Ret Samadhi

बुकर के बहाने कुछ सवालों से रू-ब-रू होना भी जरूरी

गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ को मिले इंटरनेशनल बुकर प्राइज़ के बाद खुशी का माहौल तो बना मगर इसने बहुत सारी ज़रूरी-गैरजरूरी बहसों को भी जन्म दे दिया है। हालांकि इस बहाने हिंदी साहित्य से जुड़े कुछ जरूरी सवाल भी खड़े हुए हैं, जिन पर बात होनी चाहिए। पहला सवाल हिंदी समाज में लेखक की पहचान का है। यह सवाल बहुत सालों से पूछा जाता रहा है। हिंदी का लेखक अपनी पहचान के संकट से जिस तरह जूझता है, उस तरह बंगाल का लेखक, महाराष्ट्र का लेखक या उर्दू का रचनाकार नहीं जूझता है। हिंदी के कवि आमतौर पर पाठ्यपुस्तकों तक सीमित रह जाते हैं, जबकि उर्दू में ग़ज़लों और नज़्मों के लोकप्रिय शायरों की हैसियत किसी सेलिब्रिटी की तरह होती है। बंगाल में शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, बिमल मित्र या आशापूर्णा देवी जैसी लोकप्रियता हिंदी समाज में उपन्यासकार को नहीं मिल पाती।

बीते कई दशकों से हिंदी उपन्यासकार की सारी कोशिश यही होती है कि उसकी रचना को कोई पुरस्कार मिल जाए, जिसमें अमूमन सांठगांठ के किस्से आम होते रहते हैं या फिर किताब किसी तरह से कोर्स में लग जाए। यह सवाल इसलिए अहम हो गया कि जब गीतांजलि श्री को पुरस्कार मिला तो बहुत से हिंदी के रचनाकारों ने ईर्ष्या या अज्ञानतावश यह पूछा कि गीतांजलि श्री कौन हैं? दोनों ही स्थितियां हिंदी समाज के लिए शर्मिंदगी का सबब हैं। अगर ईर्ष्या थी तो इतनी बचकानी थी कि मानों उस सवाल के जरिए यह स्थापित करना था कि यह पुरस्कार किसी को भी मिल जाता है और योग्य लोगों का इससे कोई लेना-देना नहीं है। अज्ञानतावश पूछा तो यह स्मृति में होना चाहिए कि बुकर मिलने से पहले कम से कम दो उपन्यासों के लिए गीतांजलि श्री का नाम हिंदी में याद ही किया जाता, एक ‘माई’ और दूसरा ‘हमारा शहर उस बरस’।

‘माई’ ने उनको पहले ही इतनी ख्याति दी थी कि यह हिंदी के कुछ गिने-चुने उपन्यासों में शामिल हो गया जिसका अंगरेजी के अलावा फ्रेंच, जर्मन और सर्बियन-कोरियन समेत कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है। यह उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर में स्त्रियों की तीन पीढ़ियों की कहानी है। जिसमें आजादी के बाद औपनिवेशिक मूल्यों के बीच पनपते एक मध्यवर्गीय परिवार और उसकी स्त्रियों का जीवन है। ‘हमारा शहर उस बरस’ भारतीय समाज में सांप्रदायिकता को एक अलग नजरिए से देखता है।

कवयित्री अनामिका बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में कहती हैं, “गीतांजलि की सबसे बड़ी ताक़त है कि वो ‘माई’ जैसे उपन्यास में ग्रामीण और कस्बाई जैसे परिवेश की कश्मकश सामने रखती हैं फिर ‘तिरोहित’ में मनोवैज्ञानिक स्तर पर उतरती हैं, ‘हमारा शहर उस बरस’ में बाबरी के माध्यम से राजनीतिक तनावों पर डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म की तरह पाठ तैयार करती हैं और ‘रेत समाधि’ में वृद्ध स्त्री के ज़रिये बुढ़ापे का ठस्सा और युग का प्रतिनिधित्व करवाती हैं। कह सकते हैं कि गीतांजलि के कथानक की स्त्रियां पूरे हिंदुस्तान की स्त्रियों की अव्यक्त इच्छाओं का दस्तावेज़ हैं।”

पुरस्कार ने दूसरी जो बड़ी बहस पाठकों के बीच सोशल मीडिया पर छेड़ी, वह थी पठनीयता की। जिन्होंने पुरस्कार मिलने के बाद उत्साह या उत्सुकतावश ‘रेत समाधि’ को पढ़ना शुरू किया, उन्होंने आनन-फानन में उपन्यास के बारे में अपनी राय कायम कर ली। कुछ लोगों ने उपन्यास में हुए नए प्रयोगों पर असहमति जताई तो कुछ ने उसे अपठनीय साबित कर दिया। उपन्यास से उठाए गए सांस टूट जाने वाले लंबे पैराग्राफ को उद्धरित कर काफी खंडन-मंडन भी हुआ। अंत में ‘लिखो वही जो पाठक के मन भाए’ वाली उक्ति से इसका पटाक्षेप हुआ। मगर सवाल बाकी रह गया, क्या गीतांजलि श्री अपठनीय लेखिका हैं?

