जब कोलकता में ग़ालिब के एक फ़ारसी शेर पर विवाद खड़ा हो गया
ज़माने भर में मशहूर मिर्ज़ा ग़ालिब अपने ज़माने में एक रिजेक्टेड शायर थे। उनकी ज़ियादा-तर शायरी फ़ारसी में है मगर शोहरत उर्दू शायर के तौर पर मिली एक तो फ़ारसी शायरी भी मुश्किल वाली, और उस पर उनका रहस्यवाद। शेरों में कुछ चुटकी लाने के लिए ग़ालिब अपनी शायरी में तरह-तरह के तजर्बें करते, जिससे उनकी शायरी कई दफ़ा और भी मुश्किल हो जाती थी। उनकी शायरी के बारे में आम ख़याल था कि महलों की शायरी है जो हद दर्जे तक बेमानी है। फ़ारसी ग़ालिब के खून में थी। उनके दादा, मिर्ज़ा क़ोबान बेग ख़ान, अहमद शाह के जमाने में समरक़न्द से भारत कोई 1750 ई. में आए थे। उन्होंने दिल्ली, लाहौर व जयपुर में काम किया और अंत में आगरे में आकर बस गए। ग़ालिब यहीं आगरे में कोई 50 साल बाद जनमे। मिर्ज़ा जब चौदह साल के हुए तो उनकी मुलाक़ात एक ईरानी विद्वान, अब्दुस्समद से हुई, ये ईरानी साहब कभी पारसी हुआ करते थे जो बाद में मुसलमान हो गए। अबदुस्ममद फ़ारसी के बहुत अच्छे जानकार थे। कहते हैं इन ईरानी साहब ने ग़ालिब को दो साल तक फ़ारसी शब्दों, व्याकरण और फ़ारसी मुहावरों की तालीम दी। एक तो ग़ालिब के जिस्म में दौड़ता ईरानी लहू और दिमाग में ईरानी उस्ताद की नसीहतें और तजर्बे, इन दोनों के मेल ने ग़ालिब को फ़ारसी का ज़बरदस्त और ज़हीन शायर बना दिया। सिर्फ़ शायर ही नहीं बल्कि उनके खाने पीने, उठने बैठनें, बात करने, कपड़े पहनने और सोचने समझने का अंदाज तक ख़ालिस ईरानी हो गया।
ग़ालिब को बदनाम शायर कहा जाता था। अपने बारे में खुद उनके अल्फाज़ हैं। ‘होगा कोई ऐसा भी जो ग़ालिब को न जाने, शायर तो वो अच्छा है पे बदनाम बहुत है.’
जरा ग़ालिब के इस शेर पर गौर कीजिए:
ग़ालिब ने यहां ‘जगह’ की जगह फ़ारसी का ‘जा’ लफ्ज़ लिखा। ‘ग़लत’ अरबी का शब्द है और ‘बरदार’ फ़ारसी का। फ़ारसी में ग़लत-बरदार उस चाकू को कहते हैं जिससे खुरच के ग़लत लिखे गए अक्षर मिटाए जाते हैं। लेकिन यहां इसका इस्तेमाल ग़ालिब ने ऐसे कागज़ के लिए किया है जिसमें ग़लत लिखे गए अक्षर आसानी से मिटाए जा सकते हैं। ग़ालिब कहते हैं कि एक जगह तुमने ख़त में वफ़ा शब्द लिखा था लेकिन वो मिट गया। शायद तुम्हारे ख़त का कागज ग़लत-बरदार है जिस पर दिल की सच्ची बातें नहीं लिखी जातीं, वो खुद-ब-खुद मिट जाती हैं, तो जब तक आप ग़लत-बरदार का मतलब नहीं समझेंगे तब तक आप ग़ालिब के इस खूबसूरत शेर को नहीं समझ सकते।
इसके इलावा ग़ालिब की शायरी का एक तीसरे दर्जे का भी अंदाज है, जो ख़ालिस फ़ारसी लफ़्ज़ों से लबरेज है।
