Sher mein Ek Lafz Ka Kamaal

शेर में एक लफ़्ज़ का कमाल

मशहूर अरुज़-दां और उस्ताद शायर अब्र अहसनी गुन्नौरी मरहूम की तसनीफ़ “मेरी इस्लाहें” बहुत मशहूर किताब है, उन्हों ने एक ज़माने तक अपने शागिर्दों का कलाम पर इस्लाहें दी हैं।

अब्र साहब के हिन्द-ओ-पाक में सैकड़ों शागिर्द थे, जो उनसे ख़त-ओ-किताबत के ज़रिये इस्लाह लेते थे। कहा जाता है कि गुन्नौर के पोस्ट आफ़िस मे जितनी डाक आती थी उसमें आधी से ज़्यादा सिर्फ़ अब्र साहब की होती थी।

अब्र साहब अक्सर एक दो लफ़्ज़ बदल कर मामूली शेर को भी ख़ूबसूरत और मानी-ख़ेज़ बना देते थे।

एक मिसाल अब तक याद है, किसी शागिर्द का शेर था:

गले मिलकर वो रुख़सत हो रहे हैं
मुसीबत का ज़माना आ रहा है

बज़ाहिर ये सपाट और मामूली सा शेर है।

अब्र साहब ने लफ़्ज़ “मुसीबत” काट कर “मुहब्बत” कर दिया और इसे वाक़ई शेर बना दिया।

आज के ज़माने मे ये हुनर यानी एक, दो लफ़्ज़ों से मैयारी शायरी करना बड़े मुस्तनद और तजरबे-कार शाइरों मे ही पाया जाता है।

मै चन्द मिसालों की मदद से रेख़्ता के कारईन बिल-ख़ुसूस नये लिखने वालों तक इस हुनर की तरसील करना चाहता हूँ। इसके लिए मैंने सन 2000 के बाद के तीन मशहूर और इनफ़िरादी उसलूब के मास्टर शायरों के ऐसे अशआर मुन्तख़ब किये हैं जिनका पूरा हुस्न और मफ़हूम एक/ दो अल्फ़ाज़ पर मबनी है।

जो तीन शुअरा मुन्तख़ब किए हैं, उनके नाम हैं:

1- शुजाअ ख़ावर (मरहूम)
2- फ़रहत अहसास
3- शारिक़ कैफ़ी

ये तीनों शायर अपने उस्लूब में ग़ज़ल के बेहद मुनफ़रिद शायर हैं , आइये सब से पहले शुजाअ ख़ावर की शायरी देखते हैं,

शुजाअ ख़ावर

अपने ज़माने के अलबेले और मुनफ़रिद शायर, शायरी ही उनका ओढ़ना बिछौना थी, जिसकी ख़ातिर पुलिस कमिश्नर के आला ओहदे से इस्तीफ़ा तक दे दिया।

इनके चन्द अशआर मुलाहिज़ा करें:

बीत गया मैं बैठा बैठा
तेरी गली मे अच्छा बैठा

(बीत गया)

सारी दवाएं दे दीं तड़पने नहीं दिया
चारागरों ने हमको पनपने नहीं दिया

(तड़पने और पनपने )

तख़युल का ख़ज़ाना मिल गया है
हम अब करते कराते कुछ नहीं हैं

(ख़ज़ाना)

पहले पत्थर पर क़लम की धार मैने तेज़ की
फिर नहीं फेंका किसी ने मुझ पे पत्थर दूसरा

(क़लम की धार)

तिरा ख़याल तिरा इन्तज़ार बरसों से
जमा हुआ है मिरा कारोबार बरसों से

(जमा हुआ)

सो जाएगा रोने वाला
और नहीं कुछ होने वाला

(कुछ होने)

देख कर सब कुछ इधर आए थे हम
अब कहाँ जाएंगे मैख़ाने के बाद

(देख कर)

फ़रहत अहसास

अहद-ए-हाज़िर के बेहद अहम जदीद शायर। फ़िक्र-ओ-ख़्याल की वुसअत और ग़ज़ल के मैदान में ताज़ा-तरीन तजरबात पेश करने के लिए पूरी अदबी दुनिया में मशहूर! जैसा सोचते हैं बेख़ौफ़, बेझिझक बयान करने वाले शुअरा मे शुमार।

