shayari karna

दर अस्ल आमद का शेर ही सबसे ज़ियादा वक़्त लेता है

शाइरी के बारे में आम तौर पर एक जुमला मशहूर है कि शाइरी की नहीं जाती, शाइरी हो जाती है।
अकबर इलाहाबादी का एक इन्तहाई मशहूर शे’र है:

दर्द को दिल में दे जगह अकबर
इल्म से शाइरी नहीं होती

इस शे’र से एक बात तो साफ़ तौर पर ज़ाहिर होती है कि शे’र कहने वाले के नज़्दीक इल्म है, बावजूद इसके उससे शाइरी नहीं हो रही है। तब वो कहता है कि उसे अब दर्द को दिल में जगह देने की दरकार है।

मगर ये दर्द क्या है?

क्या यहाँ दर्द से मुराद अपने एक हाथ को किसी चट्टान पर रख कर उस पर दूसरे हाथ में उठाए हुए पत्थर से वार करके उसे ज़ख़्मी करना है?

या ख़ंजर से सीने को चाक करना?

या दीवार में सर पटकना?

बाल नोचना या नाख़ुन से गर्दन खंरोच डालना? और इस सबके बा’द होने वाले तमाम दर्द को यकजा करके दिल की तरफ़ रवाना कर देना?

भला ऐसा मुमकिन है? कोई करता होगा ऐसा? क्या आपने ख़ुद कभी ऐसा किया है?

आपकी तरफ़ से मैं जवाब देता हूँ और कहता हूँ, नहीं। दर्द पैदा करने की चीज़ नहीं है। दर्द महसूस करने की चीज़ है। लीजिए फिर एक सवाल पैदा हो गया कि महसूस करना क्या है?

महसूस करने का मतलब है आपका उत्सुक प्रेक्षक या’नी Keen observer होना। अपने अन्दर, अपने बाहर, अपने आस-पास हो रही हर एक घटना पर ग़ौर-ओ-फ़िक्र और उसे तवज्जो के साथ के साथ देखना। उसके बारे में गहराई से सोचना। कहा जाता है, दुनिया में सुखी वही है जो कुछ नहीं जानता और दुखी वो जो सब कुछ जानता है। सब कुछ जानने वाला या तो दुखी रह कर ज़िन्दगी काट देता है या विरक्ति की राह पर निकल जाता है। शाइर होना इन दोनों हालतों के दरमियान एक तीसरे हाल को चुनना है। या’नी विरक्त हो कर दुखी रहते हुए न सिर्फ़ ज़िन्दगी गुज़ारते जाना, बल्कि गुज़र चुके, गुज़र रहे और कभी-कभी गुज़रने वाले वाक़िए को गहराई से महसूस करना और उसे शे’र की शक्ल में पिरो कर दुनिया के सामने पेश कर देना।

शाइरी करना और शाइरी होना, होने-करने, करने-होने की क्रियाओं में इस तरह गुँथा हुआ है जैसे तरह-तरह के धागे एक-दूसरे से उलझ जाएँ। शाइरी करने वाले के लिए शुरुआत ”शाइरी होने” से होती है और उसकी शाइरी होने के बा’द शाइरी की समझ रखने वाले कहते हैं, “तुम अभी शाइरी कर नहीं पा रहे हो।”, शाइरी की समझ रखने वाले जब शाइरी करते हैं तब वो ख़ुद से कहते हैं, “अभी शाइरी हो नहीं पा रही है।”

है ना सब कुछ उलझा हुआ सा?

तो फिर ये शाइरी करना और शाइरी होना क्या है?

‘शाइरी करना’ मश्क़ है और ‘शाइरी होना’ की गई मश्क़ का कामयाब होना है। यहाँ कामयाबी से मतलब शे’र के मशहूर होने से नहीं बल्कि शे’र के शाइरी के शिल्प पर खरा उतरने से है।

फिर से समझते हैं:

हमसे सबसे पहले शाइरी हो रही होती है लेकिन हम कर नहीं पा रहे होते हैं।

तो कैसे कर पाएँगे?

इसका जवाब है इल्म या’नी शाइरी के बारे में बुनियादी जानकारी का होना और दर्द को महसूस करना जो आपके Keen observer होने का नतीजा होगा।

शाइरी कर लेने वालों को अच्छी तरह से मा’लूम होता है कि अगर उनसे शाइरी नहीं हो रही, तो क्यों नहीं हो रही है? कब होगी? और कैसे होगी?

एक और बात आमद का शे’र। क्या होता है आमद का शे’र?

अमूमन जिसके लिए कहा जाता है कि ग़ज़ल का वो शे’र (एक से ज़ियादा भी हो सकते हैं) जो बग़ैर किसी कोशिश के, बग़ैर चाहे अपने-आप हो जाए, उसे आमद का शे’र कहते हैं। लेकिन, जब हमने उस शे’र को न सोचा था, न चाहा था, तब भी वो हमें ख़ुद और सुनने-पढ़ने वालों को कैसे पसन्द आ जाता है? दरअस्ल आमद का शे’र ग़ज़ल के उन तमाम अशआर में से, जो वक़्त ले कर कहे गए होते हैं, सबसे ज़ियादा वक़्त ले कर कहा गया शे’र होता है। वो एक ऐसा ख़याल होता है जो कई दिनों, हफ़्तों या महीनों से हमारे दिमाग़ में इस एहतियात के साथ ऊधम मचा रहा होता है कि हमें उसकी ख़बर भी नहीं होती है। और एक दिन वो शे’र के रंग में ढल कर हमारे ज़ेह’न से बाहर आ जाता है। दरअस्ल आमद का शे’र ही वो शे’र होता है जिसे हम वाक़ई कबसे कहना चाह रहे होते हैं।

आमद का शे’र नौ-सिखिए के ज़ेह’न में नहीं आता। क्यों? क्यों कि आमद का शे’र शे’र के मुख़्तलिफ़ आहंग से वाक़िफ़ होता है जिससे कि नए सीखने वाले अक्सर ना-वाक़िफ़ होते हैं। आमद के शे’र की बह’र शाइर नहीं बल्कि शे’र ख़ुद तय करता है। और शे’र अपनी बह’र, अपना क़ाफ़िया, अपना रदीफ़ तभी चुन सकता है जब शाइर के दिमाग़ में इन सब का खज़ाना पहले से मौजूद हो।

कुल मिला कर शाइरी करना, होना, होना, करना का एक- दूसरे से जो तअल्लुक़ है वो आपके सामने है। और ये भी कि क़ुदरती तौर पर हम अक्सर पहले दर्द महसूस करते हैं फिर शाइरी करते हैं फिर इल्म की तरफ़ जाते हैं। लेकिन तकनीकी तौर पर एक वक़्त के बा’द हम इसे सहीह क्रम देते हैं, या’नी पहले इल्म फिर दर्द फिर शाइरी। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आपकी तरतीब क्या है लेकिन तरतीब के सिलसिले के ये तीनों जुज़ एक दूसरे से कभी जुदा नहीं किए जा सकते।