अब फ़ारसी समझने वाला कोई भी इस शेर पर वाह वाह किए बिना नहीं रहेगा। लेकिन उर्दू से मुहब्बत करने वाले आम हिन्दुस्तानियों के लिए ये शेर बेमजा़ है।
चश्म कहते हैं आंखों को, खूबाँ यानी ख़ूबसूरत माशूका, ‘नवा-परदाज़’ इसमें ‘नवा’ का मानी है ‘बोलना’ और ‘परदाज़’ माने ‘अंदाज’ यानी माशूका के ‘बोलने का अंदाज’. ‘दूद’ का मतलब है ‘धुआँ’ और ‘शोला’ आप जानते ही हैं ‘आग की लपट’ को कहते हैं, तो शेर व्याख्या यूँ हुई … माशूक़ा की आंखें ख़ामोश रह कर भी बहुत कुछ कह जाती हैं। और उसकी आंखों का सुरमा या काजल कुछ और नहीं बल्कि उसकी इसी अनबोली आवाज़ के धुएँ से बना है। अब देखिए, इतना ख़ूबसूरत शेर बिना फ़ारसी जाने कैसे बेमजा़ हुआ जा रहा था।
तो आप जानिए कि ग़ालिब की पूरी शायरी में कोई 18,000 अशआर ऐसे ही ख़ालिस फ़ारसी के हैं। मिर्ज़ा के उर्दू दीवान में केवल 1800 शेर हैं, लेकिन सब एक से बढ़ कर एक, और सच पूछिए तो इन्हीं शेरो से ग़ालिब की पहचान भी बनी है, और इन शेरों के बारे में कभी ग़ालिब ने बड़ी हिक़ारत से कहा कि ये शेर उन्होंने अपने कम फ़ारसी समझने वाले दोस्तों के तफ़रीह के लिए लिख कर उन्हें बाँट दिए थे। वे कहते थे ‘अगर आपको मेरे अशाआर का रंग देखना है तो मेरी फ़ारसी शायरी पढ़िए’। ईरान और अरब में तो ग़ालिब की शायरी की धूम इन्हीं गज़लों, रुबाइयों और शेरो की वजह से है। हम हिन्दुस्तानी तो ग़ालिब के इन्हीं 1800 शेरों पर निहाल हैं।
ग़ालिब एक अरबी लफ्ज़ है जिसका मतलब है सब पर छा जाने वाला विजेता, ग़ालिब का एक मतलब और है, एक ऐसा पेड़ जो आसमान के पेड़ में सबसे ऊंचा हो. सच तो ये है कि ग़ालिब ने उर्दू शायरी में अपने लिए सबसे ऊंचा स्थान बना लिया, वो कंटेंट को सीधी-सादी जबान में कहने के बजाए उसे तसव्वुर की अंधेरी भूल भुलैया में डाल देते हैं फिर किसी जादूगर की तरह उस की नुमाइश करते हैं। इसे आप नजरों का धोखा कहें या हाथ की सफ़ाई, पर ये हुनर ग़ालिब में था। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि ग़ालिब की कल्पना की उड़ान इतनी ऊंची चली जाती है कि आसमान में तक़रीबन गुम हो जाती। ग़ालिब की शायरी में कई रंग हैं, एक ही ग़ज़ल में कुछ शेर इश्क़ और मुहब्बत के हैं, कुछ फ़िलासफ़ी के है तो कुछ ज़िन्दगी के दूसरे मिज़ाज के। इन अशआर में फ़ारसी लफ़्ज़ ठुसे पड़े हैं। अगर आप फ़ारसी लफ़्ज़ों से परिचित हैं तो ग़ालिब के शेर आपका दिल जीत लेंगे, नहीं तो आप केवल मायूस होकर रह जाएंगे। मसलन:
