Riyaz Khairabadi

वो शायर जिसने कभी शराब नहीं पी लेकिन सारी ज़िंदगी शराब पर शेर कहता रहा

रियाज़ ख़ैराबादी के तआरुफ़ में सबसे ज़ियादा कही और सुनी जाने वाली बात ये है कि उन्होंने कभी शराब नहीं पी लेकिन शराब पर सबसे ज़ियादा और सबसे अच्छे शेर कहे।

पहली बात पर यक़ीन के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन दूसरी बात पूरी तरह दुरुस्त है।

उर्दू के साहित्यिक इतिहास में रियाज़ पहले ऐसे शायर हैं जो शराब और उससे जुड़े विषयों पर उम्र-भर शेर कहते रहे। उसके ज़ायक़ों, रंगों और कैफ़िय्यतों की तस्वीरें बनाते रहे। अपनी शायरी की इसी विशेषता के कारण उनके नाम के साथ ‘ख़य्याम-अल-हिंद’ और ‘माहिर-ए-ख़मरियात’ जैसे अलक़ाब का इज़ाफ़ा किया गया। यानी वो शख़्स जो शराब और उससे संबंधित बातों को सबसे बेहतर समझता हो और उनको वयक्त करने में माहिर हो।  

रियाज़ ख़ैराबादी के समय में भी और आज भी वो लोग जो उनकी शायरी पढ़ते हैं ये सोचे बग़ैर नहीं रह पाते कि रियाज़ अपना तमाम वक़्त मय-ख़ाने (शराबख़ाने) में गुज़ारते होंगे और हमेशा नशे में धुत रहते होंगे। रियाज़ के ज़माने में ये सवाल कि रियाज़ शराब पीते हैं कि नहीं? हर उस शख़्स के दिमाग़ में मौजूद रहता था जो रियाज़ से वाक़िफ़ था। रियाज़ ने एक शेर भी कहा,

शेर मेरे तो छलकते हुए साग़र हैं रियाज़
फिर भी सब पूछते हैं आपने मय पी कि नहीं

एक बार का वाक़िया है कि रियाज़ और उर्दू के मशहूर लेखक मौलाना राशिद-अल-ख़ैरी ट्रेन में साथ सफ़र कर रहे थे। मौसम सर्द था। ट्रेन झांसी स्टेशन पर रुकी तो मौलाना ने रियाज़ को चाय पेश की। रियाज़ पीने से इनकार करने लगे, मौलाना शोख़ी के साथ बोले,

“आज यही पी लीजिए, यहां वो चीज़ तो है नहीं जिसके आप आदी हैं”

रियाज़ ये सुनकर मुस्कुराने लगे और मौलाना के हाथ से चाय का कप ले लिया। मौलाना को जब रियाज़ और शराब के रिश्ते की वास्तविक्ता का पता चला तो हैरान रह गए।

रियाज़ के बारे में कहा जाता है कि वो पक्के सच्चे मुस्लमान और धार्मिक व्यक्ति थे, मज़हब के तमाम उसूलों (सिद्धांतों) और अहकामात को दिल से मानते थे और उन पर अमल करते थे। उम्र के साथ उनके धार्मिक विचारों की पुख़्तगी और बढ़ती चली गई। वो हज़रत अली और ख़्वाजा अजमेरी से इंतिहाई दिली लगाव रखते थे। और हाजी वारिस अली शाह को अपना रुहानी मुर्शिद तस्लीम करते थे।

रियाज़ के जीवनी लेखक रईस अहमद जाफ़री ने अपनी किताब ‘रिंद-ए-पार्सा’ में रियाज़ और शराब के शीर्षक के अंतर्गत कई ऐसे लोगों की शहादतें दर्ज की हैं जिन्होंने जीवन का बड़ा हिस्सा रियाज़ के साथ गुज़ारा था और उनके बहुत क़रीबी मित्र रहे थे। सब एक ज़बान में यही कहते हुए नज़र आते हैं कि ज़िंदगी भर उनके मुँह तक इस आतिश-ए-सैयाल का एक क़तरा भी नहीं गया।

