उर्दू सहाफ़त की दो सदियाँ
साल 2022 उर्दू सहाफ़त के हवाले से इंतिहाई अहम साल है। इस साल उर्दू ज़बान की सहाफ़त अपनी ‘उम्र के दो सौ साल मुकम्मल कर रही है। 27 मार्च 1822 को कलकत्ता से उर्दू का पहला अख़बार “जाम-ए-जहाँ-नुमा” जारी हुआ था। लिहाज़ा मार्च का महीना उर्दू सहाफ़त की दो सौ साला तक़रीबात का महीना है। अह्ल-ए-उर्दू और बिल-ख़ुसूस उर्दू सहाफ़ियों को चाहिए कि वो रवाँ साल में उर्दू सहाफ़त की दो सदी तक़रीबात मनाएँ। अगरचे ‘जाम-ए-जहाँ-नुमा’ को उर्दू का पहला अख़बार तस्लीम किया गया है लेकिन इस सिलसिले में एक तनाज़ा’ भी चलता रहा है।
कुछ लोगों का कहना है कि टीपू सुल्तान का ‘फ़ौजी’ अख़बार उर्दू का पहला अख़बार था। लेकिन उसकी कोई फ़ाइल कहीं दस्तयाब नहीं हुई। उर्दू सहाफ़त के एक मुहक़्क़िक़ जी. डी. चंदन ने अपनी किताब ‘जाम-ए-जहाँ-नुमा’ में मैसूर यूनिवर्सिटी के शो’बा-ए-उर्दू के साबिक़ सद्र और टीपू सुल्तान रिसर्च इंस्टीट्यूट सिरी रंगा पटनम मैसूर के साबिक़ डायरेक्टर प्रोफ़ेसर महमूद हसन की ये राय पेश की है कि ‘टीपू सुल्तान शहीद से लोगों को इतना हुस्न-ए-‘अक़ीदत है कि वो कभी मुबालग़े से काम लेते हैं और कभी हक़ायक़ पर पर्दा डाल देते हैं। न उनके यहाँ मतबा’ था और न कोई फ़ौजी अख़बार निकलता था। हुक्म-नामे अलबत्ता फ़ारसी, कन्नड और मराठी में जारी होते थे। मुम्किन है कि उन्ही को अख़बार समझ लिया गया हो। (मुसन्निफ़ के नाम मौसूफ़ का मकतूब)
इसी तरह कुछ लोगों का दावा है कि उर्दू का पहला अख़बार 1810 में कलकत्ता से मौलवी इकराम अली ने जारी किया था और उसका नाम ‘उर्दू अख़बार’ था। सन् 1888 में लखनऊ से शाए’ होने वाली हिंदुस्तान के उर्दू अख़बारों की पहली ग़ैर-सरकारी डायरेक्टरी ‘अख़्तर-ए-शाहनशाही’ में भी ये बात कही गई है। इस अख़बार के उर्दू का पहला अख़बार होने का ख़्याल एक मुसन्निफ़ सैयद मोहम्मद अतहर (नादिम सीतापुरी) ने पेश किया। लेकिन इस अख़बार की भी कोई फ़ाइल कहीं मौजूद नहीं है। जी. डी. चंदन इस दा’वे को मुस्तरद करते हैं। उनके मुताबिक़ ‘जाम-ए-जहाँ-नुमा’ हिंदुस्तानी या उर्दू का अव्वलीन हफ़्त-रोज़ा अख़बार था जो आठवें शुमारे से फ़ारसी और उर्दू ज़बानों में छपने लगा। उन्होंने इस किताब में दा’वा किया है कि ‘मौलवी इकराम अली के अख़बार के उर्दू के पहला होने का कोई सबूत नहीं है। उन्होंने इस ख़्याल को ख़ूश-फ़हमी क़रार दिया है। ‘उर्दू सहाफ़त उन्नीसवीं सदी में’ के मुसन्निफ़ प्रोफ़ेसर ताहिर मस्ऊ’द भी जाम-ए-जहाँ-नुमा के अव्वलीन उर्दू अख़बार होने के सिलसिले में जी. डी. चंदन के दावे का हवाला देते हैं।
इस तरह अगर देखा जाए तो 1822 तक उर्दू में सहाफ़त की कोई ऐसी रिवायत मौजूद नहीं थी जिसकी तक़लीद की जा सके। ब-क़ौल चंदन ‘जाम-ए-जहाँ-नुमा’ का मुताला उर्दू सहाफ़त की इब्तिदा और बुनियाद का मुताला है। अपनी इब्तिदा से क़ब्ल उर्दू सहाफ़त के पास अपने आबा-ओ-अज्दाद की शानदार इल्मी विरासत और क़रीबी पेशरूओं की फ़ारसी की ख़ासी तरक़्क़ी याफ़्ता क़लमी सहाफ़त मौजूद था लेकिन अपनी सहाफ़त की कोई रिवायत या मिसाल मौजूद नहीं थी। ऐसे हालात में ‘जाम-ए-जहाँ-नुमा’ की पेशेवराना कार-कर्दगी ग़ैर मामूली थी। जाम-ए-जहाँ-नुमा हमारी उर्दू सहाफ़त की एक मामूली इब्तिदा ज़रूर थी लेकिन उसकी जुरअत-मंदी, मक़्सदियत और जिद्दत-पसंदी ने इसे एक अहम मक़ाम ‘अता कर दिया था। ये कोई इन्क़लाबी अख़बार नहीं था लेकिन अपने दौर के सख़्त माहौल में एक ऐसी ज़बान का पहला नुमाइंदा अख़बार ज़रूर था जिसके बोलने वालों में अख़बार-बीनी या मुतालेए’ का कोई नुमायाँ रुज्हान नहीं था। ऐसी ज़बान में एक मुनज़्ज़म और बा-क़ायदा अख़बार निकालना जो अपने गिर्द-ओ-पेश की ज़मीन पर खड़ा हो सके, एक मुश्किल और सब्र-आज़मा तजुर्बा था और जाम-ए-जहाँ-नुमा इस तजुर्बे में कामयाब साबित हुआ।
