इब्न-ए-इंशा: जिन का काटा सोते में भी मुस्कुराता है
बिच्छू का काटा रोता और साँप का काटा सोता है। इब्न-ए-इंशा का काटा सोते में भी मुस्कुराता भी है। इस से बेहतर तारीफ़ और क्या हो सकती है, ये दाद-ओ-तहसीन के डोंगरे वो शख़्स बरसा रहा है, जिसे उर्दू तंज़-ओ-मज़ाह का सरख़ील समझा जाता है।
इब्न-ए-इंशा न सिर्फ़ ये कि एक साहब-ए-तर्ज़ अदीब हैं बल्कि एक मुनफ़रद शायर भी। उर्दू अदीबों और शाइरों में शाज़-ओ-नादिर ही किसी ने इन दोनों अस्नाफ़ में यकसाँ फ़ुतूहात हासिल की हैं। एक ग़ालिब हैं जो इस्तिस्ना हैं लेकिन वहाँ भी अवामुन्नास सिर्फ़ उनकी शायरी को जानते हैं। उनके चाशनी में डूबे ख़ुतूत और उनकी बेमिसाल नस्र से सिर्फ़ ख़वास ही वाक़िफ़ हैं। इब्न-ए-इंशा की दोनों हैसियतें इतनी मज़बूत हैं कि ये फ़ैसला करना मुश्किल हो जाता है कि इसमें बेहतर कौन है।
15 जून 1927 को जालंधर के एक नवाही गांव में मुंशी ख़ान के घर एक बच्चा पैदा होता है और उसका नाम शेर मुहम्मद ख़ान रखा जाता है। यही बच्चा बड़ा होकर इलमी और अदबी हल्क़ों में इब्न-ए-इंशा के नाम से जाना जाता है। इबतिदाई तालीम गांव के स्कूल में होती है और 1949 में गर्वनमेंट हाई स्कूल लुधियाना से मैट्रिक का इमतिहान पास करते हैं। भारत के विभाजन के बाद इब्न-ए-इंशा पाकिस्तान चले जाते हैं। बी.ए और एम.ए की डिग्री भी हासिल करते हैं। पी.एच.डी में दाख़िला भी लेते हैं लेकिन उसे अपने मिज़ाज के मुवाफ़िक़ न पाकर छोड़ देते हैं।
लाहौर कॉफ़ी हाउस की यादें
इब्न-ए-इंशा ने शायरी तो स्कूल के ज़माने से ही शुरू कर दी थी, लेकिन इस पर अस्ल निखार उस वक़्त आया जब तक़सीम-ए-वतन के बाद लाहौर में सुकूनत इख़तियार की। लाहौर उस ज़माने में इलम-ओ-अदब का गहवारा था और तरक़्क़ी-पसंद अदीबों और शाइरों की बड़ी तादाद वहाँ मौजूद थी, जिसमें हमीद अख़तर, इबराहीम जलीस, सिब्त-ए-हसन, अहमद राही, हाजिरा मसरूर, ख़दीजा मस्तूर और अहमद नदीम क़ासिमी के नाम नुमायाँ हैं। हफ़्ता के हफ़्ता अदबी इजलास होते जहाँ अफ़साने, मज़ामीन, ग़ज़लें और नज़्में पढ़ी जातीं और उन पर ज़ोरदार बहस होती। इन मजालिस ने उस दौर के अदबी रुजहानात के तय्ययुन में बड़ा अहम किरदार अदा किया है। लाहौर कॉफ़ी हाउस की ये बैठकें बहुत ज़िन्दा और गर्म होती थीं जहाँ नए लोगों का इस्तेक़बाल किया जाता था।
इश्क़िया मिज़ाज की शायरी
