लफ़्ज़ों पर निगरानी रक्खो
हमारी आम ज़बान में ख़ासतौर से दो लफ़्ज़ ‘ग़लती’ और ‘हरकत’ बहुत मक़बूल और राइज (प्रचलन में) हैं पर शाएरी के हवाले से देखें तो इनका इस्तेमाल हम ग़लत तरीक़े से कर सकते हैं क्यों कि हम इन दोनों ही अल्फ़ाज़ के अस्ल तलफ़्फ़ुज़ से वाक़िफ़ नहीं हैं। आसान तरीक़े से समझें तो इन दोनों हो लफ़्ज़ों के टुकड़े (तलफ़्फ़ुज़ के लिहाज़ से) इस तरह होंगे।
ग़लती- ग़ ल ती
हरकत- ह र कत
या’नी- ग़ैन (ग़), लाम (ल) दोनों पर ज़बर है लिहाज़ा यह अलग-अलग बोले जाएँगे- ‘ग़- ल- ती’, इसी तरह से हरकत- हे (ह), रे (र) पर भी ज़बर की अलामत है लिहाज़ा यह भी ‘ह- र- कत’ या’नी इन दोनों अल्फ़ाज़ का वज़्न होगा- 112
पता नहीं असातिज़ा ने यह अल्फ़ाज़ अपनी शाएरी में किस हद तक इस्ते’माल किए हैं. लेकिन मेरी अपनी तफ़्तीश के दौरान मुझे ‘मनचन्दा बानी’ की एक ग़ज़ल और ग़ालिब का एक शे’र जहाँ हरकत लफ़्ज़ 112 के वज़्न पर बाँधा गया है और नुसरत ग्वालियारी की एक ग़ज़ल जहाँ ग़लती लफ़्ज़ 112 के वज़्न पर बाँधा गया है।
आज इक लहर भी पानी में न थी
कोई तस्वीर रवानी में न थी
वलवला मिस्रा-ए-अव्वल में न था
‘हरकत’ मिस्रा- ए- सानी में न थी
कोई आहंग न अल्फ़ाज़ में था
कैफ़ियत कोई मआनी में न थी
ख़ूँ का नम सादा- नवाई में न था
ख़ूँ की बू शोख़- बयानी में न थी
लो कि जामिद सी ग़ज़ल भी लिख दी
आज कुछ ज़िंदगी ‘बानी’ में न थी
-मनचन्दा बानी
जैसा कि हम देख पा रहे हैं कि ये ग़ज़ल बह’र-ए-रमल मुसद्दस मख़्बून मुसक्कन (फ़ाइलातुन, फ़इलातुन, फ़ेलुन- 2122, 1122, 22) में कही गई है।
अब दूसरी ग़ज़ल पर आते हैं,
नक़्श-ए-पा उस के रास्ता उस का
मुड़ के देखा तो कुछ न था उस का
मुब्तला कर गया अज़ाबों में
एक कमज़ोर फ़ैसला उस का
इख़्तियारात कम न थे मेरे
मैंने चाहा नहीं बुरा उस का
‘ग़लती’ हो गई समझने में
चाहता था मैं फ़ाएदा उस का
–नुसरत ग्वालियारी
ये ग़ज़ल बह’र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मजनून महज़ूफ़ (फ़ाइलातुन, मुफ़ाइलुन, फ़ेलुन- 2122, 1212, 22) में कही गई है।
यहाँ ग़ौर करने की बात ये है कि मिसाल के तौर पर पेश की गई दोनों की ग़ज़लों की बहरें सिलसिले-वार ‘बह’र-ए-रमल मुसद्दस मख़्बून मुसक्कन’ और बह’र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मजनून महज़ूफ़ हैं, और इन दोनों ही बहरों के पहले रुक्न फ़ाइलातुन (2122) को (1122) से और आख़िरी रुक्न- फ़ेलुन (22) को (112, 221 या1121) से बदल सकते हैं, जो कि इन दोनों ही ग़ज़लों में किया गया है लिहाज़ा साफ़ होता है कि ग़लती लफ़्ज़ का वज़्न 112 होता है।
हरकत लफ़्ज़ पर ग़ालिब का शे’र भी देखते हैं,
है काएनात को हरकत तेरे ज़ौक़ से
परतव से आफ़्ताब के ज़र्रे में जान है
यहाँ ज़ाहिर है कि ये ग़ज़ल बह’र-ए-मुज़ारे मुसम्मन अख़रब मक़्फ़ूफ़ महज़ूफ़ (मफ़ऊल, फ़ाइलात, मुफ़ाईलु, फ़ाइलुन- 221, 2121, 1221, 212) कही गई है।
है काए (मफ़ऊल- 221) नात को ह (फ़ाइलात- 2121) रकत तेरे (मुफ़ाईलु- 1221) ज़ौक़ से (फ़ाइलुन- 212) लिहाज़ा यहाँ भी साफ़ हुआ कि लफ़्ज़- ए- ‘हरकत’ 112 के वज़्न पर बाँधा जाता है।
एक और लफ़्ज़ है ‘निगरानी’ जो फ़ारसी के ‘निगराँ’ लफ़्ज़ से बना है जिसके मआनी देख-भाल या नज़र रखने के हैं. मज़े की बात ये है कि इस लफ़्ज़ का वज़्न 1122 होता है,
आमद-ए-ख़त से न कर ख़ंदा-ए-शीरीं कि मबाद
चश्म-ए-मोर आईना-ए-दिल निगरानी माँगे
–मिर्ज़ा ग़ालिब
हुस्न इतना था कि मुमकिन ही न थी ख़ुद-निगरी
एक इम्कान की कब तक निगरानी करते
–इरफ़ान सत्तार
ये दोनों ही अशआर बह’र-ए-रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़ (फ़ाइलातुन, फ़इलातुन, फ़इलातुन, फ़ेलुन- 2122, 1122, 1122, 22) में कहे गए हैं. जहाँ दोनों ही अशआर में लफ़्ज़- ए- निगरानी बह’र के तीसरे रुक्न फ़इलातुन के वज़्न 1122 पर बाँधा गया है।
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