Archives : May 2021

उर्दू के बग़ैर पुरानी फ़िल्मों की कल्पना नहीं की जा सकती

बॉलीवुड ने उर्दू का हाथ एक तवील वक़्त से थाम रक्खा है। बिला-शुबा ये बात कही जा सकती है कि उर्दू बॉलीवुड की फ़िल्मों, नग़्मों, डायलॉग्स की ख़ूबसूरती में दिन-ब-दिन इज़ाफ़ा करती आ रही है। शायद ही कोई ऐसी फ़िल्म, नग़्मा, डायलॉग हमारी ज़िंदगी से गुज़रा होगा जिस में आप को उर्दू का रंग कम दिखाई दिया हो, ज़ियादा असरात ज़ेहन-ओ-दिल पर उन्हीं फ़िल्मों, नग़्मों, डायलॉग्स ने किया जिस में उर्दू थी।

Devendra Satyarthi

देवेन्द्र सत्यार्थी: वो आदमी जिसने हिन्दोस्तान के गाँव-गाँव जा कर लोकगीत जमा किए

एक बार साहिर लुधियानवी और देवेन्द्र सत्यार्थी लाहौर से लायलपुर जा रहे थे, लेकिन जब वो स्टेशन में दाख़िल हुए तो उन्हें मालूम हुआ कि गाड़ी पूरी तरह भरी हुई है और किसी भी डिब्बे में तिल रखने की भी जगह बाक़ी नहीं है। कुछ लोग ट्रेन की छत पर भी सवार हैं। साहिर ने… continue reading

Dagh Dehlvi

दिन में ग़ज़ल कहते और रात तक तवायफ़ों / क़व्वालों के ज़रिये मशहूर हो जाती

नवाब मिर्ज़ा ख़ान दाग़ की पैदाइश 25 मई 1831 को दिल्ली के लाल चौक में हुई, उनके वालिद शहीद शमसुद्दीन अहमद पंजाब में एक छोटी सी रियासत फ़िरोज़पुर झिरका के वली थे। इनकी वालिदा वज़ीर ख़ानम उर्फ़ छोटी बेगम थीं। दाग़ जब मात्र चार वर्ष के थे तभी इनके वालिद को एक अंग्रेज़ी सिविल सर्वेंट अधिकारी विलियम फ़्रेज़र के क़त्ल के जुर्म में 8 अक्टूबर 1835 को फाॅंसी दे दी गई ,उसके बाद इनकी वालिदा का रो रो कर बुरा हाल हो गया था और वो अंग्रेज़ों के भय से कई दिनों तक छुपकर रहीं।

जो कृष्ण भक्त थे और मौलवी भी थे, और कामरेड भी

हसरत शायर तो थे ही ,संविधान सभा के सदस्य भी थे, जो यूनाइटेड प्रोविंस से चुने गए थे ,इस्लामी विद्वान,फ़लसफ़ी और कृष्ण-भक्त इनके बारे में कहा जाता है। हसरत जब भी हज की यात्रा करके लौटते थे तो सीधे मथुरा वृंदावन जाया करते थे। वो कहते थे जब तक मैं मथुरा न जाऊॅं मेरा हज किस काम का है उनके बारे में मशहूर है कि उन्होंने तेरह हज किए थे।

Qaafiya

क़ाफ़िये की ये बहसें काफ़ी दिलचस्प हैं

सौती क़ाफ़िया या’नी लफ़्ज़ सुनने में एक जैसी आवाज़ देते हों चाहे उनका इमला (spelling) अलग हो। मसलन ख़त के आख़िर में ‘तोय’(خط) है और मत(مت) के आख़िर में ‘ते’ है तो देखने में बे-शक ये एक दूसरे से मुख़्तलिफ़ मा’लूम होते हैं मगर सुनने में एक ही आवाज़ देते हैं। इसी तरह ‘ख़ास’ और ‘पास’ का हम-क़ाफ़िया होना। यही सौती क़ाफ़िया है।

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