ़र्श पर बैठ कर उर्दू लिखने वाले यूसुफ़ी तक़रीबन आधी सदी तक लिखते रहे। उन्होंने 1955 से बाक़ायदा लिखने की शुरूआत की थी और 2018 में हुए अपने निधन तक उनकी पाँच किताबें प्रकाशित हुईं। ये तमाम किताबें और खासतौर पर आब-ए-गुम हमेशा उर्दू मज़ाह के एक मुक़द्दस सहीफ़े के तौर पर पढ़ी जाती रहेगी।