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ज़बान-ए-यार मन तुर्की

मुंबई में दो दशक से भी ज़्यादा वक़्त बिताने के बावजूद हम आज तक सही मानो में मुंबईकर नहीं बन पाए हैं। ऐसा नहीं की बम्बईय्या लिंगो से वाक़िफ़ नहीं हैं बस ये शब्द आज भी ज़बान पर आते हुए कतराते हैं। हम आज भी किसी से ये नहीं कह सकते हैं की ‘आज ट्रेन में बड़ी गर्दी थी’ या अगर ख़ुदा न करे कि बात बहस से आगे बढ़ कर गाली-गलौज तक पहुँच जाए (जिन लोगों ने मुंबई की लोकल ट्रेनों में सफ़र किया है, वो जानते हैं कि ये रोज़ होता है) तो हमारी ज़बान पर कभी भी इस तरह के जुमले नहीं आते हैं ”काये को खाली पीली बोम मारता है” हम अपनी ज़बान और लखनवी तहज़ीब का दामन कभी भी हाथ से नहीं छोड़ते हैं।

हम जब 90 के दशक में यूपी और दिल्ली में अपनी पढ़ाई खतम करके रोज़गार की तलाश में आए तो ये शहर बम्बई या बाम्बे कहलाता था। हमने इस से पहले सिर्फ़ छोटे छोटे नाले या नदियाँ देखी थीं जब अरब महासागर पर निगाह पड़ी तो समझ में नहीं आया की कैसे रीऐक्ट किया जाए (हमारे दोस्त जो बाहर से आते हैं, आज भी सबसे पहले समुंदर देखने की फ़रमाइश करते हैं) फिर एक बेहद शानदार कल्चर जिसकी सबसे ख़ास बात औरतों की इज़्ज़त और एह्तेराम था उस से पाला पड़ा (ये शहर आज भी औरतों के लिए सबसे महफ़ूज़ शहर माना जाता है)।

अगर कोई मसला था तो वो थी भाषा, मीडिया इंडस्ट्री जिस से हम ने अपने कैरीअर की शुरुआत की वो अभी बहुत छोटी थी। टेलीविजन पर अंग्रेज़ी भाषा का बोल-बाला था। प्रिंट में अलबत्ता हिंदी और वर्नैक्युलर की पहुँच बहुत ज़्यादा थी। हालाँकि उस जमाने में भी मुंबई में हिंदी काफ़ी बोली जाती थी, लेकिन हमारे दफ़्तर के सरे साथी मराठी मानुस थे, और आपस में सिर्फ़ मराठी बोलते थे, शुरू शुरू में ये ज़बान बहुत ना-मानूस लगी, हम बुन्यादी तौर पर उर्दू भाषी हैं, और दूसरों की तरह यही समझते है की उर्दू एक मीठी ज़बान है। कई बार तो मराठी के अल्फ़ाज़ सुन कर ऐसा लगता था की ये लोग एक दोसरे को गाली दे रहे हैं। ‘फ़क़्त’ का लफ़्ज़ बार बार सुनाई देता जो अंग्रेज़ी में दी जाने वाली एक गाली से बहुत मिलता-जुलता है। हम सोचते थे की यार ये लोग इतना गाली क्यों देते रहते हैं, इसी तरह earthworm के लिए मराठी में ऐसा शब्द है जो नोर्थ इंडिया में रोज़ गाली की शकल में सुनने को मिलता है (इस कॉलम में हम ये शब्द नहीं लिख सकते हैं, जिज्ञासा हो तो किसी मराठी मानुस से पूछ लें ) धीरे धीरे जब वक़्त गुज़रा और समझ आई, तो पता चला की ये सारे शब्द तो उर्दू में भी हैं, बस हमारा तलफ़्फ़ुज़ अलग है, मराठी का ‘फ़क़्त’ उर्दू में ‘फ़क़त’ है। ‘मदद’ यहाँ ‘मदत’ बन जाता है। उर्दू का ‘ताक़त’ मुंबई पहुँच कर ‘ताकद’ बन जाता है। ‘ख़ूब’ यहाँ ‘खूप’ बन गया है। ‘मालमत्ता’ शायद ‘मालओ-मताअ’ की बिगड़ी शक़्ल है। ‘तालुका’ हर जगह सुनाई देता है। कमाल तो ये है की पिछले साल एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में महाराष्ट्र के बहुत सारे गाँव घूमने का मौक़ा मिला तो एक बड़ी दिलचस्प बात पता चली, वहाँ एक जैसे नामों वाले गाँव में फ़र्क़ करने के लिए दो शब्द इस्तेमाल होते हैं, आबादी के लिहाज़ से बड़े गाँव को ‘बुद्रुक’ और छोटे को ‘खुर्द’ कहते हैं, देखिए कैसे फ़ारसी ज़बान यहाँ बोल रही है, फ़ारसी में ‘बड़े’ को ‘बुजुर्ग’ और छोटे को ‘ख़ुर्द’ कहते हैं। फ़ारसी की मशहूर कहावत है ”सग बाश बेरादर ख़ुर्द मबाश” यानी कुत्ता बन जाओ छोटा भाई मत बनो। इस कहावत की जड़ें उस कल्चर और रस्म से मिलती हैं जहां तख़्त ओ ताज का वारिस बड़ा बेटा बनता था।

