आइये देखते हैं मुख़्तलिफ़ सभ्यताओं में बिल्ली का क्या किरदार था – 2
मोहिनी, भगवान विष्णु का इकलौता अवतार हैं जो एक औरत हैं। ये देवी अपनी लुभावनी अदाओं और ख़ूबसूरती से किसी को भी अपना दीवाना बना लेती हैं। इनका ज़िक्र महाभारत में मिलता है। फिर मोहिनी लफ़्ज़ का तो मअ’नी भी “मोह लेने वाली” होता है।
बिल्लियों से जुड़े पिछले ब्लॉग में हमने बात की थी एक और देवी की जिनका नाम था बेस्टेट, वो मिस्र में बिल्ली की शक्ल की एक देवी थीं जो मोहिनी की तरह ही मन मोह लेती थीं।
अब क्या वजह है कि मोहिनी और बेस्टेट को साथ लाया गया?
आइये, वज्ह जानने के लिए माइथोलोजी से निकल कर चलते हैं अट्ठारहवीं शताब्दी की दिल्ली में, वो दिल्ली जहाँ हमारे ख़ुदा ए सुख़न मीर रहते हैं और मीर के पास रहती हैं उनकी मोहिनी!
ये मोहिनी भी मन मोह लेती हैं, इनकी अदाएँ मीर को ख़ूब मोहित करती हैं, बस फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि ये मोहिनी एक प्यारी सी बिल्ली हैं।
मोहिनी मीर तक़ी मीर की कई बिल्लियों में से एक बिल्ली थी जो उन्हें बेहद अज़ीज़ थी।
मीर का ये रंग शायद लोगों को ज़रा अटपटा लगे, क्योंकि मीर को एक बड़े ही दर्द भरे शायर के तौर पर मशहूर किया गया है, इसकी वुजूहात भी हैं कि मीर की ज़िंदगी और उस वक़्त का माहौल मुश्किलों से भरा था लेकिन एक शाइर ज़िन्दगी को कैसे देखेगा ये उस पर है, वो चाहे तो अमावस की रात में भी तारों के झुरमुट से दिल को रौशन कर ले या चाँद के न होने से दिल में अंधेरा कर ले।
इसीलिए हमारी कोशिश सिर्फ़ ये नहीं है कि आप को मीर की बिल्ली से मिलवाया जाए बल्कि ये बताना भी है कि रोते रोते सो जाने वाले मीर तक़ी मीर की ज़िंदगी में कितने रंग थे और उनका नज़रिया कितना वसीअ था।
मीर ने बाक़ायदा एक नज़्म कही है मोहिनी बिल्ली पर, नज़्म शुरू होती है उस पल से जब मोहिनी मीर के घर आतीं हैं, मीर के घर आते ही मोहिनी मीर से मुतास्सिर हो जातीं हैं, पीले रंग की मोहिनी ज़ियादा कहीं आती जाती नहीं, बिना दिए कुछ खाती नहीं, शाम के वक़्त घर लौट आती है, ये सब अपनी नज़्म “मोहिनी” में बयां करते करते मीर ने शाम के वक़्त को किस तरह बताया है देखिए,
यानी वक़्त ए गुर्ग-ओ-मेश आये है पास
फिर मेरा पहरों किया है उनने पास
गुर्ग का मतलब भेड़िया और मेष का मतलब भेड़ होता है (मेष राशि से पहचानना आसान होगा), लेकिन गुर्ग-ओ- मेश मिल कर मतलब होता है जब रौशनी और अंधेरे का वक़्त मिले यानी शाम का वक़्त।
अब फिर से चलते हैं मोहिनी के पास-
मोहिनी की मांगें ज़ियादा नहीं है, जो मिलता है बस मीर की शक्ल देख कर खा लेती है, कभी कुछ ज़ियादा भी मिलता है तो मोहिनी उस ओर नज़र नहीं करती, जितने की भूख उतना खाना।
मोहिनी शरीफ़ इतनी है कि जब बाहर की कोई बिल्ली मोहिनी से लड़ने आयी तो मोहिनी अपने चेहरे पर पंजा रख कर लड़ी यानी मुँह छुपा कर लड़ी, मुँह छुपाना आम मुहावरा है यानी शर्मिंदा होना।
एक बिल्ली कुछ गयी थी आ के चख
ये लड़ी तो मुँह पे पंजा अपने रख
फिर एक दिन मोहिनी ने बच्चे दिए मगर अफ़सोस कि एक भी ज़िन्दा न बचा।
झाड़ फूँक करवाया गया।
मस्जिद में रहने वाली बिल्ली से भी दुआ करवाई गयी।
यानी तमाम कोशिशें की गयीं।
हिफ़्ज़ उस की कोख का लाज़िम हुआ
झाड़े फूँके का हर एक आज़िम हुआ