गुंचा के माने कली, नाशिग़ुफ्त़ यानी जो अभी खिली नहीं है। और बोसा यानी चूमना। इस शेर में तीन लफ़्ज़ फ़ारसी के हैं, बाकी हिन्दी के शब्द है। ग़ालिब कहते हैं कि जब मैंने अपनी मशूक़ा से पूछा कि चुम्बन कैसे लिया जाता है तो उसने अधखिली कली की तरफ इशारा करते हुए कहा कि यूँ। माशूक़ा के इस अंदाज़ पर फ़िदा शायर कहता है, मैं ये सब नहीं समझता मुझे अपने मुंह से चूम को बताओ कि यूँ।
फिर वे आगे लिखते हैं:
उनसे पुरसिश-ए-तर्ज़ यानी किस ढंग से पूछें कि दिल किस तरह लूट लिया लिया जाता है, बिना उसके कहे उसके हर एक इशारे से उसका जवाब मिल गया कि यूँ।
आगे ग़ालिब लिखते हैं:
यानी मैंने उससे पूछा कि रात को ग़ैर से क्या बातें हुईं कैसे बाते हुईं। उसने कहा कि देखिए और मेरे सामने आ कर बैठ गई, वो बताना चाह रही है कि मैं उस ग़ैर के साथ भी ऐसे दूरी बना के बैठी थी।
तो ये ग़ालिब साहब के बात करने का एक रोमांटिक अंदाज़ है, इस तरह ग़ालिब अपने हर शेर में फ़ारसी के कठिन लफ़्ज़ रखते हैं, जो आमतौर पर चलन में नहीं होते थे। लेकिन उन लफ़्ज़ों में कभी शरारत होती है तो कभी समन्दर की गहराई।
ग़ालिब फ़ारसी जुबान के उस्ताद थे। उनका मुक़ाबला हिन्दुस्तान और ईरान के शायर ख़ुसरो, नज़ीरी, फ़ैज़ी, बेदिल से किया जाता है। वो ख़ुद अपनी उर्दू शायरी को कुछ नहीं समझते थे। एक शेर में उन्होंने कहा भी कि अगर कई तरह के रंग देखना चाहते हो तो मेरे फ़ारसी शेर देखो, मेरी उर्दू शायरी को छोड़ो उसमें मुझे कोई रंग नहीं दिखता। ग़ालिब, ज़ौक, मोमिन और ज़फर ये चारों एक ही दौर के शायर थे, चारों बेहतरीन शायर लेकिन ग़ाबिल इनमें सबसे ज़ियादा मशहूर हुए। ग़ालिब और मोमिन दोनों फ़ारसी शायरी के मास्टर थे, दोनों की शायरी में फ़ारसी शब्दों और फ़ारसी मुहवारों की भरमार है, इसलिए दोनों ख़ुद को एक दूसरे से कमतर नहीं समझते थे, दोनों में एक होड़ रहती कि वे अपने शेरों में फ़ारसी के कितने शब्द और मुहावरे डालते हैं। इस चक्कर में उनकी शायरी बे-रूह हो गई। पहली नज़र में वो केवल फ़ारसी लफ़्जों के समूह होते थे बस, उनके माने निकालने की ज़हमत कोई नहीं करता था, चंद गिने-चुने फ़ारसी-दां लोग उस पर तब्सिरा करते वो भी इन फ़ारसी शायरों को नीचा दिखाने के लिए। ग़ालिब के शेरों पर खूब नुक्ताचीनी होती, एक-एक लफ्ज़ पर विवाद होता, एक बार की बात है, कलकत्ते में एक मुशयारा हुआ जिसमें बड़े नामचीन लोग जमा हुए, ग़ालिब ने एक शेर पढ़ा:
जुज़्व-ए-अज़ आलमम ओ अज़ हमा आलम बेशमहम
चू मूए कि बुताँ रा ज़ मियाँ बरख़ेज़द