असल में भाषा किसी ख़ला (vaccum) में नहीं पैदा होती है। हर शब्द का एक पस-मंज़र और तहजीबी वरसा होता है, जो शब्द हम तक आज पहुँचे हैं उन्होंने ने न जाने कितनी सदियों का सफ़र तय किया है। उसमें कुछ तो अपनी अस्ल शक्ल में मौजूद हैं और कुछ कल्चरल लेन-देन का हिस्सा बन कर थोड़े अलग दिखाई देने लगे हैं। और यही भाषा की सबसे बड़ी ख़ूबसूरती है। वो हर जमाने में evolve होती रही है। अंग्रेज़ी भाषा जो दुनिया में सबसे ज़्यादा बोली जाती है अगर हम उसकी मिसाल लें तो १६ शताब्दी की अंग्रेज़ी हम क्या खुद अंगेज़ भी नहीं समझ पाएँगे। हर युग की अपनी अलग भाषा होती है जो उस युग के कल्चर का सबसे बड़ा आईना होती है।

भारती उपमहाद्वीप में भाषा के साथ जो सबसे बड़ा ज़ुल्म हुआ कि उसको धर्म से जोड़ दिया गया। जावेद अख़्तर साहेब ने क्या खूबसूरत बात कही है कि ‘भाषा रीजन की होती है रिलिजन की नहीं’। इस ग़लत-फ़हमी का नतीजा ये निकला कि उर्दू मुसलमानों की ज़बान समझी जाने लगी, और हिंदी हिंदुओं की। इसी लिए गांधी जी हमेशा ‘हिंदुस्तानी’ की वकालत करते रहे।

भाषा का धर्म से कोई ताल्लुक़ नहीं है, उसकी सबसे बड़ी मिसाल पाकिस्तान है। जब ईस्ट पाकिस्तान ( जहां लोगों की भाषा बांग्ला थी) पर उर्दू थोपने की कोशिश की गई तो एक अलग मुल्क ही बन गया, जो आज बांग्लादेश के नाम से जाना जाता है।

भाषा के तअ’ल्लुक़ से आम तौर से दो तरह का रवैया अपनाया जाता है। एक तो खुदा-ए-सुख़न मीर तक़ी मीर का रवैया है कि लखनऊ गए तो जो ताँगे वाला उनकी पेशवाई के लिए आया उन्होंने उस से बात नहीं की और रास्ते भर मुँह पर ढाँपा बांधे रहे कि बात-चीत करने की वजह से उनकी ज़बान ख़राब न हो जाए। ये एक Puritan का अप्रोच है और इस तरह की ज़बान किताबों में तो थोड़े दिन चल जाएगी मगर ज़िंदगी में नहीं चलेगी। दूसरा अप्रोच प्रैग्मैटिक है, ये लोग वक़्त की रफ़्तार के साथ चलना जानते हैं, अस्ल में ये ज़माना तय करता है कि क़ौन सी ज़बान और कौन सा लहजा चलेगा। पहले सिर्फ़ उर्दू वाले रोना रोते थे, आज Globalization की वजह से सारी भारतीय भाषाएँ ख़तरे में हैं। भाषा और रोज़ी-रोटी का चोली दामन का साथ है। हमारे गाँव में एक सुनार था जो फ़ारसी के बेहतरीन शेर सुनाता था, पुराने जमाने में फ़ारसी दरबारी ज़बान थी। कोर्ट की ज़बान में आज भी फ़ारसी के कितने ही शब्द इस्तेमाल होते हैं। फ़िल्म ऐक्टर धर्मेंद्र के बारे में मशहूर है वो अपनी स्क्रिप्ट उर्दू में पढ़ना ज़्यादा पसंद करते हैं, और अब वो ज़माना आ गया है की स्क्रिप्ट रोमन में लिख कर दी जाती है।

आने वाले वक़्त में अस्ल नुक़सान ये होगा कि लोग अपनी मात्र भाषा भूल जाएँगे और अपनी तहज़ीब ,कल्चर और अपने विरसे से बिल्कुल महरूम हो जाएँगे, ज़बान सिर्फ़ पढ़ने और बोलने की चीज़ नहीं है, उसमें पूरी इंसानी तारीख़ छुपी है, और हर क़ौम और नस्ल की रवायात की ये सबसे बड़ी गवाह है। ये हर ज़िंदा समाज की ज़िम्मेदारी है कि वो इसकी हिफ़ाज़त करे।

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