Mohammed Rafi

मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ – दुनिया की पैदाइश का नग़्मा!

हमारे बहुत से निहायत संजीदा और गंभीर अदब के आसमान पर फ़ाएज़ अदबी नक़्क़ाद मेरी इस बात पर यक़ीनन नाक भौं सुकेड़ेंगे कि मेरे अदबी शऊर और शेरी जमालियात की तश्कील और परवरिश में मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ ने माँ की कोख जैसा किरदार अदा किया है। 1960 की दहाई के अवाइल में जब मेरी आँखों और कानों पर मीर-ओ-ग़ालिब, सूर-दास और रसखान की शेरी नग़्मगी बारिश कर रही थी, वहीं रफ़ी साहब की आवाज़ भी मेरे विजदान की ज़मीन में अपने आसमानी आहंग के बीज डाल रही थी।

Best Singer of the Millennium: Mohammed Rafi

ओ. पी नय्यर, एस. डी बरमन, शंकर जय किशन, मदन मोहन और रवी जैसे मौसीक़ारों की धुनों पर मजरूह सुलतान पुरी, साहिर लुधियानवी, राजेंद्र कृष्ण, शैलेन्द्र और शकील के गीतों में इन्सानी जज़्बों और एहसास-ए-हुस्न को जीते-जागते जिस्मों में तबदील कर देने वाला, रफ़ी साहब की आवाज़ का तिलिस्म, मैं ही क्या मेरे हम-अस्र बे-शुमार नौ-बालिग़ों के दिल-ओ-दिमाग़ में दुनिया की हक़ीक़त को अफ़साना बनाने और ज़िंदगी की नसरिय्यत को एक अजीब शाइराना सुर में ढालने का काम कर रहा था। लेकिन इसी दौरान मुझ में न जाने कहाँ से सलाहियत पैदा हो गई कि रफ़ी साहब की आवाज़ को उनके गाए हुए गीतों के लफ़्ज़ों और धुनों से अलग और आज़ाद कर सकूँ। ये उन चंद बे-पनाह ख़ुश-क़िस्मतियों में से थी जो क़ुदरत की तरफ़ से मुझे बख़्शी गई हैं। सिर्फ़ आवाज़ को, गीतों से अलग, सुन और महसूस करने की इसी मश्क़ ने ही ये ख़्याल भी पैदा किया कि अगर काली दास, तुलसी दास, सूर दास, मीर तक़ी मीर या मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी के पास अपनी कोई आवाज़ होती तो यक़ीनन यही आवाज़ होती।

Life of Mohammed Rafi

पंजाब के ज़िला अमृतसर के कोटला सुलतान सिंह गांव में पैदा होने वाले एक बच्चे के गले में पलने, परवान चढ़ने और परवाज़ करने वाली ये आवाज़ अक्सर और अपने बेहतरीन लम्हों में उस मिट्टी से आती महसूस होती है जहां वेदों के श्लोक लिखे और गाए गए, जहाँ हमारे अज़ीम दिमाग़ों ने फ़िक्र-ओ-फ़ल्सफ़े के निज़ाम तशकील दिए और जहां अजंता, एलोरा और खजुराहो के पुर-असरार मुजस्समों की सूरत-गरी की गई। रफ़ी साहब की आवाज़ हमारी तहज़ीब के क़दीम तरीन सर-चश्मों से फूटी थी और इसी लिए इस में हमारी तहज़ीब के तमाम-तर जमालियाती और रुहानी हुस्न को इज़हार देने वाली एक तिलिस्मी सलाहियत पैदा हो गई थी। ये कैफ़ियत रफ़ी साहब के बाज़ शाह-कार भजनों (मसलन मन तरपत हरि दरसन को आज) में ज़ाहिर होती है।

Voice of Rafi: A tribute to Greatest Singer

भजन हमारे बहुत से बड़े गाएकों ने गाए हैं, मगर उनमें गंगोत्री के होंठों जैसी पाकीज़गी और रस नहीं जो इन भजनों में रौशन और रवां है। सख़्त उदासी के लम्हों में रफ़ी साहब की आवाज़ ने अक्सर एक ऐसी कैफ़ियत पैदा की है जैसे दुनिया अभी अभी पैदा हुई है। अभी अभी पहला पहला फूल खिला है और पहली बार किसी परिंदे के गले से सुर फूटे हैं और इसके साथ सारी उदासी एक पुर-असरार ख़ुश-गवारी में तबदील हो गई है। मसीहाई और शिफ़ा-कारी का ये वस्फ़ मुझे और किसी आवाज़ में महसूस नहीं हुआ। ये आवाज़ अक्सर यूं बहती है कि हमारे आसाब, जज़्बों और एहसासात में जहां भी कुछ टूटा-फूटा और कटा-फटा होता है, अपने आप ठीक होता चला जाता है।

मीर साहब ने कहा है कि:

तुर्फ़ा-सन्ना’ हैं ऐ मीर ये मौज़ूं तबआं
बात जाती है बिगड़ भी तो बना देते हैं

Voice of Rafi

मुझे रफ़ी साहब की आवाज़ में भी ऐसी ही मौज़ूनी महसूस होती है। उनकी बरसी पर उन्हें याद करना उनकी आवाज़ की मसीहाई से फ़ैज़याब होना है।

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