रियाज़ ख़ैराबादी का जन्म 1853 को सीतापुर के क़स्बे ख़ैराबाद में हुआ था। उनके पिता सय्यद तुफ़ैल अरबी, फ़ारसी के विद्वान थे और अंग्रेज़ी हुकूमत के पुलिस विभाग में कई आला ओहदों पर फ़ायज़ रहे। रियाज़ की आरंभिक शिक्षा की ज़िम्मेदारी भी उनके पिता ही ने संभाली। रिवाज के मुताबिक़ उन्हें अरबी-व-फ़ारसी की शिक्षा दी गई। लेकिन रियाज़ बचपन से ऐसी तबीयत के मालिक थे कि पारंपरिक शिक्षा से उनका दिल बहुत जल्द उचाट हो गया और शायरी की तरफ़ माइल हो गए।  

शुरूआत में असीर से कलाम पर इस्लाह ली। असीर रियाज़ से बहुत मुहब्बत करते थे और उन्हें इंतिहाई अज़ीज़ रखते थे। लेकिन रियाज़ को कभी भी असीर की सोहबत अच्छी नहीं लगी। इसकी वजह ये थी कि शुरूआत में रियाज़ ग़ालिब की पैरवी में मुश्किल शेर कहते थे और असीर अज़ राह-ए-तफ़न्नुन अपनी महफ़िलों में रियाज़ के शेर सुनाते हुए कहते थे ‘इस शेर को बुझिए’ जैसे वो कोई पहेली हो। असीर की ये बात रियाज़ को बहुत नापसंद थी। इसके बाद रियाज़ अमीर मीनाई की शागिर्दी में आ गए।

Books by Riyaz Khairabadi

पुलिस की नौकरी और पत्रकारिता

रियाज़ का बचपन और जवानी का ज़्यादा-तर हिस्सा अलग अलग शहरों में बीता। सरकारी नौकरी में पिता के तबादलों के सबब उनके शहर बदलते रहे। रियाज़ ने बचपन और जवानी का ज़्यादा तर समय गोरखपुर में गुज़ारा। यहां उनके पिता पुलिस के उच्च अधिकारी के तौर पर काम कर रहे थे। पिता के रसूख़ और असर के चलते रियाज़ भी सब इन्सपैक्टर हो गए। लेकिन रियाज़ की तबीयत को कुछ और ही चाहिए था। कुछ दिनों तक नौकरी करने के बाद उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया और रोज़गार के लिए पत्रकारिता को चुना। शुरू में अख़बार के संपादक हुए,  उसके बाद प्रेस के मालिक बन गए।

एक अख़बार-नवीस (पत्रकार) के तौर पर भी रियाज़ का जीवन बहुत दिलचस्प नज़र आता है। उन्होंने 1872 में ‘रियाज़ अल-अख़बार’ के नाम से साप्ताहिक अख़बार की इशाअत शुरू की। रियाज़ की पत्रकारिता के अंदाज़ अपने समय में सबसे अलग थे। उन्होंने अपने अख़बार के ज़रीये बेबाकी और सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर बेलाग नुक्ता-चीनी का एक नया मेयार क़ायम किया। अपने इस रवैय्ये की बिना पर रियाज़ अंग्रेज़ी हुकूमत के इताब (सख़्तियों) का शिकार भी होते रहे।

‘रियाज़-अल-अख़बार’ के साथ ही रियाज़ ने एक और दैनिक अख़बार की इशाअत शुरू की। ‘रोज़ाना तार-ए-बर्क़ी’ नाम से छपने वाला अख़बार अपने समय में उर्दू में निकलने वाला दूसरा दैनिक अख़बार था। रियाज़ पत्रकारिता के अपने पेशे में कामयाब होते जा रहे थे और नए-नए अख़बार शुरू कर रहे थे। ‘फ़ित्ना’ और ‘इतर-ए-फ़ित्ना’ 1881 में शुरू होने वाले दो और अख़बार हैं जो रियाज़ की सहाफ़ती ज़िंदगी के नक़्श को और गहरा करते हैं। इस ज़माने में ‘अवध पंज’ सिर्फ़ एक अख़बार था जो हास्य लिटरेचर पर आधारित होता था. रियाज़ ने ‘फ़ित्ना’ और ‘इतर-ए-फ़ित्ना’ इसी करम में निकाले। हास्य का सहारा लेकर वो अपने विचारों को वयक्त करने में और मुखर हो गए।