यहाँ तक कि अबू हुरैरा से भी बहुत मन्नतें माँगीं, अबू हुरैरा पैग़म्बर मुहम्मद के साथी थे जिन्हें बिल्लियाँ बेहद पसंद थीं, अबू हुरैरा के नाम में “हुरैरा” का मतलब है बिल्ली का बच्चा और अबू-हुरैरा यानी बिल्ली के बच्चे का बाप का बाप।
बू-हुरैरा के तईं माना बहुत
बिल्लियों को भी दिया खाना बहुत
आख़िरकार दुआएं रंग लायीं और बिल्ली ने पाँच बच्चे दिए जो सलामत रहे।
इन बच्चों को पालने के लिए गाय और बकरी का दूध लाया गया।
कोई कुत्ता अगर आस पास नज़र आ जाता था तो लोग उसके पीछे भागते थे कि कहीं बिल्ली के बच्चों को नुक़्सान न पहुँचा दे।
कोई कुत्ता आ गया ईधर अगर
लोग दोड़े शेर से मुँह फाड़ कर
बिल्ली के बच्चों की ख़ूबसूरती का बयान देखिये ज़रा, देखिये मीर ने किस अंदाज़ से उनका ज़िक्र किया है
लच्छे रेशम के थे चंदें रंग ख़ाल
कुछ सफ़ेद ओ कुछ सियह कुछ लाल लाल
आ निकलती थीं जिधर यह पाँच चार
वो तरफ़ हो जाती थी बाग़-ओ-बहार
एक आलम आशिक़-ओ-बेताब था
उन की ख़ातिर बेख़ुद-ओ-बेताब था
इन बच्चों को एक एक कर सब अपने घर ले गए, बस मुन्नी और मानी रह गयीं, फिर मुन्नी को भी कोई ले गया बस मानी बची रह गई।
मानी ऐसी है कि मीर घर पर न हों तो उनका रास्ता देखेगी, इस की मोहब्बत का आलम है मानो कोई अजूबा हो।
मैं न हूँ तो राह देखे कुछ न खाए
जान पावे सुन मेरी आवाज़ पाए
अगर इस के कोई स्कार्फ़ बाँध दिया जाए तो हूर लगेगी।
गिर्द-रू बाँधे तो चहरा हूर का
चाँदनी में हो तो बक्का नूर का
गर्म-ए-शोख़ी हो अगर यह मिस्ल-ए-बर्क़
बिजली में इस में न कुछ कर सकिये फ़र्क़
या परी इस पर्दे में है जलवा-गर
उठती ऊधर से नहीं हर्गिज़ नज़र
मानी एक दिन कहीं चली गई, क्या हुआ कुछ नहीं मालूम, कभी लौट कर नहीं आई।
मुन्नी का ज़िक्र करते हुए मीर कहते हैं कि इस बिल्ली की नेकी के सबब इसके लिए काबे में कबूतर मारना भी जाइज़ है। अस्ल में किसी इंसान के लिए काबे और हरम में कोई भी जानवर या परिंदा मारना नाजायज़ है, (ज़ाहिर है बिल्लियों के लिये ऐसा कोई हुक्म नहीं है न हो सकता है) मगर मुबालग़े के तौर पर मीर कह रहे हैं कि वैसे तो काबे में कबूतर मारना नाजायज़ है मगर मुन्नी के लिये वो भी जायज़ है।
इस को गर काबे में हो यह शोख़-ओ-चुस्त
है कबूतर मारना वाँ का दुरुस्त
मुन्नी के भी दो बच्चे हुए। मोहिनी और सोहिनी।
यानी एक मोहिनी नानी हैं और एक उनकी नातिन।
मोहिनी और सोहिनी है उन का नाम
फिरतीं हैं फुंदना सी दोनों सुबह शाम
पहली और दूसरी दोनों मोहिनी मीर की ज़िंदगी को शाद कर के अलविदा कह गयीं।
मीर को इन बिल्लियों का रंग ढंग चाल हरकतें सब जिस तरह याद थीं और जिस तरह उन्होंने इसे बयाँ किया है, मीर से उन की बिल्लियों का तअल्लुक़ साफ़ ज़ाहिर होता है।
मुमकिन है कोई मोहिनी, कोई सोहिनी शायद हमारे घर में भी हो, हमारी गली मोहल्ले में हो, शायद इस इंतज़ार में हो कि कोई उसे भी प्यार से रखेगा, खाना देगा, उस की हिफ़ाज़त करेगा।
तो मीर की मोहिनी को पढ़ते हुए, अपने आस पास की तमाम मोहिनियों का भी बेहद ख़याल रखें, हो सकता है उन की मुहब्बत से हम में भी एक शायर पैदा हो जाये।
इस ब्लॉग का पहला भाग पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।
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