जाम-ए-जहाँ-नुमा के इज्रा के पन्द्रह साल बाद कलकत्ता से साढ़े चौदह सौ किलोमीटर दूर से साहब-ए-तर्ज़ अदीब मौलाना मोहम्मद हुसैन आज़ाद के वालिद मौलवी मोहम्मद बाक़र ने 1837 में ‘देहली अख़बार’ जारी किया। वो देहली का पहला उर्दू अख़बार था। बाद में उसका नाम ‘देहली उर्दू अख़बार’ हो गया था। अगरचे जाम-ए-जहाँ-नुमा से मौलवी बाक़र के अख़बार को कोई बहुत ज़ियादा रौशनी या रहनुमाई नहीं मिली ताहम वो सहाफ़त की बुलंदियों पर पहुँचने के लिए पहला ज़ीना ज़रूर साबित हुआ। मौलवी बाक़र ने जिस पुर-विक़ार अंदाज़ में और जुरअत-ओ-हिम्मत के साथ इस रिवायत को आगे बढ़ाया वो आब-ए-ज़र से लिखे जाने के क़ाबिल है। उनके अख़बार ने उर्दू सहाफ़त के सफ़र में जो नुक़ूश-ए-पा छोड़े वो आज भी रौशन हैं और बाद की उर्दू सहाफ़ियों की नस्ल के लिए मश्‘अल-ए-राह हैं।
मौलवी मोहम्मद बाक़र की ज़िंदगी और उनकी सहाफ़त के कई इम्तियाज़ात हैं। उनका सबसे बड़ा इम्तियाज़ उनकी ज़िंदगी का वो आख़िरी और वल्वला-अंगेज़ वाक़िआ’ है जिसकी वजह से वो सहाफ़ियों में सर-ए-फ़ेहरिस्त हैं। या’नी वो पहले शहीद सहाफ़ी हैं। तारीख़ बताती है कि उस वक़्त तक किसी भी सहाफ़ी को उसके ख़्यालात-ओ-नज़रियात की वजह से सज़ाए मौत नहीं दी गई थी। उनकी शहादत के बारे में कई रिवायतें मशहूर हैं। कुछ ने लिखा है कि 1857 की बग़ावत के शुरू होने के बाद जब उन्होंने दिल्ली कालेज के प्रिंसिपल और अपने दोस्त मिस्टर टेलर की हिदायत के मुताबिक़ अंग्रेज़ अफ़सर को वो काग़ज़ दिया जिस पर टेलर ने मौलवी बाक़र पर इब्रानी ज़बान में इल्ज़ाम लगाया था कि उन्होंने उसकी हिफ़ाज़त नहीं की तो अंग्रेज़ अफ़सर ने उन्हें फ़ौरन गोली मार दी। बा’ज़ ने लिखा कि उन्हें तोप के दहाने से बाँध कर गोले से उड़ाया गया। बा’ज़ ने लिखा कि उन्हें फाँसी दी गई। लेकिन बहर-हाल इस बात पर सभी मुत्तफ़िक़ हैं कि उन्हें मिस्टर टेलर की हिफ़ाज़त में मुबय्यना नाकामी की वजह से शहीद किया गया। उन्होंने पहले तो टेलर को अपने घर में पनाह दी थी लेकिन जब बाग़ियों को इसका इल्म हो गया तो उन्होंने टेलर को अपने घर से निकाल कर दूसरी तरफ़ रवाना कर दिया था। उसी दौरान देहली से सर सैयद अहमद ख़ाँ के भाई सैयद मोहम्मद ख़ाँ ने सैयद-उल-अख़बार निकाला। उर्दू सहाफ़त के मुहक़्क़िक़ ‘अतीक़ सिद्दीक़ी ने ‘1857 के अख़बार और दस्तावेज़ों’ में लिखा कि ‘नेशनल आर्काइव्ज़ ऑफ़ इंडिया’ में 1857 के हवाले से तीन अख़बारात सिराज-उल-अख़बार, देहली उर्दू अख़बार और सादिक़-उल-अख़बार के जस्ता-जस्ता शुमारे मुंतशिर हालात में मौजूद हैं।
हिंदुस्तान की जंग-ए-आज़ादी में उर्दू सहाफ़त के रोल को एक इम्तियाज़ी हैसियत हासिल है। उर्दू सहाफ़ियों ने इस मैदान में जो कारहा-ए-नुमायाँ अंजाम दिए वो किसी दूसरी ज़बान की सहाफ़त के हिस्से में नहीं आए। उर्दू अख़बारात इस हवाले से सरख़ैल-ए-कारवाँ की हैसियत रखते हैं। आज़ादी की लड़ाई लड़ने वालों की सफ़ों में मुजाहिद उर्दू सहाफ़ियों की एक कहकशाँ है जिसमें मौलाना मोहम्मद अली जौहर, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, मौलाना ज़फ़र अली ख़ाँ, मौलवी जमीलुद्दीन, मुंशी नवल किशोर, डॉक्टर मुकुंद लाल, मौलाना हसरत मोहानी और मुंशी महबूब ‘आलम वग़ैरा क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं। अख़बारों के नाम गिनाने हों तो पूरा एक दफ़्तर चाहिए। आज़ादी की लड़ाई शुरू’ होने के बहुत बाद तक भी दूसरी ज़बानों के अख़बारात दूर-दूर तक नज़र नहीं आते। 1857 की बग़ावत तक अंग्रेज़ी अख़बारों का ये हाल रहा कि वो हुकूमत से मुतवातिर ये मुतालबा करते रहे कि देसी अख़बारों को बंद किया जाए।
