जब मंटो ने मिर्ज़ा ग़ालिब पर फ़िल्म बनाई और संवाद बेदी ने लिखा
होगा कोई ऐसा भी कि ग़ालिब को न जाने
शाइर तो वो अच्छा है प बदनाम बहुत है
आलीशान लाल क़िले का ख़ूबसूरत मंज़र, बादशाह की आमद का ऐलान करते दरबान, दालान में निशिस्ता मुमताज़ शुअरा का इज्तिमा’ और लुत्फ़-अन्दोज़ होते सामईन का हुजूम। क्या कहना !! ये नज़ारे तो तक़रीबन 150 बरस पहले दम तोड़ चुके हैं। 1954 की “मिर्ज़ा ग़ालिब” उन गिने-चुने दरीचों में से है, जो अवाम को माज़ी में झाँकने का मौक़ा बख़्शती है।
सोहराब मोदी की हिदायत-कारी में बनी, दूसरे क़ौमी फ़िल्म ऐज़ाज़त में “सदारती तलाई तमग़ा बराए बेहतरीन फ़ीचर फ़िल्म” हासिल करने वाली “मिर्ज़ा ग़ालिब” नाज़रीन को उस दौर में लेकर जाती है, जहाँ एक तरफ़ 400 साल तक रौशन रहने के बाद मुग़लिया सल्तनत का मुनव्वर चराग़ अपने आख़री लम्हों में है, वहीं दूसरी तरफ़ एक दरख़्शाँ सितारा उर्दू अदब के उफ़ुक़ पर चमकने को बेताब है: वो सितारा जो “मिर्ज़ा ग़ालिब” के नाम से ला-फ़ानी हो गया।
ज़ाहिर है कि ग़ालिब जैसी अज़ीम-तरीन शख़्सियत को उन्हीं के दर्जे का कोई अदीब दुरुस्त ढंग से पेश कर सकता है। फिर ये काम मंटो से बेहतर कौन अंजाम दे सकता था? फ़िल्म के ख़ूबसूरत मुकालमे राजिंदर सिंह बेदी की क़लम से निकले हैं, जो ख़ुद एक मुमताज़ अदीब रहे हैं।
साहिर को हुकूमत से उर्दू और ग़ालिब को नज़रअंदाज़ करने की शिकायत थी। यक़ीनन ये शिकायत उन्हें हिंदुस्तानी सिनेमा से नहीं रही होगी। जहाँ “मिर्ज़ा ग़ालिब” कई वजूहात से नाक़ाबिल-ए-फ़रामोश है, उनमें से एक वजह ये है कि इसने (और इस क़बील की दीगर फ़िल्मों ने) हिंदुस्तान में उर्दू की बुझती हुई शमा को फ़रोज़ाँ रखा। जब ख़्याल आता है कि जो ये फ़िल्म न बनी होती तो बालमुकुंद हुज़ूर, मुहम्मद अली तिश्ना, नवाब मुस्तफ़ा ख़ान शेफ़्ता (जिन्होंने अल्ताफ़ हुसैन हाली को मिर्ज़ा ग़ालिब से मुतआरिफ़ कराया था), मुफ़्ती सदरुद्दीन आज़ुर्दा और हकीम आग़ा ख़ान देहलवी जैसे शुअरा मंज़र-ए-आम से हमेशा के लिए गुमशुदा हो गए होते, तो इस फ़िल्म की क़द्र-ओ-मन्ज़िलत मज़ीद बढ़ जाती है।
भारत भूषण ने ग़ालिब के किरदार की संजीदगी को बख़ूबी पेश किया है, लेकिन चौधवीं बेगम के किरदार में सुरैया तो दिल ही जीत लेती हैं—अदाकारी और गुलूकारी दोनों ही से। ग़ुलाम मुहम्मद के आहंग पर सुरैया की गायी हुई ग़ालिब की ग़ज़लों को बेशुमार मक़बूलियत हासिल हुई। वज़ीर-ए-आज़म जवाहर लाल नेहरू ने सुरैया की तारीफ़ करते हुए कहा था, “आप ग़ालिब के दौर में वापस ले गयीं“। रफ़ी की आवाज़ में ज़फर का कलाम “नहीं इश्क़ में इसका तो रंज हमें…” कानों में मिश्री घोल देता है। ग़ालिब को आवाज़ तलत महमूद ने दी है।
फ़िल्म के कई मनाज़िर यादगार हैं, लेकिन एक मंज़र निहायत ही फ़िक्र-अंगेज़। है ग़ालिब और मोती (चौधवीं) बेगम की पहली मुलाक़ात का वाक़्या सोचने को मजबूर कर देता है कि दरअसल मद्दाह के लिए फ़नकार की क़ीमत ज़्यादा है या फ़न की, इंसान लियाक़त का क़द्रदान होता है या लईक़ का। फ़र्ज़-शनास बीवी के होते हुए ग़ैर-ख़ातून से इश्क़ होने पर ग़ालिब की कश्मकश-ए-ख़ातिर हमरब्त लगती है। ग़ालिब की शख़्सियत के इतने पहलू हैं कि दो-ढाई घंटे की फ़िल्म में सभी को पेश कर पाना नामुमकिन है। अर्ज़ कर दें कि ये फ़िल्म ऐसी कोशिश भी नहीं करती।
बराये नाम बादशाह बहादुर शाह ज़फर के किरदार में ‘इफ़्तिख़ार’ कम वक़्त में गहरा नक़्श छोड़ जाते हैं। “मैं सोचता हूँ, क्या हमारे बाद ये सैरें, ये बहारें रहेंगी, या इन झरनों, इन अमरुईयों का सिर्फ़ नाम ही नाम रह जायेगा?” सुन कर दिल संजीदगी से भर उठता है। संजीदगी से इतर फ़िद्दन मियाँ और मथुरा दास महाजन के किरदार कई इंतहाई मज़ाहिया मनाज़िर पेश करते हैं। दीगर शुअरा के किरदार निभाने वाले अदाकारों की तारीफ़ न की जाये तो ज़्यादती होगी। यूँ लगता है गोया सभी अदाकार नहीं, वाक़ई शाइर हों।
ये भी अर्ज़ करते चलें कि बहुत मुमकिन है कि इस फ़िल्म से आपके उर्दू ज़ख़ीरा-ए-अल्फ़ाज़ में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा हो। अब तो ये फ़िल्म न देखने-दिखाने की कोई वजह नहीं बचती। फ़िल्म यूट्यूब पर आसानी से दस्तयाब है।
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