इब्न-ए-इंशा तमाम-तर तरक़्क़ी-पसंदी के बावजूद अपनी रूमानियत से छुटकारा नहीं पा सके और कभी कभी उनकी शायरी पर रजअत-पसंदी का भी इल्ज़ाम लगता है। लेकिन यही उनकी शायरी की कामयाबी भी है। इन्होंने पहली बार ज़ाती और शख़्सी तजर्बे की एहमियत पर ज़ोर दिया और इसको अपनी शायरी का मौज़ू बनाने की कोशिश की। यही वजह है कि ज़्यादा-तर तरक़्क़ी-पसंद शायरी अपने ज़माने के साथ तो चली लेकिन इसकी नौईयत हंगामी ही रही। वो आफ़ाक़ी शायरी नहीं बन सकी। ‘’बग़दाद की एक रात’’ (जिसे इनकी शाहकार नज़्म कहा जा सकता है) में उनकी रूमान-पसंदी, और हक़ीक़त-बीनी अपने पूरे उरूज पर दिखाई देती है। ख़ुद इब्न-ए-इंशा के अलफ़ाज़ में ‘’मेरी इस नज़्म में तिलिस्म-ए-होश-रुबा भी मिलेगा। शहरज़ाद की रातें भी मिलेंगी और दजला के किनारे मशक़्क़त करते माही-गीरों के गीत भी सुनाई देंगे।‘’
हिंदी शब्दों का इस्तेमाल
इब्न-ए-इंशा की शायरी अपने मिज़ाज और रंग के एतिबार से अमीर ख़ुसरो से ज़्यादा क़रीब है। वही लोक गीतों का रचाव, वही इश्क की धीमी धीमी सुलगती आग, वही बजोग का तज़किरा, वही महबूब की ज़ात में अपने आपको फ़ना कर देने की ललक, यहाँ आपको गुल, चमन, बुलबुल, क़फ़स और सय्याद के बजाय जोग, राग, बन और पर्बत के इस्तिआरे मिलेंगे:
इंशा जी नाम उन्हीं का चाहो तो उनसे मिलवाएँ
उनकी रूह दहकता लावा हम तो उनके पास न जाएँ
ये जो लोग बनों में फिरते जोगी बेरागी कहलाएँ
उनके हाथ अदब से चूमें उनके आगे सीस नवाएँ
कब लौटा है बहता पानी बिछड़ा साजन रूठा दोस्त
हम ने उस को अपना जाना जब तक हाथ में दामाँ था
वो रातें चाँद के साथ गईं वो बातें चाँद के साथ गईं
अब सुख के सपने क्या देखें जब दुख का सूरज सर पर हो
जब शहर के लोग न रस्ता दें क्यूँ बन में न जा बिसराम करे
दीवानों की सी न बात करे तो और करे दीवाना क्या
इब्न-ए-इंशा चांद के दीवाने थे, इसको देखकर खो जाते थे। ख़ुद उनके अलफ़ाज़ में ”मैंने चांद को आबादियों, वीरानों और खेतों में भी देखा है। हर मक़ाम पर इसका रूप, उसकी छब अलग होती है”
ये ग़ज़ल जिसने गाई वो ज़ियादा दिन नहीं जिया
इब्न-ए-इंशा की कई ग़ज़लें ऐसी हैं जिन्हें किसी बड़े फ़नकार ने अपनी ख़ुश नवाई से दवाम बख़श दिया है। जगजीत सिंह की गाई हुई उनकी ग़ज़ल ‘कल चौदहवीं की रात थी शब-भर रहा चर्चा तिरा’ आज भी हर तबक़े में इंतिहाई मक़बूल है।
उस्ताद अमानत अली ख़ान ने ‘इंशा जी उठो अब कूच करो इस शहर मैं दिल को लगाना क्या’ को अपने मख़सूस अंदाज़ में गा कर उसकी शोहरत में मज़ीद इज़ाफ़ा कर दिया। इस ग़ज़ल के तअल्लुक़ से कई बातें बहुत मशहूर हैं। कुछ लोगों का कहना है कि इब्न-ए-इंशा एक सूफ़ी थे और उनको कश्फ़ होता था। ये ग़ज़ल कहने के एक महीने के बाद इंशा-ए-जी दुनिया से गुज़र गए। और थोड़े दिनों बाद अमानत अली ख़ान भी कूच कर गए।
गद्य की विशेषता