सहाफ़त के हवाले से मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के अख़बार ‘अल-हिलाल’ को नज़र अंदाज नहीं किया जा सकता। उन्होंने जब 13 जुलाई 1912 को ‘अल-हिलाल’ निकाला तो वो एक इन्क़लाबी मोजिज़ा साबित हुआ। कुछ ही दिनों में पूरा मुल्क उसकी आवाज़ से गूँज उठा। लेकिन अल-हिलाल अवाम का नहीं बल्कि हिंदुस्तानी मुसलमानों के ख़वास का अख़बार था। उसने मख़्सूस तबक़ात के दिलों में रौशन जज़्बा-ए-हुर्रियत की चिंगारी को शो’ले में तब्दील किया। उसने मु‘आसिर रहनुमाओं को भी मुतास्सिर किया और बुज़ुर्गों से इस तरह हम-कलाम हुआ कि सोते-सोते जाग उठे। सरहदी गाँधी ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान के मुताबिक़ वो अल-हिलाल और ज़मींदार के मुतालेए’ के सबब ख़ारज़ार-ए-सियासत में दाख़िल हुए। मौलाना हिफ़्ज़ुर्रहमान कहते हैं कि सियासत का चसका मुझे अल-हिलाल ने डाला। अल्लामा अनवर शाह कश्मीरी के मुताबिक़ अबुल कलाम ने अल-हिलाल का सूर फूँक कर हम सबको जगाया। सैयद अताउल्लाह शाह बुख़ारी कहते हैं कि अल-हिलाल ने मुझे ख़िताबत सिखाई, सियासत पढ़ाई और ज़बान-ओ-बयान की नुदरत बख़्शी। ब-क़ौल शख़से ‘‘रोज़नामा-ए-अख़बार जमहूर के मुदीर क़ाज़ी ‘अब्दुल ग़फ़्फ़ार का तर्ज़-ए-तहरीर अपना था लेकिन हुस्न-ए-तहरीर अल-हिलाल से मुस्त‘आर था।’’
बहर-हाल जब मुल्क तक़सीम हुआ तो उर्दू सहाफ़त भी तक़सीम हो गई। तक़सीम-ए-हिन्द के नुक़सानात में से एक नुक़सान ये भी है, बहुत से उर्दू सहाफ़ी पाकिस्तान चले गए और कुछ पाकिस्तान से हिंदुस्तान आ गए। पाकिस्तान से आकर हिंदुस्तान में मशहूर होने वाले अख़बारों में ‘प्रताप’ और ‘मिलाप’ क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं। प्रताप का इज्रा महाशय कृष्ण ने किया था और बाद में उनके फ़रज़न्द के नरेन्द्र ने उसे परवान चढ़ाया। जबकि मिलाप का इजरा ख़ुशहाल चंद ख़ुरसंद ने किया था और बाद में उनके फ़रज़न्द श्री रनबीर ने इसे परवान चढ़ाया। ये दोनों अख़बारात आज भी देहली से निकल रहे हैं। ये दोनों भी जंग-ए-आज़ादी के शो’लों को हवा देते रहे हैं। जी. डी. चंदन ने अपनी तस्नीफ़ ‘उर्दू सहाफ़त का सफ़र’ में हिंदुस्तान के पहले वज़ीर-ए-आज़म पंडित जवाहर लाल नेहरू की एक तक़रीर के हवाले से, जो कि उन्होंने 19 अक्तूबर 1961 को नई दिल्ली में उर्दू अख़बारों और किताबों की कुल हिंद नुमाइश के मौक़े’ पर की थी, लिखा है, ‘तक़सीम-ए-हिन्द के वक़्त मुत्तहिदा हिंदुस्तान में उर्दू अख़बारों की ता’दाद 415 थी जो तक़्सीम के बाद घट कर 345 रह गई। या’नी 70 अख़बारात पाकिस्तान चले गए। उधर आज़ादी के बाद मुल्क के मुख़्तलिफ़ शहरों से बड़ी ता’दाद में उर्दू अख़बारों का इज्रा हुआ जिनमें से बा’ज़ इंतिहाई मे’यारी साबित हुए। उनमें से कुछ ने दम तोड़ दिया तो कुछ अब भी शाए’ हो रहे हैं।
आज़ादी के बाद देहली, लखनऊ, मुंबई, पटना, हैदराबाद, कलकत्ता, बंगलौर और जम्मू व कश्मीर वग़ैरा वग़ैरा में उर्दू अख़बारों की खेप की खेप सामने आई। देहली के तीन अख़बारों सिराज-उल-अख़बार, देहली उर्दू अख़बार और सैयद-उल-अख़बार का ज़िक्र पहले आ चुका है। इसके ‘इलावा पंडित धर नारायण के हफ़्त-रोज़ा ‘क़िरान-उस-सा’दैन’ (1845) और मास्टर राम चंदर के हफ़्त-रोज़ा ‘फ़वाइद-उन-नाज़िरीन’ (1845) की भी अपनी अहमियत है। देहली की सरज़मीन से पहला उर्दू रोज़नामा 1902 में शाए’ हुआ जिसका नाम ‘देहली गज़ट’ था और उसके एडिटर मुंशी निसार अली शोहरत थे। उसके बाद 1913 में मौलाना मोहम्मद अली जौहर का हफ़्ते-वार ‘हमदर्द’ मंज़र-ए-‘आम पर आया जो कि जंग-ए-बलक़ान की ख़बरें शाए’ करने के लिए निकाला गया था। 