Jaun Elia

जौन तो एक धड़कता हुआ दमाग़ था!!

ये वो शमअ’ थी जिसको मालूम था कि लोग उसके बुझने का नज़्ज़ारा करना चाहते हैं। जौन एलिया ने कभी कोशिश भी नहीं की समाज की उस रस्म को निभाने की, जिसमें अपने ज़ख़्मों को छुपाया जाता है, उनकी सर-ए-आम नुमाइश नहीं की जाती। रोया तो बीच महफ़िल रो दिया। मातम किया तो ठहाकों के शोर में मातम की सदा गूंजी, ख़ून थूका तो इस मुहज़्ज़ब मआशरे के सफ़ेद उजले कपड़ों पर थूका, और ये सब ऐलानिया किया।

आज हिंदुस्तान पाकिस्तान में बहुत बड़ी तादाद ऐसों की है जो जौन के शैदाई हैं, उसकी शाइरी को किसी आसमानी सहीफ़े से कम नहीं मानते, उसकी तस्वीर, उसके पोस्टर, उसकी तर्ज़-ए-तकल्लुम की नक़्ल, उसकी तरह बाल बनाना, ये मर्तबा शायद ही किसी और शाइर को नसीब हुआ हो। ये सब जौन के उसी अंदाज़ का समरा है और जौन की ज़िन्दगी के नशेब-ओ-फ़राज़ से आगाह होने का नतीजा है।

जौन की शाइरी और उसकी ज़िन्दगी में तज़ाद (विरोधाभास) नहीं था, यही वो चीज़ थी जो उसे बाक़ी शो’रा से मुमताज़ करती थी:

जो गुज़ारी न जा सकी हमसे,
हमने वो ज़िन्दगी गुज़ारी है

ये शेर और इस जैसे बहुत से अश’आर अपनी क्राफ़्ट अपनी सादगी और अपने असर की वजह से तो नुमायाँ हैं ही, लेकिन अगर यही अश’आर जौन के बजाये किसी और ने कहे होते तो शायद कुछ कम तासीर रखते।

सुख़न की शमअ’ को जौन की ज़िन्दगी की शक्ल में इज़हार का वो आइना-ख़ाना नसीब हुआ जिसकी मिसाल दूर तक नज़र नहीं आती, हर शेर उनकी ज़िन्दगी और ज़िन्दगी के कर्ब का ऐसा अक्कास और तर्जुमान बना कि ऐसा महसूस होता है जैसे किसी अफ़्साने के अलग अलग बाब आपके सामने पेश किये जा रहे हों।

दरख़्त-ए-ज़र्द जैसी शाहकार नज़्म को भी जब जौन की ज़िन्दगी के कॉन्टेक्स्ट में पढ़ा जाता है तो क़ारी (पाठक) इस ज़हर-आगीं क़लम की तेज़ी से खुद को महफ़ूज़ नहीं रख पाता। आलमी अदब, मज़हब, फ़लसफ़ा, फ़ारसी तहज़ीब ओ तमद्दुन,नफ़्सियात, अरबी शाइरी, हिंदुस्तानी सक़ाफ़त और तारीख़ जैसे तमाम इलाक़े इस एक नज़्म में जमा होने के बावजूद और जौन के इल्मी मर्तबे का मज़हर होने के बावजूद जब क़ारी ये मलहूज़ रख कर पढ़ता है कि एक बाप जो अपने बेटे के साथ अपनी ज़िन्दगी नहीं गुज़ार पाया, वो सोच रहा है कि अगर बेटा उसके साथ होता तो कैसे वो उसे लोरी सुनाता, क्या क्या बातें बताता, अपना इल्म, अपनी शनाख़्त, अपनी विरासत कैसे सीना-दर-सीना मुन्तक़िल करता, कैसे उसे अपनी पीठ पे बिठाता और कैसे उसकी तरबियत करता, ये तमाम बातें इस आलिमाना नज़्म में एक सोज़ जगा देती हैं और क़ारी अपने जज़्बात पर क़ाबू रखने से क़ासिर रहता है।

वही आलिम जो ज़माने भर का इल्म अपने बेटे तक पहुँचाने की हसरत लिए हुए है, अचानक एक मजबूर बाप बन जाता है:

तुम अपनी माम के बेहद मुरादी मन्नतों वाले
मिरे कुछ भी नहीं,,,कुछ भी नहीं,,,कुछ भी नहीं बाले!
मगर पहले कभी तुमसे मिरा कुछ सिलसिला तो था
गुमाँ में मेरे शायद इक कोई ग़ुँचा खिला तो था
वो मेरी जाविदाना बे-दुई का इक सिला तो था
सो उसको एक “अब्बू” नाम का घोड़ा मिला तो था

यही नज़्म है जिसमे कहीं जौन लोरी गा रहा है, तो कहीं कहता है “लदू लिल मौती वबनु लिल ख़राबी सुन ख़राबाती” ( पैदा हो मरने के लिए और तामीर करो ख़राबी के लिए) ये ग़ालिबन हदीस का टुकड़ा है और शायद नहजुल-बलाग़ा में भी है जिसे बाद में अरबी के अज़ीम शाइर अबू इताहिया और मौलाना जामी ने भी शेर में नज़्म किया है।
कहीं कहता है:

अला या अय्युहल अबजद ज़रा यानी ज़रा ठहरो,
There is an absurd I in absurdity शायद
कहीं अपने सिवा यानी कहीं अपने सिवा ठहरो
तुम इस अब्सर्डिटी में इक रदीफ़ एक क़ाफ़िया ठहरो

यानी लफ़्ज़ की दुनिया बेमानी है, हर लफ़्ज़ अब्सर्ड है, इस अब्सर्ड दुनिया में जहाँ किसी चीज़ के वुजूद की कोई वजह नहीं तुम एक रदीफ़ और क़ाफ़िये की तरह हो जाओ जिसकी कुछ और ग़रज़ नहीं सिवाए नग़मगी के, और हुस्न के।

वो ज़बान ओ कलाम का आख़री पैग़म्बर जो अबू इताहिया से मुराक़बा करता था , जो नीत्शे और कांट से बातें करता था, जिसकी बकवास एक अक़ानीमी बदायत थी, जो सिर्र-ए-तूर था, जो ऐसा कलीम था जिसमें हारुन और मूसा यकजा थे, जो बुद्ध को जानता था, जो अफ़लातून का यार था, जो फ़िरदौसी का दोस्त भी था और उसका नक़्क़ाद भी, जो शेक्सपियर का महरम-ए-राज़ था… वो अचानक बच्चा सा बन कर आपके सामने आ जाता है… एक ऐसा बच्चा जो अपने बेटे की गोद को तरस रहा है।

कहीं “सफ़र के वक़्त” नज़्म में वो अपनी याद के सफ़र में अपने क़ारी को शामिल-ए-हाल कर लेता है, कहीं वो “शायद” के दीबाचे में अपने बाप को जब ये कहता है कि “बाबा मैं बड़ा न हो सका” तो उसका क़ारी भी उसके साथ उस एहसास-ए-नदामत से भर जाता है जो जौन की शख़्सियत का एक अहम उन्सुर बना।

समाज के परवरदा झूठ, फ़र्ज़ी शर्म-ओ-हया, नक़ली तहज़ीब को अपने जूते की नोक पर रखने वाला वो दरवेश जिसने कभी कोई लॉबी न बनाई न किसी धड़े में शामिल हुआ, आज ख़ुद एक मज़हब बन गया है। उसको सवाल के दायरे से मुस्तस्ना (अलग) माना जा रहा है, जिसने हर शय पर सवाल उठाया जिसने हर इस्टेब्लिश्ड यक़ीन को अलग ज़ाविये से देखने की हिम्मत की जो अहरमन को ऐसा बा-उसूल बताता था कि जो इंकार-ए-सजदा के बाद ये जानते हुए भी कि नतीजा क्या रहेगा अपने इंकार पर डटा रहा।

इंकार है तो क़ीमत-ए-इंकार कुछ भी हो
यज़दाँ से पूछना ये अदा अहरमन में थी

हासिल-ए-कुन है ये जहान ए ख़राब
यही मुम्किन था इतनी उजलत मे

जौन ने कभी झूठी तहज़ीब और अख़लाक़ियात का ढोंग नहीं किया, उसने खुद को भी बेवफ़ा क़रार दिया और कटघरे में खड़ा किया।अपने किज़्ब-ऒ-इफ़्तिरा पर ख़ुद अपने आप को कोसा, अपने झूठे क़ौल को ख़ुद दोहराया मलामत की ग़रज़ से।