फ़ारसी लफ़्ज़ों से लबरेज़ इस शेर पर ख़ूब बहस हुई, ये इतना मुश्किल शेर है कि मैं फ़ारसी लफ़्ज़ों का मतलब ढूंढ़ कर भी इस शेर को समझ नहीं पाया। इसलिए यहां इसका अर्थ नहीं समझा रहा, लेकिन ये प्रसंग बता रहा हूं ताकि आप समझें कि फ़ारसी की वजह से ग़ालिब को किस किस तरह की दुश्वारियां झेलनी पड़ीं। तारीख बताती है कि इस शेर पर कलकत्ते में जमकर विवाद हुआ। इस शेर पर आपत्ति करने वाले मौलवी अब्दुल कादिर रामपुरी, मौ. करम हुसैन विलायती जैसे तमाम उर्दू दां थे, बहस के दौरान उस ज़माने के मशहूर फ़ारसी दां, कतील के व्याकरण की मिसालें दी गईं लेकिन ग़ालिब जैसे शायर जो फ़ैज़ी जैसों को कुछ न समझता हो वो क़तील को क्या समझते। कहते हैं ग़ालिब ने तुनक कर कहा-‘कतील कौन? वही फ़रीदाबाद का खत्री बच्चा।। मैं उसे सनद क्यों मानने लगा?’ बस ग़ालिब का ये कहना था कि हंगामा बरपा हो गया।
(मिर्ज़ा ग़ालिब, रामनाथ सुमन पेज 55)
देखते-देखते ये बात मुल्क भर के शायरों में फैली, ग़ालिब के ख़िलाफ़ पूरा माहौल तैयार हो गया, कलकत्ता तो क़तील का भक्त था, चुनांचे ग़ालिब की शायरी में ढूंढ़ ढ़ूंढ़ के खामियां निकाली जाने लगीं। लोग राह चलते उन पर फिक़रे कसने लगे, ग़ालिब ने अपने किसी दोस्त को ख़त में लिखा ‘अगर ये लोग जगह पाते तो मेरी खाल उधेड़ डालते.’
ग़ालिब को भी लगा कहां फंस गए। कलकत्ते आए थे अपने मुक़दमे की पैरवी करने और बिला वजह के विवाद में फंस गए, सो अपनी ईरानी सज्जनता दिखाते हुए उन्होंने अपनी फ़ारसी मस्नवी ‘बादे मुख़ालिफ़’ में सफ़ाई पेश की, जिसमें उन्होंने लिखा-…ख़ुदा गवाह है मुझे एतराज़ से ख़ौफ नहीं, सिर्फ़ ये ख़याल गुज़रता है कि मैं चंद रोज़ के लिए यहां कलकत्ते आया, अगर आप लोगों को नाराज़ कर दूंगा तो आप ही बाद में कहेंगे कि दिल्ली से एक शोख चश्म और बेहया शख़्स आया था जिसने बुज़ुर्गों से बेकार झगड़ा किया, ख़ुदा न करे मैं अपने वतन की बदनामी का बायस हूं. पर मा’ज़रत-ख़्वाह हूं और दरख़्वास्त करता हूं कि आप ये वाकया भूल जाएं.’
तो ये थे ग़ालिब जो खुद कहते थे कि “हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे//कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए बयां और.’ हिन्दुस्तानी अदब में तीन अज़ीम साहित्यकार हुए, पहले संस्कृत के कालिदास जिन्हें ‘हिन्दुस्तान का शेक्सपियर’ कहा गया है, दूसरे अवधी के तुलसीदास जिन्होंने ‘रामचरित मानस’ लिखी जो दुनिया की 100 मक़बूल महाकाव्य/ महाग्रन्थ में 46वीं जगह पर है, और तीसरे उर्दू-फ़ारसी के मिर्ज़ा ग़ालिब जिन्हें ‘दबीर-उल-मुल्क’ और ‘नज़्म-उद-दौला’ का ख़िताब मिला और सारी दुनिया में उन्होंने उर्दू शायरी को एक नए आयाम तक पहुँचाया।
NEWSLETTER
Enter your email address to follow this blog and receive notification of new posts.