1947 से कुछ पहले और उसके बाद देहली से बेशुमार अख़बारात का इज्रा हुआ जिनमें देहली गज़ट, हमदर्द, रियासत, वतन, तेज, मिलाप, प्रताप, अल-जम‘ईयत, दावत, वहदत, अल-ईमान, मुसलमान स्वराज्य और अंसारी क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं। बाद के अदवार में ‘अवाम, बुनियाद, नई दुनिया, अख़बार-ए-नौ, बादबान, अपना हफ़्त-रोज़ा, हमारा क़दम और फिर राष्ट्रीय सहारा, इन्क़लाब, सहाफ़त, अख़बार-ए-मशरिक़, हिंदुस्तान एक्सप्रेस, ख़बरदार जदीद और हमारा समाज वग़ैरा क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं।
मुख़्तलिफ़ ज़बानों की सहाफ़त के सिलसिले में कलकत्ता को इम्तियाज़ी हैसियत हासिल है। उर्दू, हिन्दी, पंजाबी और अंग्रेजी के पहले अख़बार कलकत्ता से ही शाए’ हुए। गोया वो सहाफ़त की जन्म-भूमि या मादर-ए-वतन है। हालांकि जाम-ए-जहाँ-नुमा के बंद होने के बाद एक लम्बा वक़्फ़ा गुज़रा जब कलकत्ता में कोई उर्दू अख़बार नहीं था। फिर 1857 का मा’र्का हुआ और मुल्क के दूसरे हिस्सों की तरह कलकत्ता से भी उर्दू अख़बारों का इज्रा शुरू’ हो गया। बुज़ुर्ग सहाफ़ी अहमद मलीहाबादी लिखते हैं, ‘बंगाल की समाजी ज़िंदगी में मुसलमानों का बड़ा असर और दबदबा था मुर्शिदाबाद और ढ़ाका में नवाबी थी। मुम्ताज़ ख़ानदानों में फ़ारसी के साथ-साथ उर्दू पढ़ने-लिखने का भी रिवाज था और उसमें हिन्दू-मुस्लिम की कोई क़ैद नहीं थी। बहुत से बंगाली हिन्दू-उर्दू में इस हद तक दस्तरस रखते थे कि बा-ज़ाब्ता शायरी करते और कितने ही बंगाली हिन्दू साहब-ए-दीवान गुज़रे। ये उस दौर की बात है जब न तो नवाब वाजिद अली शाह को अंग्रेज़ मा’ज़ूल और जिला-वतन करके लखनऊ से कलकत्ता लाए थे, न ही 1857 की बग़ावत नाकाम होने पर आख़िरी ताजदार बहादुर शाह ज़फ़र को रंगून जिला-वतन करने के लिए कलकत्ता से गुज़ारा गया था। मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ाँ ग़ालिब भी गवर्नर जनरल से अपनी बंद पेंशन खुलवाने की तग-ओ-दौ में अभी कलकत्ता वारिद नहीं हुए थे। ये सब कुछ 1857 की बग़ावत के बाद कलकत्ता में हुआ। मुशायरे पढ़े जाने लगे। उर्दू की हवा चलने लगी। (माहनामा नया दौर लखनऊ, उर्दू सहाफ़त नंबर, जून जुलाई 2011)
लेकिन आज़ादी के बाद कलकत्ता की उर्दू सहाफ़त पर बड़ा सख़्त वक़्त आया। तक़सीम के नतीजे में बंगाल दो टुकड़े हुआ। उस पुर-आशोब दौर में बड़े-बड़ों के पाँव उखड़ गए थे। कितने ही उर्दू सहाफ़ी बंगाल से तर्क-ए-वतन करके मशरिक़ी पाकिस्तान या मग़रिबी पाकिस्तान चले गए। कलकत्ता का एक पुराना अख़बार रोज़नामा-ए-अस्र-ए-जदीद जो 1923 से शाए’ हो रहा था और आख़िरी दौर में मुस्लिम लीग का तर्जुमान बना था, उसके मालिकान-ए-अख़बार फ़रोख़्त करके कराची सिधारे। मग़रिबी बंगाल की उर्दू सहाफ़त के लिए ये इब्तिला-ओ-आज़माइश का दौर था। फिर रफ़्ता-रफ़्ता हालात बेहतर हुए और आज़ादी के बाद से ले के पिछली सदी के अवाख़िर तक मग़रिबी बंगाल से तक़रीबन तीस रोज़नामे निकले जिनमें से कुछ आज भी जारी हैं और कुछ बंद हो चुके हैं।
शुमाली हिंद की रियासत उतर प्रदेश उर्दू का गहवारा रही है। वहाँ आज़ादी से पहले भी उर्दू के अख़बारात निकलते रहे हैं और आज़ादी के बाद भी। आज़ादी के बाद मुख़्तलिफ़ शहरों से बेशुमार अख़बारात निकलते रहे हैं आज़ादी के बाद भी। आज़ादी के बाद मुख़्तलिफ़ शहरों से बेशुमार अख़बारात का इज्रा ‘अमल में आया। उतर प्रदेश में कई शहर ऐसे रहे हैं जो उर्दू सहाफ़त के गढ़ माने जाते थे। उन शहरों से बहुत से मशहूर मुअक़्क़र अख़बारात शाए’ हुए। आज़ादी के बाद कई शहरों से रोज़नामा अख़बारात और हफ़्त-रोज़ा और माहनामा रसाइल-ओ-जराइद का इज्रा