Independence Day

स्वतंत्रता आंदोलन के तनाज़ुर में लिखी गईं बेहतरीन उर्दू कहानियां

कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने अपने पहले उर्दू कहानी संग्रह ‘सोज़-ए-वतन’ की भूमिका में साहित्य और समाज पर अपने विचार प्रस्तुत करते हुए लिखा है, “हर एक क़ौम का इल्म-ओ-अदब अपने ज़माने की सच्ची तस्वीर होता है। जो ख़्यालात क़ौम के दिमाग़ को गतिमान करते हैं और जो जज़्बात कौ़म के दिलों में गूँजते हैं, वो नज़्म-ओ-नस्र के सफ़्हों में ऐसी सफ़ाई से नज़र आते हैं जैसे आईने में सूरत।”

इसमें कोई दो राय नहीं कि साहित्य हर दौर में समाज को राह दिखाता रहा है। जब-जब समाज राह से भटकता है, राजनीति पथभ्रष्ट होती है तब साहित्य के सिपाही अपने क़लम से इन सबका मार्गदर्शन करते हैं। और राजनीति को सही राह दिखाते हैं।

भारत का स्वतंत्रता आंदोलन भी इससे अलग नहीं है। पराधीनता के उस काल में जब हर तरफ़ ग़ुलामी और बदहाली ही दिखाई देती थी, तब हमारे देश में अनेक ऐसे साहित्यकार पैदा हुए, जिन्होंने अपनी दमदार लेखनी से समाज का मनोबल और आत्मबल बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वतंत्रता आंदोलन की उस मुहिम में साहित्याकारों ने तत्कालीन समाज में चेतना के ऐसे बीज बोए जिनके प्रभाव में आकर समाज का हर तब्क़ा उस महा-आंदोलन में शामिल हो गया और सालों की ग़ुलामी के बाद हमारे देश को 15 अगस्त 1947 को आज़ादी की सौग़ात मिली।

उर्दू अदब में ऐसी अनगिनत रचनाएं हैं जिन्होंने आज़ादी की मशाल को रोशन रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। उर्दू रचनाकारों ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान घटित होने वाली प्रमुख घटनाओं को विषय बनाकर जोश से भरी हुई रचनाएं रचीं। उन्होंने अपनी इन रचनाओं से युवाओं में जोश भरने के साथ-साथ उन्हें आज़ादी की इस लड़ाई में अपना योगदान देने के लिए भी उत्साहित किया।

स्वतंत्रता दिवस के पावन अवसर पर हम आपके लिए उर्दू में लिखी गईं चंद ऐसी कहानियां लेकर आए हैं जो अलग-अलग समय में आज़ादी की तहरीक के तनाज़ुर में लिखी गई हैं। इन कहानियों में आज़ादी से पहले के हिन्दुस्तानी समाज की झलकियां भी हैं और आज़ाद देश के ख़्वाबों की तस्वीरें भी। साथ ही उन दुखों और उम्मीदों के क़िस्से भी जो देश की आज़ादी और विभाजन से वाबस्ता रहे।

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समर यात्रा

मुंशी प्रेमचंद की लिखित यह कहानी आज़ादी के दौरान गांधी जी द्वारा चलाए गए सत्यग्रह आंदोलन और उसके कार्यकर्ताओं पर हुए पुलिस के अत्याचार और सत्यग्रह के समर्थन में उतरे आम भारतीयों की कहानी है। गांव में जब यह खबर पहुंची कि वहां सत्यग्राही आ रहे हैं तो देखते ही देखते गांव में मेले का सा माहौल हो गया। मगर पुलिस को जब इसकी भनक लगी तो वह गांव आ पहुंची और सत्यग्राहियों की आवभगत करने के जुर्म में चौधरी साहब को गिरफ़्तार कर ले गई। मगर पुलिस के इस अत्याचार के खिलाफ़ गांव का हर फ़र्द सत्यग्रह के लिए उठ खड़ा हुआ।

1919 की एक बात

सआदत हसन मंटो ने इस कहानी में जलियांवाला बाग़ गोलीकांड के ठीक पहले के हालात को पेश किया है। गाँधी जी की पलवल में गिरफ्तारी, हड़ताल की घोषणा और 9 अप्रैल को डॉक्टर सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की हिरासत, सड़कों पर अवाम की तोड़-फोड़ और इसी सियासी उठा-पटक में एक तवाइफ़ की औलाद थैला कंजर की कहानी में मंटो ने दिखाया है कि मुल्क के लिए एक ऐसा आदमी भी समाज में हीरो बन गया जिसको लोग आमतौर से गालियां दिया करते थे। दरअसल थैला अपनी बहनों की तथाकथित नाजायज़ आमदनी से हिस्सा लिया करता था। लेकिन यही कंजर जो हर तरह की ज़िल्लत को सहने का आदी था मुल्क की ज़िल्लत को बर्दाश्त नहीं कर पाया और बाग़ी हो गया