इंशा जी बुनियादी तौर पर एक शायर हैं, जिन्हों ने नस्र भी उस्तादाना लिखी है। वो उनके सफ़र-नामे हों या उनके फ़काहिया मज़ामीन, उनका क़लम तंज़-ओ-मिज़ाह के ऐसे जुमले क़िरतास पर बिखेरता चला जाता है जिसकी मीठी मार क़ारी के लबों पर एक मुस्कुराहट भी छोड़ जाती है। ‘आवारा-गर्द की डायरी’ ‘इब्न-ए-बतूता के तआक़ुब में’ ‘दुनिया गोल है’ ‘चलते हो तो चीन को चलिए’ ये उनके सफ़र-नामे हैं। दर-अस्ल यूनेस्को के मुशीर की हैसियत से उनको बहुत सारे एशियाई और योरपी देशों के सफ़र का मौक़ा मिला। इन्होंने वहाँ जो कुछ देखा अपने मख़सूस अंदाज़ में क़लम-बंद कर दिया। इन सफ़र-नामों में हमारी मुलाक़ात एक ऐसे आम आदमी से होती है जो हमेशा इस तग-ओ-दौ में रहता है कि किस तरह सस्ते होटलों में क़याम किया जाये और खाने-पीने में क्या तदाबीर इख़तियार की जाए कि कम से कम ख़र्च हो। यूनेस्को से मिलने वाला अलाउंस इतना कम होता था कि कभी तो वो ऐसे होटलों में क़याम करते हैं, जिनके दरवाज़े अदवाइन से खुलते हैं, और कभी हकीम सईद साहिब को याद करते हैं कि काश वो कब्ज़ कुशा गोलियों के साथ भूक को रोकने वाली गोलियां भी बना देते। इस लिहाज़ से ये सफ़र-नामे उर्दू के उन सफ़र-नामों से बहुत मुख़्तलिफ़ हैं, जहाँ एक बार अपनी मनकूहा से पिंड छुड़ा लें तो रावी चैन ही चैन लिखता है और हर दो-चार सफ़हे के बाद कोई नई हसीना मुसाफ़िर की राह खोटी करने को ब-सद-शौक़ तैयार मिलती है।
गद्य के कुछ नमूने
बग़दाद की रातों के इस मुसाफ़िर ने बग़दाद की गलियों में अपने खो जाने का वाक़िया भी बड़े दिलचस्प पैराए में बयान किया है। गाइड, जिसकी शक्ल देखते ही उन्हें हज़रत सुलेमान का ‘हदहद’ याद आ जाता है। (इंशा-जी ने उसे हदहद ही लिखा है), उसे चकमा देकर वो बग़दाद के गली-कूचों में ग़ायब हो जाते हैं और पूरी शब इन जानी-पहचानी गलियों में आवारा-गर्दी करते हैं कि उन्होंने हमेशा से उसी का ख़्वाब देखा था।
‘उर्दू की आख़िरी किताब’ उनका नस्री शाहकार है। उसे उर्दू में तंज़-ओ-मिज़ाह का आला-तरीन नमूना माना जा सकता है। ये किताब मुहम्मद हुसैन आज़ाद की ‘उर्दू की पहली किताब’ की पैरोडी है। जुमले तंज़िया हैं लेकिन उनमें तल्ख़ी नहीं है। शीरीनी-ए-बयान ऎसी कि क़ारी के लबों पर एक मुस्कुराहट तैर जाती है। ये किताब 1970 के हंगामी हालात में लिखी गई है, लेकिन ये सिर्फ़ पाकिस्तान की कहानी नहीं है बल्कि ये तीसरी दुनिया के हर पसमांदा मुल्क का नौहा है। सर-वरक़ पर ही एक जुमला मुस्कुराने पर मजबूर कर देता है ”ना-मंज़ूर कर्दा टेक्स्ट बुक बोर्ड” आगे बढ़िए तो किताब एक बहुत मानी-ख़ेज़ दुआ’ के साथ शुरू होती है:
‘’या अल्लाह, खाने को रोटी दे, पहनने को कपड़ा दे, रहने को मकान दे”
“मियाँ ये भी कोई मांगने की चीज़ें हैं, कुछ और मांगा कर
“बाबा-जी आप क्या मांगते हैं
“मैं कहता हूँ, अल्लाह मियाँ मुझे ईमान दे, नेक अमल की तौफ़ीक़ दे
“बाबा-जी आप ठीक दुआ मांगते हैं, इन्सान वही चीज़ तो मांगता है जो उसके पास नहीं होती है’’