हुआ। सबसे ज़्यादा अख़बारात-ओ-रसाइल दारुल-हकूमत लखनऊ से जारी हुए। आज़ादी से ‘ऐन क़ब्ल पूरे उत्तर प्रदेश में मुस्लिम लीग के तर्जुमान रोज़नामा ‘तनवीर’ का तूती बोलता था। ये अख़बार पूरी ताक़त से मोहम्मद अली जिनाह के क़याम-ए-पाकिस्तान के मुतालबे की हिमायत करता। उसके रद्द में इंडियन नेशनल काँग्रेस के सद्र पंडित जवाहर लाल नेहरू ने दिसंबर 1945 में काँग्रेस पार्टी के नक़ीब के तौर पर उर्दू रोज़नामा ‘क़ौमी आवाज़’ का इज्रा किया। हयातुल्लाह अंसारी को उसका पहला या’नी बानी एडिटर मुक़र्रर किया गया। वो 1937 ही में उस वक़्त सहाफ़त में आ गए थे जब उन्होंने लखनऊ से हफ़्त-रोज़ा ‘हिंदुस्तान’ शुरू’ किया था। उनके बाद इशरत अली सिद्दीक़ी और उसमान ग़नी एडिटर हुए। उर्दू सहाफ़त के उसूल मुरत्तब करने में इस अख़बार का बड़ा किरदार रहा है। उसने रोज़-ए-अव्वल से तक़सीम-ए-वतन और क़याम-ए-पाकिस्तान के मुतालबे की पूरी शिद्दत से मुख़ालिफ़त की। उसने दो क़ौमी नज़रिए की हर तरह से नफ़ी की। वो अपने इज्रा के चंद महीनों के अंदर ही बेहद मक़बूल हो गया। उसको जहाँ एक तरफ़ मुसलमान पढ़ते थे तो दूसरी तरफ़ हिन्दुओं, सिंधियों और पंजाबियों में भी ये अख़बार पढ़ा जाता था। उतर प्रदेश के दीगर अख़बारों में क़ाइद, अज़ाइम, जदीद शाहराह, अवध बाज़ार, पैग़ाम-ए-सिद्क़, सिद्क़-ए-जदीद, निदाए मिल्ली, सियासत जदीद, अनवार-ए-क़ौम, मशरिक़ी आवाज़ और आग का ज़िक्र किया जा सकता है।
बिहार को ये फ़ख़्र हासिल है कि वहाँ सहाफ़त का आग़ाज़ उर्दू सहाफ़त से होता है। इस रियासत का पहला अख़बार ‘नूर-उल-अनवार’ था जो 1853 में जारी हुआ। उसके मालिक सैयद मोहम्मद हाशिम बिलगिरामी और मुदीर ख़ुर्शीद अहमद थे। उसके बाद 1855 में पटना से ‘हरकारा’ और 1856 में ‘वीकली रिपोर्ट’ का इज्रा ‘अमल में आया। आज़ादी के बाद बिहार में उर्दू रोज़नामों, हफ़्त-रोज़ा और पन्द्रह रोज़ा अख़बारों की कसीर ता’दाद मिलती है। जिनमें सदाए ‘आम, साथी, ‘अज़ीमाबाद एक्सप्रेस, क़ौमी तंज़ीम, हमारा ना’रा, सारा बिहार, फ़ारूक़ी तंज़ीम और इन्क़लाब-ए-जदीद, इन्क़लाब, राष्ट्रीय सहारा क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं। इन अख़बारों में रोज़नामा साथी को नज़र-अंदाज नहीं किया जा सकता। इसका इज्रा सुहैल अज़ीमाबादी जैसे नामवर सहाफ़ी और अफ़साना-निगार ने किया था। लेकिन सदाए ‘आम और साथी चूँकि हफ़्ते को शाए’ नहीं होते थे इसलिए इस ख़ला को पुर करने के लिए संगम, रौशनी और सदाक़त मंज़र-ए-‘आम पर आए। अव्वल-उज़-ज़िक्र को ग़ुलाम सरवर ने 1953 में जारी किया था। उन्हें सालार-ए-उर्दू कहा जाता है। हफ़्त-रोज़ा संगम 1962 में रोज़नामा हो गया। आज़ादी के बाद बिहार में उभरने वाले सहाफ़ियों में ग़ुलाम सरवर का मक़ाम सबसे बुलंद है। वो एक सियासत-दाँ भी थे लेकिन उन्होंने क़लम को सियासत का ग़ुलाम नहीं बनाया। रोज़नामा क़ौमी तंज़ीम पहले पन्द्रह रोज़ा के तौर पर शुरू’ हुआ था जो बाद में रोज़नामा हो गया। उसके बानी एडिटर सैयद मोहम्मद उमर फ़रीद थे। वो अब तक निकल रहा है। 1981 में पटना से रोज़नामा क़ौमी आवाज़ का इज्रा हुआ। उसकी इशाअत 1992 तक जारी रही।