पेशावर एक्सप्रेस

कृष्ण चंदर की भारत-पाकिस्तान विभाजन पर लिखी गई यह एक बहुत दिलचस्प कहानी है। इसमें घटनाएं है, दंगे हैं, विस्थापन है, लोग हैं और उनकी कहानियां हैं। लेकिन इनमें से कोई भी केंद्र में नहीं है। केंद्र में है तो एक ट्रेन, जो पेशावर से चलती है और अपने सफ़र के साथ बंटवारे के बाद हुई हैवानियत की एक ऐसी तस्वीर पेश करती है कि पढ़ने वाले की रुह कांप जाती है।

ख़द्दर का कफ़न

ख़्वाजा अहमद अब्बास की यह कहानी एक बूढ़ी औरत के गिर्द घूमती है, जिसने जीते-जी तो क्या मरने के बाद भी अपनी ख़ुद्दारी पर हर्फ़ नहीं आने दिया। उसने सारी उम्र ख़ुद कमाकर खाया और अपने बच्चों को बड़ा किया। उसके पास जो कुछ भी था वह उसकी अपनी कमाई से जोड़ा हुआ था। फिर जब खिलाफ़त आंदोलन और आज़ादी की मुहीम शुरू हुई तो उसने अपने सारे गहने दान कर दिए। और घर में रहकर सूत कातने लगी। जब मरी तो उसने अपने बच्चों को वसीयत की कि वह उसे खद्दर के कफ़न में दफ़नाएं, जिसे वह छोड़कर जा रही थी।

पवित्र सिंदूर

अली अब्बास हुसैनी की यह कहानी आज़ादी से पहले देश में किसानों की दुर्दशा की दास्तान बयान करती है। ज़मीन पर खेती करने को लेकर 1942 में रामू का ज़मींदार से झगड़ा हो गया था और इस झगड़े ने एक आंदोलन का रूप धार लिया था। इस आंदोलन में उसने अपने जवान बेटे को खो दिया था। आख़िरकार आज़ादी की सुबह आई और रामू को उसकी ज़मीन का हक़ हासिल हो गया। इन स्तरों पर ख़त्म होती है,

“और बूढ़ा रामू बैलों को छोड़कर कीचड़ में भरपूर क़दम रखता हुआ वहाँ आया जहाँ रजिया खड़ी हुई उसे तक रही थी। रामू ने हाथ की गीली मिट्टी रगड़ कर छुड़ाई और उसका चूरा बीवी की माँग में भर दिया। वो कुछ लजाई, शरमाई, कुछ झुन्झलाई। उसने कहा,
“ये क्या मेरे सर भर में मिट्टी पोत दी।”
रामू ने हंसकर कहा,
“अरे मूर्ख इससे पवित्र और कौन सींदूर होगा? ये अपने खेत अपने देश की मिट्टी है!”

तस्वीर के दो रुख़

अहमद अली की ये कहानी आज़ादी से पहले की दिल्ली की दो तस्वीरें पेश करती हैं। एक तरफ़ पुराने रिवायती नवाब हैं, जो ऐश की जिंदगी जी रहे होते हैं, मोटर में घूमते हैं, मन बहलाने के लिए तवाइफ़ों के पास जाते हैं। साथ ही आज़ादी के लिए जद्दो-जहद करने वालों को कोस रहे हैं। गांधी जी को गालियां दे रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ आज़ादी के लिए मर-मिटने वाले नौजवान हैं। जिनकी लाश को कोई कंधा देने वाला भी नहीं होता।

हिंदुस्तान छोड़ दो

उर्दू अदब की चर्चित कथाकार इस्मत चुग़ताई की यह कहानी एक ऐसे अंग्रेज़ अफ़सर की दास्तान बयान करती है, जिसने आज़ादी के बाद भी भारत नहीं छोड़ा था। उसके सभी साथी अंग्रेज़ अफ़सर इंग्लैंड लौट गए थे, पर उसने भारत में रहना चुना था। वह इंग्लैंड के एक किसान परिवार से ताल्लुक रखता था और एक अमीर-ज़ादी से शादी करके हिंदुस्तान में अफ़सर होकर आया था। यहां उसकी जिंदगी अच्छी-ख़ासी कट रही थी। मगर असल संघर्ष तो तब सामने आया जब अंग्रेज़ अपने मुल्क लौट गए और उसने हिंदुस्तान छोड़ने से इंकार कर दिया।

तमाशा

उर्दू अदब के सबसे ज़्यादा विवादास्पद और मशहूर लेखक सआदत हसन मंटो ने अपनी यह पहली कहानी जलियांवाला बाग की त्रासदी से प्रभावित होकर लिखी थी। यह एक 6 साल के बच्चे ख़ालिद की कहानी है। कहानी में ख़ालिद जलियांवाला बाग कांड के दिन अपने मां-बाप के साथ अमृतसर में होता है और एक लड़के को लहु-लुहान, असहाय सड़क पर पड़ा देखकर अपने माँ-बाप से सवाल पूछने लगता है। 6 साल के बच्चे की प्रतिक्रिया दिल को छूने वाली है।