पेश हैं चन्द अशआर:

कहानी ख़त्म हुई तब मुझे ख़्याल आया
तिरे सिवा भी तो किरदार थे कहानी में

(पूरा शेर “तिरे सिवा” पर टिका हुआ है)

मिरे लफ़्जों को मिल गई आंखें
सारे आंसू लबों से बहने लगे

(आंखें और लब)

हुई इक ख़्वाब से शादी मिरी तन्हाई की
पहली बेटी है उदासी मिरी तन्हाई की

(बेटी, उदासी)

बदन और रूह मे झगड़ा पड़ा था
कि हिस्सा इश्क़ मे किसका बड़ा था
(हिस्सा)

हमारे पास यही शाइरी का सिक्का है
उलट-पलट के इसी को चलाना पड़ता है

(उलट पलट)

क्या बदन है कि ठहरता ही नहीं आंखों में
बस यही देखता रहता हूँ कि अब क्या होगा

(अब क्या)

घर मे चीज़ें बढ़ रही हैं ज़िंदगी कम हो रही है
धीरे धीरे घर की अपनी रौशनी कम हो रही है

(अपनी रोशनी)

पूरी तरह अब के तैयार हो के निकले
हम चारागर से मिलने बीमार हो के निकले

(तैयार)

शारिक़ कैफ़ी साहब

आप को शाइरी का फ़न विरासत मे मिला। आपके वालिद-ए-मोहतरम कैफ़ी विज्दानी साहब अपने ज़माने के अहम जदीद शुअरा मे शुमार होते थे। आपका उसलूब और शेर कहने का अन्दाज़ अछूता और है। इन्सानी खा़मियों और ख़ूबियों की अजनबी नफ़्सियाती पहलुओं को बड़ी ख़ूबसूरती से शेर मे समोते हैं।

पेश हैं एक लफ़्ज़ की बुनियाद पर रखे हुए कुछ अशआर:

मुझी पे है सोचने का ज़िम्मा
उसे तो हर बात का यक़ीं है

(सोचने का ज़िम्मा)

गए, दीवार छू कर लौट आए
यहीं तक खेल से वाबस्तगी है

(दीवार छूकर)

ये सच है कि अब बेसहारा हूँ मैं
मगर उसके मरने का डर तो गया

(मरने का डर)

तबाही का क्या रन्ज होता हमें
समझ ही न पाए कि क्या हो गया

(समझ)

टिक गई आकर मिरी ख़ुद पर निगाह
हाथ जब कोई शिकार आया नहीं

(शिकार)

मुआफ़ी और इतनी सी ख़ता पर
सज़ा से काम चल जाता हमारा

(काम चलना)

बहुत हिम्मत का है ये काम शारिक़
कि शरमाते नहीं डरते हुए हम

(शरमाते नहीं)

ऊपर की मिसालों में हमारी फ़हम के मुताबिक़ शेर पर सबसे ज़्यादा असर अंगेज़ जिन एक या दो लफ़्ज़ों की निशान-दही की गई है, ज़रूरी नहीं कि दूसरे क़ारी भी इससे मुत्तफ़िक़ हों, हो सकता है उनकी नज़र मे कोई दूसरा लफ़्ज अहम किरदार अदा कर रहा हो।

यहाँ हमारा मक़सद इतना है कि शेर को इस ऐन्गल से भी पढ़ना चाहिए जिससे शाइर की मेहनत और अरक़-रेज़ी का भी अन्दाज़ा हो सके और शेर से मज़ीद लुत्फ़ हासिल किया जा सके।

इसके अलावा इन अशआर से एक नतीजा और भी निकलता है, कि इनमें बेशतर शेर किसी मख़सूस पस-मन्ज़र, किसी अहम वाक़या या किसी नफ़्सयाती पहलू को उजागर करते हैं।

जो तभी मुमकिन है कि इनमें एक दो लफ़्ज अछूते अन्दाज़ मे इस्तेमाल किये जाएं। उम्मीद है कि ये छोटा सा मज़मून शेर-फ़हमी के एक नए रुख़ से क़ारईन को रूशनास कराएगा।