हिन्दुस्तान और इंक़लाब मुंबई के दो क़दीम अख़बारात माने जाते हैं। हिन्दुस्तान का इज्रा शाम-नामे के तौर पर हुआ था। उसे ग़ुलाम अहमद ख़ाँ आरज़ू ने 1936 में जारी किया था। उनकी मेहनत और सहाफ़ती तजुर्बे ने हिन्दुस्तान को ‘अवाम में मक़्बूल बनाया। बाद में हिन्दुस्तान को रोज़नामा कर दिया गया। उर्दू टाईम्ज़ मुंबई के तीन पुराने अख़बारों में से एक है। इसका इज्रा रोज़नामा हिन्दुस्तान के बाद दूसरा क़दीम-तरीन अख़बार है। इसे अब्दुल हमीद अंसारी ने 1938 में जारी किया था। उस वक़्त मुंबई के उफ़ुक़ पर कई अख़बार चमक रहे थे। लेकिन कुछ ही ‘अर्से में उनकी चमक इंक़लाब के सामने फीकी पड़ गई। इब्तिदा में इंक़लाब दो-वर्क़ी था। 1939 के बाद उसकी पॉलीसी में तब्दीली आई। अब्दु हमीद अंसारी उसमें सूरी-ओ-मा’नवी तब्दीली करते रहते थे। 23 जुलाई 1947 को पहली मर्तबा कैमरे से खींची हुई एक तस्वीर इसमें शाए हुई थी। अब्दुल हमीद अंसारी 1948 में सियासत में आ गए और म्युनसिपल कॉर्पोरेशन के मिम्बर मुंतख़ब हुए। उनकी सहाफ़ती ख़िदमात को नज़र-अंदाज नहीं किया जा सकता। आज कल इस अख़बार को हिन्दी मीडिया इदारे जागरण ग्रूप ने ख़रीद लिया है और इसके मुतअद्दिद एडीशन शाए’ हो रहे हैं। आज कल रोज़नामा ‘मुंबई उर्दू न्यूज़’ अपनी तुंद-ओ-तेज़ तजुर्बों तहरीरों और तेज़-तर्रार सहाफ़त की वजह से क़ारईन में ख़ासा मक़बूल है।
मुंबई की हफ़्त-रोज़ा सहाफ़त में उर्दू बुलेट्ज़ का एक मक़ाम है जिसे आर. के. करंजिया ने जारी किया था। करंजिया अंग्रेज़ी के सहाफ़ी थे। उन्होंने आज़ादी से क़ब्ल अंग्रेज़ी हफ़्त-रोज़ा बुलेट्ज़ जारी किया था। उन्होंने 1964 में उर्दू बुलेट्ज़ का इज्रा किया जो 1996 तक अपनी ताबानी बिखेरता रहा। उर्दू बुलेट्ज़ के पहले एडीटर तरक़्क़ी-पसंद अफ़साना-निगार अनवर अज़ीम थे। ख़्वाजा अहमद अब्बास एक ‘अर्से तक उससे वाबस्ता रहे। एक वक़्त था जब चंडीगढ़ से शाए’ होने वाला ‘हिंद समाचार’ ता’दाद-ए-इशा‘अत के ए’तिबार से उर्दू का सबसे बड़ा अख़बार था। मगर अब इसकी इशाअत काफ़ी घट गई है। रियासत-ए-पंजाब की सर-ज़मीन-ए-उर्दू अख़बारों के हवाले से बड़ी ज़र-ख़ेज़ रही है, लेकिन तक़सीम-ए-वतन के बाद उससे ये ए’ज़ाज़ छिन गया।
हैदराबाद पूरे जुनूबी-हिंद में उर्दू ज़बान-ओ-सहाफ़त के मरकज़ की हैसियत से अपनी एक मुम्ताज़ शनाख़्त रखता है। वहाँ से पहला उर्दू का रिसाला 1855 में मंज़र-ए-आम पर आया। उसके बाद 1860 में ‘आफ़ताब-ए-दकन’ जारी हुआ तो अख़बारात की इशा‘अत का सिलसिला चल निकला। 1877 में ‘ख़ुर्शीद-ए-दकन’ शुरू हुआ। वहाँ का पहला रोज़नामा ‘हज़ार दास्तान’ के नाम से 1883 में जारी हुआ। हैदराबाद के आज के अख़बारों में सियासत, मुंसिफ़, रहनुमा-ए-दकन और ए’तिमाद क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं।
आज़ादी के बाद बंगलौर से मुत‘अद्दिद अख़बारात निकले जिनमें रोज़नामा ‘सालार’ और हफ़्त-रोज़ा ‘नशेमन’ ने अपनी मख़्सूस शनाख़्त क़ायम की। सालार एक सुल्झा हुआ और संजीदा अख़बार है। हफ़्त-रोज़ा नशेमन निस्फ़ सदी से ज़ाएद ‘अर्से तक ख़िदमात अंजाम देता रहा। उसे उसमान असद ने 1962 में इंतिहाई सब्र-आज़मा हालात में जारी किया था। देखते ही देखते इस अख़बार ने अपनी मेहनत लगन और जुस्तजू से मुल्क भर में एक नुमायाँ मक़ाम हासिल कर लिया। चिन्नई से शाए’ होने वाला रोज़नामा ‘मुसलमान’ तक़रीबन एक सदी से निकल रहा है और उसकी ख़ास बात ये है कि वहाँ अब भी किताबत से अख़बार तैयार होता है। हिन्दुस्तान के दूसरे शहरों से भी मुत‘अद्दिद अख़बारात निकल रहे हैं जिनकी तफ़सील में जाने की गुंजाइश नहीं है।
भोपाल भी उर्दू सहाफ़त का एक मरकज़ है। वहाँ से आज भी मुत‘अद्दिद अख़बारात निकल रहे हैं। जिनमें क़ाबिल-ए-ज़िक्र अख़बार नदीम है। भोपाल में उर्दू सहाफ़त का आग़ाज़ 1878 में हुआ था। नदीम अख़बार 1935 में निकला और 1938 में रोज़नामा हो गया। उसके बाद से लेकर तक़सीम-ए-मुल्क तक कई अख़बार निकले। मगर वो इधर निकले उधर डूबने वाली मिसाल क़ायम करके चले गए। 