Geetanjali Shree

यदि ऐसा था तो डेज़ी रॉकवेल ने किस आधार पर वह उपन्यास अनुवाद के लिए चुना? जरा डेज़ी द्वारा किए गए अनुवादों की सूची देखते हैं। इसमें शामिल है, ऊषा प्रियंवदा का उपन्यास ‘पचपन खंभे लाल दीवारें’, पाकिस्तानी लेखिका ख़दीजा मस्तूर का उपन्यास ‘ज़मीन’ और ‘आंगन’, कृष्णा सोबती का ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान तक’, उपेंद्रनाथ अश्क का उपन्यास ‘गिरती दीवारें’ तथा कई दूसरे उपन्यास। इनमें से कोई उपन्यास औसत या अपठनीय नहीं है। यह समझ में आता है कि अनुवादक की दिलचस्पी भारत और पाकिस्तान के उस ज़िंदगी में खासी है, जो गलियों, मोहल्लों, घरों की चारदीवारी और लोगों के रिश्तों के बीच सांस लेती है।

इसमें कोई विवाद नहीं कि उपन्यास का अनुवाद बेहद श्रम से और बहुत ही बेहतरीन हुआ है। हिंदी में भाषा के प्रति गीतांजलि श्री के जिस खिलंदड़ेपन का उपहास बनाया गया, एक अंगरेजी की लेखिका उसी में भाषा का सौंदर्य और अनुवाद की चुनौतियां तलाशती है। जरा उपन्यास का आरंभ देखें, “एक कहानी अपने आप को कहेगी। मुकम्मल कहानी होगी और अधूरी भी, जैसा कहानियों का चलन है। दिलचस्प कहानी है। उसमें सरहद है और औरतें, जो आती हैं, जाती हैं, आरम्पार। औरत और सरहद का साथ हो तो खुद-ब-खुद कहानी बन जाती है। बल्कि औरत भर भी। कहानी है। सुगबुगी से भरी। फिर जो हवा चलती है उसमें कहानी उड़ती है।”

इसी का अंग्रेज़ी अनुवाद बात को ऐसे कहता है, “A tale tells itself. It can be complete, but also incomplete, the way all tales are. This particular tale has a border and women who come and go as they please. Once you’ve got women and a border, a story can write itself. Even women on their own are enough. Worden are stories in them selves, full of stirrings and whisperings that float on the wind, that bend with each blade of grass.” भाषा का सौंदर्य इधर भी है और उधर भी। तो यह समझने की जरूरत थी कि जब कोई रचना विश्व स्तर पर सराही जा रही है तो यह सराहना इस बात के लिए भी है कि भाषा भावों और कथ्य के कितने अनदेखे-अनजाने कोने झांक आती है।

जब पठनीय-अपठनीय की बात चलती है तो आम और खास पाठक का ज़िक्र भी चल पड़ता है। इस विचार से भी ‘रेत समाधि’ पर सवाल उठे। प्रेमचंद की परंपरा की बात हुई। यहां पर हम यह भूल जाते हैं कि परंपरा से जुड़ने का अर्थ दरअसल उस परंपरा से आगे जाना है। हालांकि उन पर निर्मल वर्मा और कृष्णा सोबती का प्रभाव माना जाता है और वे इस बात को सकारात्मक ढंग से लेती हैं, मगर वे प्रेमचंद की परंपरा से अपरिचित तो बिल्कुल ही नहीं लगतीं। उनकी नॉन-फिक्शन किताबों की फेहरिस्त में ज्यादातर प्रेमचंद का ही आलोचनात्मक अध्ययन है। एक नजर उनके टाइटल पर डालें तो बात और साफ हो जाएगी, ‘बिटवीन टू वर्ल्ड्स : एन इंटेलेक्चुअल बायोग्राफी ऑफ प्रेमचंद’, ‘द नॉर्थ इंडियन इंटेलीजेंशिया एंड द हिंदू-मुसलिम क्वेश्चन’, इसके अलावा ईपीडब्ल्यू में प्रेमचंद पर प्रकाशित कई अन्य आलेख भी इसमें शामिल हैं।

अच्छा हो कि इस पुरस्कार के बहाने हिंदी समाज अपना आत्ममंथन करे और सिर्फ चीजों को ख़ारिज करने या उनका महिमामंडन करने की प्रवृत्ति से बचे। सपाट नज़रिए से रचना और रचनाकारों को देखेंगे तो कभी भी अपनी रचनात्मकता को बहुत विस्तार नहीं दे सकेंगे। हिंदी समाज की तरह हिंदी साहित्य की अपनी बहुलता और विविधता है। इसमें ढेर सारे रंग हैं और इन सभी रंगों से एक बड़ा परिदृश्य बनता है। बेहतर होता कि हम छोटे-छोटे गुटों में बंटने की बजाय उस वृहत्तर परिदृश्य का हिस्सा बन पाएं।

गीतांजलि श्री कृत ‘रेत समाधि’ उपन्यास रेख़्ता बुक्स के बेवसाइट पर ऑनलाइन उपलब्ध है। अधिक जानकारी के लिए यहाँ देखें।