Intekhab-e-Fitna

इशक़ मिज़ाजी और चार शादियां

जो खिला फूल, बना ज़ख़म मिरे दिल का रियाज़
जो कली रह गई खिलने से बनी दिल मेरा

रियाज़ के जीवन का एक और ऐसा रुख़ है जो उन्हें शायर की तरह इन्सान के तौर पर भी उनके समय के तमाम लोगों से मुनफ़रिद बनाता है। और वो है उनकी इशक़-मिज़ाज तबीयत और हुस्न-परस्ती पर माइल दिल। रियाज़ यूं तो सख़्त मज़हबी भी थे, लंबी दाढ़ी भी रखते थे लेकिन इस सब के बावजूद वो अपनी शायरी और निजी ज़िंदगी में बहुत ज़िंदा-दिल और मुहब्बत करने वाले इन्सान थे। उन्होंने कई इशक़ भी किए और चार शादियां भी कीं। रियाज़ के इस व्यक्तित्व पर सबसे अच्छी बातें फ़िराक़ गोरखपुरी ने लिखी हैं,

“रियाज़ ग़ैर-मामूली ज़हानत के आदमी थे। उन पर जवानी और ज़िंदगी फटी पड़ती थी। लखनऊ के दौर-ए-इन्हितात (पतन का समय) में लखनऊ की सौ बरस की बज़्म-आराइयाँ सिमट कर उनकी शख़्सियत में समा गई थीं और वो तमाम बांके आशिक़ और माहपारा औरतें जिन्होंने कभी लखनऊ को लखनऊ बना दिया था सब के सब रियाज़ की ज़िंदगी का जुज़ हो गए थे। सौ बरस के लखनऊ ने अपने आख़िरी लम्हों में रियाज़ के ऊपर अपने आपको सदक़े कर दिया, लिटा दिया, पूरा लखनऊ रियाज़ बन गया”

रियाज़ ने अपने पहले इशक़ की दास्तान ख़ुद बहुत विस्तार से लिखी है जिसे रईस अहमद जाफ़री ने रियाज़ की जीवनी ‘रिंद-ए-पार्सा’ में उन्हीं के शब्दों में दर्ज किया है। रियाज़ के पहले इशक़ में उनकी नामा-बर एक ऐसी ज़ईफ़-उल-उम्र (बूढ़ी) ख़ातून थीं जो कई बार हज कर चुकी थीं लेकिन बद-क़िस्मती से रियाज़ का ये इशक़ नाकाम रहा और उनके पिता ने किसी दूसरी ख़ातून से उनकी शादी करा दी। शादी के बाद रियाज़ का आना जाना एक शरीफ़ ग़ैर-मुस्लिम घराने में हुआ लेकिन मज़हब की तफ़रीक़ के कारण रियाज़ का ये इशक़ भी बे-नतीजा रहा।

तवाइफ़ से शादी और क़त्ल का इल्ज़ाम

रियाज़ की ज़िंदगी का तीसरा इशक़ ऐसी जगह पर वाक़े हुआ जहाँ दर-असल एक कड़ी परीक्षा उनका इंतिज़ार कर रही थी। एक कोठे पर बैठने वाली ग़ैर-मुस्लिम औरत के साथ उनके मरासिम बढ़ते चलते गए। इस बार इश्क़ की आग इस क़दर शदीद थी कि कोई समाजी बंदिश, कोई तहज़ीबी ख़ौफ़ उनके इरादों को हिला नहीं सका। रियाज़ ने अपने घर, ख़ानदान, समाज और दोस्तों की मुख़ालिफ़त के बावजूद उससे शादी कर ली।

यहां से रियाज़ के जीवन का नया दौर शुरू हुआ। लेकिन राह-ए-इश्क़ में एक और हादिसा उनका मुंतज़िर था। कई वर्ष बीतने के बाद ये ख़ातून क़त्ल के इल्ज़ाम में गिरफ़्तार कर ली गईं और मौत की सज़ा सुनाई गई।

इस इत्तिफ़ाक़ी हादिसे का रियाज़ पर इतना गहरा असर पड़ा कि उनके होश-ओ-हवास जाते रहे। मानसिक संतुलन बिगड़ने लगा। ‘रियाज़-अल-अख़बार’ बंद कर दिया। और राजा महमूदाबाद की पेंशन पर क़नाअत कर के ख़ैराबाद में गोशा-नशीन हो गए।