1949 में रोज़नामा ‘परचम-ए-नौ’ निकला लेकिन वो ऐसा परचम साबित हुआ जो ज़ियादा दिन नहीं लहरा सका। आज़ादी के बाद 1949 में ‘नई राह’ की इशा‘अत से उर्दू सहाफ़त का आग़ाज़ हुआ। उसी साल विफ़ाक़-ए-हिंद में रियासत-ए-भोपाल के इंज़िमाम से क़ब्ल हकीम सैयद क़मरुल हसन की इदारत में रोज़नामा ‘नदीम’ जारी हुआ। रोज़नामों में अल-होमरा, हक़ीक़त, नया भोपाल, ख़ुर्शीद, अफ़्कार, पयाम, और रोज़नामा-ए-आफ़ताब क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं। इसके बाद भास्कर ग्रूप के ज़ेर-ए-एहतिमाम 12 सितंबर 1978 को रोज़नामा-ए-आफ़ताब जदीद भोपाल नंबर काफ़ी मक़बूल हुआ था, जिन अख़बारों में भोपाल की सहाफ़त में अपने नुक़ूश छोड़े हैं उनमें नदीम, आफ़ताब-ए-जदीद, अफ़्कार, अल-होमरा, भोपाल टाईम्ज़ और उर्दू ऐक्शन क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं।
बर्तानवी राज में पंजाब से जारी होने वाला पहला रोज़नामा अख़बार ‘पंजाब’ था। ये अख़बार यकुम जनवरी 1874 को निसार अली की इदारत में लाहौर से जारी हुआ। इसके मालिकान के नाम ग़ुलाम अली और निसार अली थे। ये चार सफ़हात पर मुश्तमिल था। इसमें आम नौ‘ईयत की सियासी व दीगर ख़बरें शाए’ होती थीं। ज़ियादा-तर ख़बरें दूसरे अख़बारों से ली जाती थीं। 1889 में ये अख़बार बंद हो गया। 1903 में मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी ने अमृतसर से एक हफ़्त-रोज़ा अख़बार ‘अहले-हदीस’ जारी किया था जो मुसलसल 44 बर्सों तक निकलता रहा। तक़सीम-ए-हिन्द के वक़्त मौलाना के पाकिस्तान चले जाने की वजह से ये अख़बार बंद हो गया। आज़ादी के बाद पंजाब में सबसे पहले लाला जगत नारायन ने वीरेन्द्र जी के रोज़नामा ‘जय हिंद’ से सहाफ़त का आग़ाज़ किया लेकिन अचानक मिल्कियत का तनाज़ा’ उठ खड़ा हुआ और उनहोंने इससे अलैहदगी इख़्तियार करके जालंधर से रोज़नामा ‘हिंद समाचार’ जारी किया जिसे हिन्दुस्तान में कसीर-उल-इशा‘अत उर्दू रोज़नामे का शरफ़ हासिल हुआ। उसी ज़माने में वीरेन्द्र जी की इदारत में जालंधर से रोज़नामा ‘प्रताप’ ऊरेश जी की इदारत में ‘मिलाप’ जारी हुआ। इसके बाद रोज़नामा ‘देर भारत’ (एडीटर लाला दीना नाथ) जारी हुआ। इसी तरह जयपुर, गोरखपुर, श्रीनगर और दीगर शहरों से भी मा-क़ब्ल-ओ-मा-बा’द आज़ादी मुत‘अद्दिद अख़बारात जारी हुए जिनमें से कई अब भी निकल रहे हैं।
उर्दू ज़बान में अदबी मजल्लात भी बड़ी ता’दाद में शाए’ होते रहे हैं। आज़ादी के बाद अदबी मजल्लात की भरमार हो गई जिनमें से कुछ चंद दिनों की बहार दिखा कर मुरझा गए और कुछ अब भी पूरी तवानाई के साथ निकल रहे हैं। तक़सीम से क़ब्ल उर्दू कई अदबी रसाइल की धूम थी। उन मशहूर रसाइल में एक अहम रिसाला ‘साक़ी’ था। जो दिल्ली से निकलता था और जिसके मालिक-ओ-मुदीर डिप्टी नज़ीर अहमद के पोते शाहिद अहमद देहलवी थे, लेकिन पाकिस्तान के वुजूद में आने के बाद ये रिसाला अपने मालिक-ओ-मुदीर के साथ तर्क-ए-वतन करके कराची मुंतक़िल हो गया था। आज़ादी के वक़्त के क़दीम रिसालों में सरकारी रिसाला आज-कल है जो दस जून 1942 को शुरू’ हुआ था। आज़ादी के बाद उसने बड़ी मक़्बूलियत हासिल की। इसके एडीटर शायर-ए-इंक़लाब जोश मलीहाबादी थे। अदबी मजल्लात की ज़बरदस्त तारीख़ और उनकी अदबी ख़िदमात हैं जिनकी तफ़सील में जाने की गुंजाइश नहीं है।
सहाफ़त और अदब का रिश्ता चोली और दामन का है। बड़ी ता’दाद में ऐसे सहाफ़ी गुज़रे हैं जो अदीब-ओ-शा‘इर भी थे और बड़ी ता’दाद में ऐसे शोअरा-ओ-ओदबा गुज़रे हैं जो सहाफ़ी भी थे। अगर ये कहा जाए कि उर्दू के मुम्ताज़ अदीबों और शा‘इरों ने उर्दू सहाफ़त की ‘अमली रहनुमाई की और अख़बारों की ख़ुश्क ज़मीन पर अदबी चाश्नी की नहरें जारी करके मुख़्तलिफ़ अस्नाफ़ के गुल-बूटे खिलाए तो ये भी कहना पड़ेगा कि उर्दू सहाफ़त अपनी अवाइल-ए-‘उमरी सा ही अदब और अदीबों को ‘अवाम से रु-शनास कराने का फ़रीज़ा अंजाम देती रही है। बल्कि अगर थोड़ा सा और आगे बढ़ कर ये कहा जाए तो शायद मुबालिग़ा न होगा कि उर्दू अदब का कारवाँ सहाफ़त के रास्ते से आगे बढ़ा और ‘अवाम में मक़बूल हुआ। उर्दू सहाफ़त और सहाफ़ियों ने उर्दू ज़बान-ओ-अदब के ब-तदरीज इर्तिक़ा में जो किरदार अदा किया वो ना-क़ाबिल-ए-फ़रामोश है। पहले भी अदबी मजल्लात बड़ी ता’दाद में निकलते रहे हैं और अब भी निकल रहे हैं।
