ज़बान-ए-यार मन तुर्की

मुंबई में दो दशक से भी ज़्यादा वक़्त बिताने के बावजूद हम आज तक सही मानो में मुंबईकर नहीं बन पाए हैं। ऐसा नहीं की बम्बईय्या लिंगो से वाक़िफ़ नहीं हैं बस ये शब्द आज भी ज़बान पर आते हुए कतराते हैं। हम आज भी किसी से ये नहीं कह सकते हैं की ‘आज ट्रेन… continue reading