“जान तुम्हीं मेरा सब कुछ हो, जी नहीं सकता मैं तुम बिन
लम्हों की पैकार है जिनमें बस हूँ सिसकता मैं तुम बिन
सुनते हो!! वो जान तुम्हारी बस अब घर तक ज़िंदा है
घर क्या वो उठ भी नहीं सकती बस बिस्तर तक ज़िंदा है

जौन के कलाम में जहाँ अहल-ए-दिल के लिए सहूलत-ए-आह-ओ-ज़ारी है तो वहीं अहल-ए-नज़र के लिए भी बहुत इंतज़ाम है।

अहक़र के दो शेर उस जाम-ए-जौन की नज़्र जिसने कभी ज़ेहन के जाले खोले तो कभी एक ही जुमले या एक ही मिसरे से ख़ून रोने पे मजबूर किया:

बहकना चाहो तो बहको, संभलना चाहो तो सम्भलो
मैं अपने मैकदे में हर तरह का जाम रखता हूँ

अजमल सिद्दीक़ी

उसके नुक्ते भी सुनो, दुःख भी निहारो उसके
अहल-ए-दिल तुम भी चलो अहल-ए-नज़र तुम भी चलो

अजमल सिद्दीक़ी

इसमें कोई शुब्हा नहीं कि जौन ने उर्दू शायरी के ख़ज़ाने में जो गराँ-क़द्र इज़ाफ़ा किया है कहीं और उसकी मिसाल शाज़ ही मिलती है बल्कि ना-पैद ही है। फ़लसफ़ा, नफ़्सियात, आलमी अदब, इंसानी फ़ितरत को जिस बेबाक अंदाज़ में और जिस ईमानदारी से जॉन ने नज़्म किया है वो जॉन का ही ख़ास्सा है और ये सब उर्दू शाइरी की रिवायात में रहते हुए ही किया है। जब वो ऐसी नफ़्सियाती कैफियत की बात करता है जहाँ इंसान हर चीज़ के वुजूद पर मुतशक्किक (doubtful) है तब भी वो उर्दू शाइरी की इस्तेलाहात से बाहर नहीं निकलता और इसी सिफ़ाल-ए-हिंदी में भर भर कर हमें दुनिया जहाँ की मय मुहैय्या करवाता है।

नहीं जो महमिल-ए-लैला-ए-आरज़ू सर-ए-राह
तो अब फ़ज़ा में फ़ज़ा के सिवा कुछ और नहीं
नहीं जो मौज-ए-सबा में कोई शमीम-ए-पयाम
तो अब सबा में सबा के सिवा कुछ और नहीं

या इसी नज़्म में एक जगह कहता है:

“तुम्हारे रंग महकते हैं ख़्वाब में जब भी
तो उनको ख़्वाब में भी ख़्वाब ही समझते हैं”

यानी एक नफ़्सियाती कैफ़ियत जिसे एक साइकोलॉजिकल मरज़ भी कहा जा सकता है जिसमे इंसान को हर चीज़ के वुजूद पर शक होता है उसको बयान किया तो वही आशिक़,माशूक़, सबा, रंग, ख़ुशबू जैसी शाइरी की इस्तेलाहात के ज़रिये।

यही वो सिफ़ाल-ए-हिंदी है जो जौन को इंफ़िरादियत के बावजूद बाक़ियों में ज़म कर देती है या शायद इन्ज़िमाम के बावजूद इंफ़िरादियत अता करती है।

हाँ, कहीं कहीं जौन ने तय-शुदा राहों से हट कर अलग सबील ओ तरीक़ की बुनियाद रखी ,जहाँ ज़रूरी लगा वहां ख़ूब रिआयतें लीं। जौन के यहाँ जहाँ मुश्किल मज़ामीन और फ़ारसी और अरबी ज़बान का खूब असर मिलता है तो वहीं उनके बेश्तर अश’आर इतने सादा हैं कि ज़बान-ज़द ए ख़ास-ओ-आम हो गए हैं। फिर उस पर जौन का अंदाज़ और उनकी ज़िन्दगी, ये वो सबब रहे जिन्होंने जौन को अवाम में ऐसी शोहरत-ए-दवाम बख़्शी कि आज शायद जौन से ज़ियादा मशहूर उनका कोई हम-अस्र नहीं है।