बहर-हाल सहाफ़त के मैदान में जिन मुदीरों ने कामियाबी और मक़्बूलियत के आसमानों पर जस्त लगाई और जिनको पढ़ने के लिए क़ारईन बेताब रहा करते थे उनमें क़ाबिल-ए-ज़िक्र नाम यूँ हैं: सर सैयद अहमद ख़ान, मौलाना हसरत मोहानी, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, मौलाना ज़फ़र अली ख़ाँ, मौलाना मोहम्मद अली जौहर, मुंशी महबूब ‘आलम, ‘अल्लामा नियाज़ फ़तेहपुरी, मुंशी दया नारायन निगम, दीवान सिंह मफ़्तून, मौलाना ‘अब्दुल माजिद दरियाबादी, ख़्वाजा हसन निज़ामी, मौलाना मोहम्मद ‘उसमान फ़ारक़लीत, मौलाना हामिदुल अंसारी ग़ाज़ी, मौलाना ग़ुलाम रसूल मेहर, मौलाना ‘अब्दुल मजीद सालिक, मोहम्मद मुस्लिम, शाहिद अहमद देहलवी, मौलाना इमदाद साबरी, सैयद सुलैमान नदवी, महाशा कृष्ण, ख़ुशहाल चंद ख़ुर्सन्द, रणबीर, के. नरेन्द्र, क़ाज़ी ‘अब्दुल ग़फ़्फ़ार, हयातुल्लाह अंसारी, ‘इशरत ‘अली सिद्दीक़ी, जमील मेंहदी, ख़्वाजा अहमद अब्बास, ज़ो अंसारी और ‘अब्दुल हमीद अंसारी वग़ैरा।
उर्दू सहाफ़त जहाँ जंग-ए-आज़ादी में पेश-पेश रही, वहीं इसने मज़हबी सहाफ़त की तरफ़ भी रुख़ किया और उर्दू अख़बारों ने ईसाई मशीनरियों के ख़िलाफ़ बिगुल बजा दिया। ‘अक़ीदे की जंग दूसरे मज़ाहिब से भी होती रही है और अंदुरुन-ए-मज़ाहिब भी होती रही है। हिन्दुस्तान में मज़हबी सहाफ़त की बुनियाद ईसाई ने रखी। राजा राम मोहन राय पहले हिन्दुस्तानी थे जिन्होंने ईसाई मशीनरियों के प्रोपेगंडे का जवाब देने के लिए 1821 में एक रिसाला ब्रह्मोंकल मैगज़ीन निकाला था। उधर शुमाली-ए-हिंद में उर्दू सहाफ़त का आग़ाज़ होते ही दो पादरियों ने ख़ैर-ख़्वाह हिंद के नाम से मिर्ज़ापुर और बनारस से दो माहनामे जारी किए। उनके जवाब में मुसलमानों ने मुत‘अद्दिद अख़बारात निकाले। जब्कि दिल्ली के मुसलमानों में मसलकी इख़्तिलाफ़ात पैदा हुए और उन्होंने एक दूसरे के ख़िलाफ़ अख़बारात और रसाइल-ओ-जराइद का इज्रा किया।
उर्दू सहाफ़त सरापा एहतिजाज की सहाफ़त रही है। ज़ुल्म के ख़िलाफ़ एहतिजाज, ना-इंसाफ़ी के ख़िलाफ़ एहतिजाज, बद-‘उनवानी के ख़िलाफ़ एहतिजाज, इम्तियाज़ी रवैये के ख़िलाफ़ एहतिजाज, समाजी बुराइयों के ख़िलाफ़ एहतिजाज और हर उस ऐ’ब के ख़िलाफ़ एहतिजाज बुलंद करना इसका शेवा और वतीरा रहा है जिससे समाज पर ग़लत और मन्फ़ी असरात मुरत्तब होते हों। आज भी उर्दू अख़बारात दहशत-गर्दी और फ़िर्क़ा-वारियत के ख़िलाफ़ तेग़-ए-बरहना बने हुए हैं। कुछ लोग ये शिक्वा करते हैं कि उर्दू अख़बारों में एहतिजाज और रद्द-ए-‘अमल के सिवा कुछ नहीं होता। ऐसे लोगों को उर्दू सहाफ़त के मिज़ाज को समझना होगा। उसका मिज़ाज इक़्तिदार की हाशिया-बरदारी करना कभी नहीं रहा, बल्कि इसका मिज़ाज हर क़िस्म की ना-इंसाफ़ी के ख़िलाफ़ तेग़-ए-बे-नियाम बन जाना रहा है। अल-ग़रज़ एहतिजाज उर्दू सहाफ़त का तुर्रा-ए-इम्तियाज़ है। उर्दू अख़बारात ने कभी भी ज़ुल्म-ओ-जब्र की हिमायत नहीं की। वो पहले भी ज़ुल्म और ना-इंसाफ़ी के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करते रहे हैं और अब भी कर रहे हैं। इसके साथ इस यक़ीन का इज़हार करना भी ज़रूरी है कि हालात ख़्वाह कितने ही ना-मुसा‘इद क्यों न हो जाएं उर्दू सहाफ़त ज़िंदा रही है और आगे भी ज़िंदा रहेगी।
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