इन जुमलों में जो लतीफ़ तंज़ छुपा है वो किसी से पोशीदा नहीं है। एक बादशाह के तज़किरे में जो लिखा है, वो आज के हालात पर कैसा फ़िट बैठता है। वो लिखते हैं
”इस बादशाह का ज़माना तरक़्क़ी और फ़ुतूहात के लिए मशहूर है। हर तरफ़ ख़ुशहाली ही ख़ुशहाली नज़र आती थी। कहीं तिल धरने को जगह नहीं थी। जो लोग लख-पती थे देखते देखते करोड़पती हो गए। हुस्न-ए-इंतिज़ाम ऐसा कि अमीर लोग सोना उछालते उछालते मुल्क के इस सिरे से उस सिरे तक बल्कि बाज़-औक़ात बैरून-ए-मुल्क भी चले जाते थे, किसी की मजाल नहीं थी कि पूछे, उतना सोना कहाँ से आया और कहाँ ले जा रहे हो”
रियाज़ी के उसूलों में शगुफ़्ता-बयानी मुलाहिज़ा फ़रमाईए। जमा की तारीफ़ वो इस तरह करते हैं:
‘’जमा के क़ाएदे पर अमल करना आसान नहीं है, ख़ुसूसन महंगाई के दिनों में, सब ख़र्च हो जाता है कुछ जमा नहीं हो पाता है’’ साईंस पर हाथ साफ़ करते हुए कशिश के उसूल इस तरह बताते हैं ‘’कशिश कई तरह की होती है। पैसे की कशिश, कुर्सी की कशिश, जिन्सी कशिश वग़ैरा, दुनिया के सारे कारोबार और क़ौम की बेलौस ख़िदम्तें पहली दो कशिशों के बाइस हैं। तीसरी कशिश आज कल नाविलों और फ़िल्मों में पड़ती है। उसे डालने के बाद इन चीज़ों में और कुछ, कहानी और प्लाट तक डालने की ज़रूरत नहीं रहती है’’
ये तो चंद नमूने हैं। पूरी किताब ऐसे ही शगुफ़्ता तंज़िया जुमलों से भरी पड़ी है।
इंशा जी कि मौत
ए हमीद ने अपनी किताब ”इब्न-ए-इंशा यादें, बातें, मुलाक़ातें” में जो लिखा है वो ज़्यादा हक़ीक़त के क़रीब महसूस होता है। इब्न-ए-इंशा यहाँ एक ख़ुश-फ़िक्र और बे-फ़िक्रे इन्सान की शक्ल में हमारे सामने आते हैं, जिसे न तो पहनने का कोई ख़ास शौक़ है और न ही खाने की कोई पसंद है, मूंग-फलियाँ फांकते और गंडेरियाँ चूसते वो लाहौर के गली-कूचों में आवारागर्दी करते नज़र आते हैं। इब्न-ए-इंशा की आख़िरी किताब ‘’नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर’’ उनके इंतिक़ाल के बाद शाय हुई। वो लंदन ब-ग़रज़-ए-इलाज गए थे, और अपने पैरों पर चल कर घर वापस नहीं आए। इस किताब में भी उनका मख़सूस तर्ज़-ए-तहरीर है, और पढ़ कर लगता नहीं है कि ये उस आदमी ने लिखा है जिसके दरवाज़े पर मौत दस्तक दे रही है, न हिरासाँ, न परेशां, तंज़-ओ-मिज़ाह की फुलझड़ियां छोड़ते हुए इंशा जी………
मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी ने लिखा है कि ”पुर-कार औरत की आँख और दिलेर के वार की तरह मिज़ाह की मीठी मार भी कभी ख़ाली नहीं जाती है” इब्न-ए-इंशा अपने पीछे अदब का वो ख़ज़ाना छोड़ गए हैं कि उनकी मौत हो ही नहीं सकती है। वो हर दौर में ज़िंदा रहेंगे और अपनी शायरी और नस्र से आलाम-ए-रोज़गार को आसान बनाते रहेंगे।
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