रियाज़ ने अपने ख़ास दोस्तों महाराजा महमूदाबाद और नवाब हामिद अली फ़र्मा-रवा-ए-रामपूर के साथ मिलकर अपनी पत्नी को इस इल्ज़ाम से बरी कराने की बहुत कोशिशें की। वो राजा महमूदाबाद के साथ गवर्नर से मिलने शिमला भी गए। उनकी कोशिशों का सिर्फ़ ये नतीजा निकला कि सज़ा-ए-मौत अजीवन कारावास में बदल दीगई।

लंबे समय तक तन्हाई और मायूसी की ज़िंदगी गुज़ारने के बाद रियाज़ ने चौथी शादी की। अब तक तीन पत्नियों से उनकी कोई संतान नहीं थी। बुढ़ापे की ये चौथी शादी उनके लिए बा-बरकत साबित हुई और ख़ूब बर्ग-ओ-बार लाई। आख़िरी उम्र तक वो छः बच्चों के बाप बने।

रियाज़ ने आख़िरी समय आर्थिक तौर पर काफ़ी मुश्किलों में गुज़ारा। उनके दोनों भाई जो पुलिस विभाग में कार्यरत थे, उनसे अलग रहते थे। रियाज़ के जीवन के आख़िरी बरसों में राजा महमूदाबाद और नवाब रामपूर ने बहुत प्रयास किए कि वे उनके पास आ जाऐं और रियासत से वाबस्ता हो जाएं लेकिन रियाज़ कभी ख़ैराबाद छोड़कर जाने के लिए राज़ी ना हुए। 30 जुलाई 1934 को एक मुख़्तसर अलालत के बाद उनका निधन हो गया।

रियाज़ ख़ैराबादी के चुनिंदा शेर

इतनी पी है कि ब’अद-ए-तौबा भी
बे-पिए बे-ख़ुदी सी रहती है

मर गए फिर भी तअल्लुक़ है ये मय-ख़ाने से
मेरे हिस्से की छलक जाती है पैमाने से

जाम है तौबा-शिकन तौबा मिरी जाम-शिकन
सामने ढेर हैं टूटे हुए पैमानों के

सद-साला दौर-ए-चर्ख़ था साग़र का एक दौर
निकले जो मय-कदे से तो दुनिया बदल गई

हम जानते हैं लुत्फ़-ए-तक़ाज़ा-ए-मय-फ़रोश
वो नक़्द में कहाँ जो मज़ा है उधार में

बे-अब्र रिंद पीते नहीं वाइ’ज़ो शराब
करते हैं ये गुनाह भी रहमत के ज़ोर पर

अच्छी पी ली ख़राब पी ली
जैसी पाई शराब पी ली

ख़ुदा आबाद रक्खे मय-कदे को
बहुत सस्ते छुटे दुनिया-ओ-दीं से

मय-ख़ाने में क्यूँ याद-ए-ख़ुदा होती है अक्सर
मस्जिद में तो ज़िक्र-ए-मय-ओ-मीना नहीं होता

भर भर के जाम बज़्म में छलकाए जाते हैं
हम उन में हैं जो दूर से तरसाए जाते हैं

धोके से पिला दी थी उसे भी कोई दो घूँट
पहले से बहुत नर्म है वाइज़ की ज़बाँ अब

क्या शराब-ए-नाब ने पस्ती से पाया है उरूज
सर चढ़ी है हल्क़ से नीचे उतर जाने के ब’अद

क्यूँ न टूटे मिरी तौबा जो कहे तू साक़ी
पी ले पी ले अरे घनघोर घटा छाई है

उन्हीं में से कोई आए तो मयख़ाने में आ जाए
मिलूँ ख़ुद जा के मैं अहल-ए-हरम से हो नहीं सकता

शैख़-जी गिर गए थे हौज़ में मयख़ाने के
डूब कर चश्मा-ए-कौसर के किनारे निकले

एक वाइज़ है कि जिस की दावतों की धूम है
एक हम हैं जिस के घर कल मय उधार आने को थी

छुपता नहीं छुपाए से आलम उभार का
आँचल की तह में देख नमूदार क्या हुआ

क़ाबू में तुम्हारे भी नहीं जोश-ए-जवानी
बे छेड़े हुए टूटते हैं बंद-ए-क़बा आप

निकाल दूँगा शब-ए-वस्ल बल नज़ाकत के
डरा लिया है बहुत तेवरी चढ़ा के मुझे