लेकिन जहाँ जौन अवाम में एक हीरो बना, वहीं नुक़सान ये हुआ के जौन के चाहने वालों ने उन को एक मज़हब बना लिया और बाक़ी सबको रद्द कर दिया। जौन की हर बात हर्फ़-ए-आख़िर हो गयी। अदीबों और नक़्क़ादों को शायद इस वजह से जौन खलने लगा कि उन पर तनक़ीद करना ऐसा समझा जाने लगा जैसे पाकिस्तान में ब्लासफ़ेमी। जौन से इश्क़ का तक़ाज़ा तो ये था के उन पर तनक़ीद का जवाब दलाइल से दिया जाता, कि इल्म ही तो जौन की विरासत था! लेकिन हुआ इसके बर-अक़्स।

जौन ने खूब लिबर्टीज़ लीं लेकिन बहुत से मद्दाहों की नज़र में जौन की ज़बान और जौन की शाइरी हर क़िस्म के ऐब या गुंजाइश-ए-तनक़ीद से मावरा है, किसी से सुन लिया कि जौन ने फलां चीज़ के बारे में ये फ़रमाया था तो बिना चूँ चरा के उसे तस्लीम कर लिया।

मुझे याद है एक मर्तबा किसी ने कहा था कि जौन का कौल है मोहब्बत की जमा मोहब्बतें इस्तेमाल करना जाइज़ नहीं। अब उन साहिब को इससे कोई मतलब नहीं था कि जौन ने ऐसा क्यों कहा, किस सिलसिले में कहा, उन्हें बस एक कुल्लिया मिल गया कि कहीं भी ‘मोहब्बतें’ लिखा देखेंगे तो फ़ौरन बोलेंगे कि मोहब्बत गिनी नहीं जा सकती तो इसकी जमा भी नहीं हो सकती!

काश! ग़ौर करने की सलाहियत होती और जौन-परस्ती का हक़ अदा करते जो ग़ौर-ओ-फ़िक्र है तो पाते के ख़ुद जौन का शेर है:

दासताँ ख़त्म होने वाली है
तुम मेरी आख़री मोहब्बत हो

जौन ख़ुद मोहब्बत को आख़री कहता है तो ज़ाहिर है कि पहली और दूसरी भी रही होगी तो जमा क्यों नहीं हो सकती? मज़ीद ग़ौर करते तो पाते कि मोहब्बत, नफ़रत, ग़म, ख़ुशी ये तमाम जज़्बे हैं जिनकी जमा वाक़ई नहीं आ सकती, लेकिन कभी कभी इन अलफ़ाज़ का इतलाक़ इन जज़्बों के अलावा भी होता है, इनकी ज़ाहिरी सूरत या इनके सबब या इनकी ग़रज़ के लिए भी होता है, मसलन, महबूबा को ये कहना कि “मुझे तुमसे मोहब्बतें हैं” ये ग़लत है, लेकिन ये कहना कि “मेरी तमाम महब्बतों में तुम्हारा अलग मक़ाम है” ये दुरुस्त है क्यूंकि यहाँ मोहब्बत से मुराद वो जज़्बा नहीं है बल्कि जिसके लिए दिल में मोहब्बत है वो शख़्स माना-ए-मुरादी है। ऐसे ही ये कहना कि “एक दिन में कितनी ख़ुशियाँ मिलीं” सही है… कि यहाँ भी ख़ुशी का लफ़्ज़ उस जज़्बे के लिए नहीं है बल्कि जो चीज़ ख़ुशी का सबब बने उसके लिए इस्तेमाल हुआ है।

जौन ने ग़लत-उल-अवाम से भी परहेज़ नहीं किया, कहीं कहा “उस हिंदनी ने ऐसी जफ़ायें करीं कि बस” जबकि “करना” मसदर के माज़ी मुतलक़ में ‘काफ़’ के बाद ‘रे’ नहीं आती (सहीह लफ़्ज़ “कीं” होता)। कहीं ना-कामयाबियाँ लफ़्ज़ इस्तेमाल किया जबकि सहीह नाकामी है। पोएटिक लिबर्टी कोई अनोखी चीज़ नहीं है, मस’अला तब होता है जब या तो न जानने वाले अपने हर ऐब को पोएटिक लिबर्टी के नक़ाब में लपेटना चाहते हैं या फिर जौन या किसी और शाइर के परस्तार ये मानने को तैयार नहीं होते कि जौन ने जो लफ़्ज़ इस्तेमाल किया है वो फ़सीह नहीं है। यहाँ ये होना चाहिए कि समझा जाए कि ज़रुरत-ए-शेअरी की बिना पर कितनी और कैसी रिआयात ली जा सकती है। जौन ही नहीं मोमिन जैसे उस्ताद शाइर ने भी ना-कामयाबी लफ़्ज़ बाँधा है और दोनों ने क़ाफ़िये में बाँधा है यानी जहाँ मजबूरी थी कि नाकामी लाया ही नहीं जा सकता वहाँ ये लिबर्टी ली।

