Urdu ka safar

जब उर्दू ने मेरा माथा चूमा और मेरी आँख खुल गई

जब से मैंने उर्दू की उँगली पकड़ी है मैं एक दिन को भी सुस्ता नहीं सका हूँ। तेज़-गाम उर्दू की उँगली पकड़ के सफ़र करते रहना ख़ुशी के एहसास में इज़ाफ़ा करता है, लेकिन मेरी थकान का क्या? उर्दू मेरी थकान को अच्छी तरह समझती है। मैं उसे देखता हूँ और वो मेरे थके-माँदे बदन को अज़-जबीं ता- ब- पा देखती है। देख कर बड़ी चालाकी से मेरी हालत-ए-हाल को दर-गुज़र करके वापस चलने लगती है। मैंने जब उर्दू से कहा कि क्या हम एक पल को कहीं सुस्ता सकते हैं? कहने लगी ‘तुम वापस लौट सकते हो, मैं न रुक सकती हूँ न लौट सकती हूँ। मुझे अभी बहुत दूर जाना है।’

मैं एक पल को ख़ामोश रहा। रुक गया। सोचने लगा कि लौट जाता हूँ। एक वक़्फ़ा गुज़रा और मैं दौड़ते हुए उर्दू के क़रीब पहुँचा। वो मुझे देख कर मुस्कुराई और माँ की तरह उसने मुझे अपनी उँगली वापस थमा दी। मैं हाँफते हुए उसके साथ फिर से चल दिया।

मैंने कभी एक शे’र कहा था:

मेरी उँगली पकड़ के चलने से
सारे मंज़र गँवा दिए तूने

गाहे- बगाहे मेरे चाहने वाले मुझे ये शे’र सुना देते हैं, कभी सुनाने का इसरार करते हैं, लेकिन उर्दू ने मेरे आगे मेरा ये मा’मूली- सा शे’र कभी नहीं दोहराया। उर्दू जानती है, कि उसके साथ सफ़र करते हुए कोई मंज़र गँवा देना ना-मुमकिन है बल्कि आइन्दा इतने और ऐसे मनाज़िर खुलते जाएँगे कि मुझ जैसा नई-नई आँखों वाला हैरान होने के सिवा कुछ नहीं कर सकेगा।

मैंने उर्दू से कहा ‘क्या तुम्हें मा’लूम है कि मेरी तुम्हारी पहली मुलाक़ात कहाँ हुई थी?’

कहने लगी ‘हाँ जब तुम पैदा हुए थे उसी रोज़ ! लेकिन तुम्हें याद नहीं होगा।’ मैंने उससे पूछा ‘तुम उस वक़्त कहाँ थीं?’ कहने लगी ‘तुम्हारे कानों के नज़्दीक हवा में घुली हुई मँडरा रही थी। तुम्हें याद नहीं होगा किसी ने कहा था- आप ‘‘निस्फिकर’’ रहिए माँ और बच्चा दोनों तंदुरुस्त हैं।’

मैं हिसाब लगाता हुआ:

‘बच्चा… ! तंदुरुस्त … ! हाँ ये तो तुम ही हो। लेकिन ‘‘निस्फिकर’’ क्या है?

कहने लगी ‘ये मेरे सफ़र का एक हिस्सा है। मेरी एक दोस्त है। एक दोस्त क्या… मेरी एक ही दोस्त है। हिन्दी नाम है उसका। पहले मेरा भी नाम हिन्दी था फिर बदलते-बदलते मेरा नाम उर्दू हो गया। मैं नहीं जानती कि मेरा नाम ‘‘उर्दू’’ कैसे पड़ा? क्यों कि उर्दू, उर्दू नहीं है। उर्दू ‘‘तुर्की’’ है या’नी उर्दू तुर्की ज़बान का लफ़्ज़ है, जिसका मतलब छावनी या फ़ौजी पड़ाव होता है। तुमने यहाँ शहरों- शहरों ‘‘उर्दू बाज़ार’’ तो सुनें होंगे?’

मैंने कहा ‘हाँ ! और मैं बचपन में ये समझता था कि उर्दू बाज़ार में उर्दू बेची जाती होगी’

उर्दू मुस्कुराने लगी कहने लगी ‘अब क्या समझते हो?’

