Articles By Dinesh Shrinet

दिनेश श्रीनेत कवि-कथाकार, पत्रकार तथा सिनेमा व लोकप्रिय संस्कृति के अध्येता हैं। पहली कहानी 'विज्ञापन वाली लड़की' सन् 2006 रवींद्र कालिया के संपादन में निकलने वाली 'वागर्थ' में प्रकाशित। बाद में यही कहानी 'उर्दू आजकल' तथा पाकिस्तान के उर्दू 'आज' में छपी और सराही गई। 2012 में 'उड़नखटोला' कहानी बया में प्रकाशित। 2018 में बया में ही 'मत्र्योश्का' कहानी प्रकाशित, भोपाल समेत कई शहरों में इन दोनों कहानियों का पाठ। कविता लेखन और विभिन्न मंचों से कविता पाठ। 'सदानीरा' में कविताएं प्रकाशित। जश्न-ए-रेख़्ता, बुंदेलखंड लिट्रेचर फेस्टिवल, दिल्ली पोएट्री फेस्टिवल में शिरकत और सिनेमा तथा साहित्य पर संवाद। पहल, हंस, स्त्रीकाल, पाखी, बया, अनहद आदि साहित्यिक सामाजिक पत्रिकाओं सिनेमा व पॉपुलर कल्चर पर लेख। वाणी प्रकाशन से 2012 में आई 'पश्चिम और सिनेमा' किताब महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के लिए अनुसंशित। पेशे से दिनेश इकनॉमिक टाइम्स के ऑनलाइन संस्करण में भारतीय भाषाओं के संस्करणों के प्रभारी हैं। वे हिंदी की डिजिटल पत्रकारिता में काम करने वाले सबसे आरंभिक पत्रकारों में से एक रहे हैं। अमर उजाला, दैनिक जागरण तथा वन इंडिया के कई भाषाई डिजिटल संस्करण उनके ही दिशा-निर्देश में सामने आए।

भूपिंदर सिंह : ज़िन्दगी मेरे घर आना

ढलती सुनसान दोपहरी में कोई बेकल-सी पुकार या शाम के गहराते अँधियारे में अभी-अभी जलाया गया गौरवान्वित दिया… कुछ ऐसी थी भूपिंदर सिंह की आवाज़। कैसी उजली और आत्मगौरव से दीप्त होती, घन के गरज सा भारीपन लिए और निचाट अकेलापन लिए आवाज़। अकेलापन भी कोई रोने-कलपने वाला नहीं बल्कि ठहर कर ख़ुद को देखने-परखने वाला। सत्तर के दशक के शहरों में जा कर संघर्ष करने वाले नौजवानों को उन्होंने अपनी आवाज़ दी थी।

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बुकर के बहाने कुछ सवालों से रू-ब-रू होना भी जरूरी

बीते कई दशकों से हिंदी उपन्यासकार की सारी कोशिश यही होती है कि उसकी रचना को कोई पुरस्कार मिल जाए, जिसमें अमूमन सांठगांठ के किस्से आम होते रहते हैं या फिर किताब किसी तरह से कोर्स में लग जाए। यह सवाल इसलिए अहम हो गया कि जब गीतांजलि श्री को पुरस्कार मिला तो बहुत से हिंदी के रचनाकारों ने ईर्ष्या या अज्ञानतावश यह पूछा कि गीतांजलि श्री कौन हैं?

Kamal Amrohi

आई ज़ंजीर की झनकार

कमाल अमरोही अपने तरीके से जिए। अपने तरीके से फिल्में भी बनाईं, एक लंबे जीवन में सिर्फ चार फिल्मों का निर्देशन किया। ‘पाकीज़ा’ और ‘रज़िया सुल्तान’ इन दो फिल्मों को बनाने में इतना लंबा वक्त लिया कि इंडस्ट्री में बहुत से लोगों का कॅरियर भी उससे छोटा हुआ करता है। बचपन में एक बार अपनी अम्मी के डाँटने पर उन्होंने वादा किया कि वह किसी दिन मशहूर होंगे और उनके पल्लू को चाँदी के सिक्कों से भर देंगे।

Kamal Amrohi Blog

ये चराग़ बुझ रहे हैं

पाकीज़ा फिल्म में जब मीना कुमारी राजकुमार से कहती है, “आप आ गए और आप की दिल की ध़डकनों ने मुझे कहने भी नहीं दिया कि मैं एक तवायफ हूं…” तो पूरा शॉट फ्रीज हो जाता है। इसके तुरंत बाद शायद हिंदी सिनेमा के सबसे रोमांटिग गीतों में एक एक “चलो दिलदार चलो, चांद के पार चलो” शुरू होता है। यह एक पूरी सीक्वेंस है: तवायफ होने की सच्चाई के आगे राजकुमार के रूमानी प्रेम का चटख जाना, शॉट फ्रीज होना और फिर रूमानियत का चरम, जो इस दुनिया के पार जाने की बात करता है।

Kamal Amrohi

आ भी जा मेरी दुनिया में

कमाल अमरोही की फिल्मों पर चर्चा करते वक्त दो ऐसी फिल्मों पर बात करना जरूरी है, जिनको उन्होंने निर्देशित नहीं किया है मगर उन पर कमाल अमरोही की छाप स्पष्ट देखने को मिलती है। ये दो फिल्में हैं ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ (1960) और ‘शंकर हुसैन’ (1977)। गौर करें तो कमाल अमरोही की प्रोड्यूस और किशोर साहू द्वारा निर्देशित फिल्म ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ में उदासी के अद्भुत शेड्स देखने को मिलते हैं।

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