मैंने कहा ‘अब मैं समझता नहीं, जानता हूँ, कि उर्दू बाज़ार उस बाज़ार को कहते हैं जो छावनी के अन्दर या नज़्दीक होता है और मैं ये भी जानता हूँ, कि उर्दू बाज़ार को ‘‘सदर बाज़ार’’ भी कहते हैं।’ कहने लगी ‘शाबाश तुम तो बड़े अच्छे बच्चे हो।’

शाबाश से मुझे याद आया कि मेरी आपकी मुलाक़ात पहली मर्तबा तब हुई थी, जब मेरी माँ ने मुझे पहली बार शाबाश कहा था। मैंने उर्दू से कहा ‘और अब मैं ये भी जानता हूँ, कि ‘‘शाबाश’’ फ़ारसी के लफ़्ज़ ‘‘शादबाश’’ की छोटी शक्ल है।’

उर्दू ने कहा ‘तुम बातूनी बहुत हो। निस्फिकर से शादबाश पर आ गए।’ मैंने कहा ‘हाँ शाएद ! लेकिन पहले ये बताओ कि जब लोगों ने तुम्हारा नाम ‘‘उर्दू’’ रखा तब तुम्हें बुरा नहीं लगा?’ कहने लगी ‘किस बात का बुरा? मैं तो इसका भी बुरा नहीं मानती जब लोग कहते हैं कि तुम्हारे पास है ही क्या सिवाए, अरबी- फ़ारसी के? मैं जानती हूँ, कि आगे बढ़ने का ही फ़ल्सफ़ा है ‘‘सबको साथ ले कर चलो’’ और फिर अरबी- फ़ारसी तो वो बच्चे हैं जिन्हें मेरी माँ ‘‘संस्कृत’’ ने दूध पिलाया है। हिन्दी संस्कृत की सगी बेटी है और मैं हिन्दी की दूसरी शक्ल हूँ। तो अरबी- फ़ारसी का एहसान तो मुझ पर यूँ भी नहीं है। इसी लिए मुझे तब भी बुरा नहीं लगा जब मेरा नाम उर्दू कर दिया गया और तब भी नहीं जब मेरे ‘‘बे- फ़िक्र’’ और हिन्दी के ‘‘निश्चिन्त’’ से तुम्हारे शह’र के लोगों ने उसे ‘‘निस्फिकर’’ कर दिया।’ मैंने कहा ‘निस्फिकर तो बोलने- सुनने में बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा।‘कहने लगी ‘कोई बात नहीं जब हम किसी के घर जाते हैं, तो उनके तौर के मुताबिक़ रहते हैं और फिर ये तो इलाक़ाई ज़बान का लफ़्ज़ कहलाएगा, मेरा नहीं। और मैं जानती हूँ, कि वो लोग निस्फिकर बोलते तो हैं, लेकिन कभी भी कहीं भी लिखते नहीं और कभी लिखेंगे भी नहीं।’

मैंने उर्दू से कहा ‘तुम जानती हो मैं आजकल अपने माँ- बाप और बाक़ी घर वालों को बहुत छेड़ता हूँ।’ पूछने लगी ‘भला वो कैसे?’ मैंने कहा ‘मैंने अपनी माँ से एक दिन पूछा कि ‘‘चबूतरा’’ को हिन्दी में क्या कहते हैं? तो उन्होंने कहा ‘‘चौतरा’’ मैंने कहा- नहीं ये दोनों फ़ारसी / उर्दू के लफ़्ज़ हैं। कहने लगीं- तो ‘‘प्लेटफ़ॉर्म’’ कहते होंगे। मैंने कहा- प्लेटफ़ॉर्म तो अंग्रेज़ी का लफ़्ज़ है। कहने लगीं तो ‘‘मचान’’ कहते होंगे। मैंने कहा- हाँ कह सकते हैं। माँ ने कहा- लेकिन कितने लोग कहते हैं।’ उर्दू ने कहा ‘मचान तो कितना सुन्दर लफ़्ज़ है। मैं तो इसे भी अपना बना कर रखना चाहूँगी।’

उर्दू के साथ सफ़र पर निकला हुआ मैं बे- हद ख़ुश हूँ। उर्दू कितनी बातें करती है। मेरे सवालों से कभी नहीं झुँझलाती बल्कि मेरे हर सवाल का जवाब बड़े इत्मीनान से देती है। उर्दू से बातें करते- करते मैंने महसूस किया कि मैं बातूनी तो हो चुका हूँ। लेकिन मैं अपने तजस्सुस से मुँह तो नहीं फेर सकता। मेरा यक़ीन है ‘अगर सवाल है तो उसका जवाब भी होता है।’ और फिर जब मेरी उँगली उर्दू के हाथों ने थाम रखी हो तब सवाल करने से क़ब्ल क्या सोचना? और क्यों सोचना? लिहाज़ा मैं बग़ैर किसी हिचकिचाहट के उर्दू से फिर एक सवाल पूछ लेता हूँ ‘एक बात बताओ अंग्रेज़ हमारे हिन्दुतान से पैसा, रुपया, सोना, चाँदी, कोह-ए-नूर क्या- क्या नहीं ले गए। हमारे मुल्क को दो मुल्कों में तक़्सीम कर गए। हमारी ज़बान से न जाने कितने अल्फ़ाज़ ले गए। उन्हें तो कोई कुछ नहीं कहता कि ‘‘यार’’ फ़ारसी / उर्दू का लफ़्ज़ है या तुमने हमारी संस्कृत के लफ़्ज़ ‘‘शर्करा’’ से अपना लफ़्ज़ ‘‘sugar’’ बनाया है।’ कहने लगी ‘इसी लिए तो कल भी हम आगे थे और आज भी। उन्हें जो लफ़्ज़ अच्छा लगता है, उसे अपनी लुग़त में शामिल कर लेते हैं। वैसे मैं भी कम नहीं हूँ, मैंने भी उनके लफ़्ज़ ‘‘Member’’ से अपने लिए ‘‘मेम्बरान’’ बना लिया है। उर्दू के शाइरों और मुसन्निफ़ों का शुक्रिया कि वो ‘‘स्कूल’’ लफ़्ज़ के इस्ते’माल से भी गुरेज़ नहीं करते। ‘‘फ़ोन’’, ‘‘कॉल’’, ‘‘लॉन’’ बल्की ‘‘एरिट्रोक्रेसी’’, ‘‘रिहर्सल’’ जैसे लफ़्ज़ भी लगातार इस्ते’माल करते जा रहे हैं। ये बात और है कि बावजूद इसके मुझे नहीं पता ये मेरी लुग़त में इन्हें कभी शामिल करेंगे कि नहीं।’

उर्दू ने आगे कहा:

‘ख़ैर ! मैं तो सफ़र पर कब की निकली हुई हूँ। मुझे अभी बहुत दूर जाना है। और मुझमें एक ख़ासियत है, कि मैं जो लफ़्ज़ सुनने में अच्छा लगे उसे अपनाने में देर नहीं लगाती। और मैं आम आदमी की ज़बान हूँ।’

आम फ़हम !

मैंने कहा ‘सो तो है मैंने जब बहुत सारे आम लोगों से पूछा कि ‘‘बन्दूक़’’ किस ज़बान का लफ़्ज़ है? तो सबने कहा हिन्दी का। मैंने जब पूछा कि ‘‘चन्दा’’ किस ज़बान का लफ़्ज़ है ? तब भी सबने कहा हिन्दी का। मैंने जब पूछा कि गाँधी जी का ‘‘चर्ख़ा’’ किस ज़बान का लफ़्ज़ है? तब भी सबका जवाब था हिन्दी का। किसी ने नहीं कहा कि बन्दूक़ अरबी / उर्दू का लफ़्ज़ है और इसे हिन्दी में ‘‘शतघ्नी’’ कहते हैं। चन्दा फ़ारसी / उर्दू का लफ़्ज़ है और हिन्दी में इसे ‘‘अभिदान’’ या ‘‘अंशदान’’ कहते हैं। किसी का जवाब नहीं था कि चर्ख़ा फ़ारसी / उर्दू का लफ़्ज़ है।

उर्दू मुस्कुराई, उसने पूछा ‘तुम जानते हो चर्ख़ा, ‘‘चर्ख़’’ से बना है। चर्ख़ का मतलब होता है ‘‘आसमान’’ चूँकि आसमान दिन-रात घूमता रहता है इसी लिए चर्ख़ का दूसरा मतलब ‘‘चक्कर’’ या ‘‘घूमना’’ भी होता है और चर्ख़ा घूमता है तभी उससे सूत काता जा पाता है। तुमने मीर का वो शे’र तो सुना होगा?’ मैंने कहा ‘कौन सा?’

उर्दू ने कहा:

‘मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों

तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं

इस शे’र में मीर यही तो कह रहे हैं फ़लक (आसमान) जब बरसों चक्कर काटता है तब कहीं जा कर ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं।’

मैंने कहा ‘ग़ालिब का भी तो एक शे’र है:

रात दिन गर्दिश में हैं सात आसमाँ
हो रहेगा कुछ न कुछ घबराएँ क्या

यहाँ भी आसमान के चक्कर लगाने की बात हो रही है।’

उर्दू ने कहा ‘शाबाश !’

उसने पूछा ‘तुम थके तो नहीं?’

मैंने कहा ‘नहीं ! मैं तुम्हारे साथ आख़िरी साँस तक चलूँगा।’

उर्दू ने मेरा माथा चूमा और मेरी आँख खुल गई।