वहीं एक गिरोह वो है जो सिर्फ़ बुग़्ज़ की बिना पर जौन को रद्द कर देता है, जो उसको पढ़े बिना और समझे बिना ही उसके मुताल्लिक़ राय क़ाइम करता है।

जौन का बहुत सा कलाम ऐसा है जहाँ जौन को अपने क़ारी से बहुत उम्मीद है, जौन अपने क़ारी का फ़हम बहुत बुलंद चाहता है, वो तवक़्क़ो करता है कि उस के पढ़ने वाले ने ख़ूब मुताला किया हो, लेकिन अफ़सोस उसकी शख़्सियत और उसकी ज़िन्दगी ने जहाँ जौन को शोहरत दी वहीं बहुत सों को दूर भी कर दिया।

कोई दलाइल के साथ जौन को रिजेक्ट करे तो क्या ही अच्छा होगा लेकिन कोई उसके अश’आर में मौजूद फ़लसफ़ेे, फ़ारसी और अरबी रिवायतों के हवालों से यकसर ना-आशना हो और फिर वो बेशर्मी से जौन को रद्द करे तो क्या किया जाए? वर्ना कोई जौन को दलाइल से रद्द भी कर दे तो ये भी जौन की जीत होगी कि जौन सरापा दलील था, सरापा इल्म… या तस्नीफ़ हैदर भाई के अल्फ़ाज़ में कहूँ तो “इक धड़कता दमाग़ !!!”

इल्म की कोई ज़ात नहीं होती, जौन की ज़ात हार भी गयी तो जौन की विरासत जीतेगी। जौन की इल्मी सलाहियत की इससे बड़ी दलील क्या होगी कि कई मज़हबी उलेमा इस चीज़ की परवा किये बग़ैर कि लोगों के दरमियान उनकी इमेज पर क्या फ़र्क़ पड़ेगा जब अवाम ये देखेंगे कि हमारे मौलाना एक “शराबी” और “दहरिये” की मजलिस में बैठते हैं, न सिर्फ़ जौन की सोहबत से मुस्तफ़ीज़ होते थे बल्कि फ़ख़्र भी करते थे। सलाम उन पर!!! कि वो इल्म के तालिब थे… जिन्हे उस रिन्द की “यावा-गोइयाँ” ही वो दर्स दे देती थीं जो कहीं और नहीं मिल सकता था।

हम जो बातें जुनूँ में बकते हैं
देखना जाविदानियाँ होंगी

जौन तो आज भी उस मुतशक्किक क़ारी की तलाश में है जो उसके हर हर्फ़ पर ऊँगली उठाये, जो जौन पर सवाल उठाये, जौन को समझे, जौन की पूजा न करे। और अगर पूजा करे तो जौन के मज़हब के तरीक़े पर पूजा हो, जहाँ किसी का भी रद्द लिखना रवा हो, कोई ज़ात इख़्तेलाफ़ और तनक़ीद से मावरा न हो। ये है वो मिसाली क़ारी और वो मिसाली माअशरा जो ऐसे क़ारी की तरबियत और परवरिश करे। बक़ौल जौन “आओ कि इख़्तेलाफ़-ए-राय पे इत्तेफ़ाक़ करें”

यही कुंजी है उस जौन के मआशरे की, वर्ना वो मआशरा जो जौन की परस्तिश में जौनियत से ही मुन्हरिफ़ है, या वो क़ारी जो जौन के ख़िलाफ़ एक लफ़्ज़ बर्दाश्त नहीं कर पाता उससे बड़ा संग-ए-गराँ कौन होगा जो उसकी मिसाली दुनिया की राह में हाइल है? अलमिया ये है कि ये सब जौन की शख़्सियत से मुतास्सिर होने के सबब हो रहा है और उसकी महब्बत के नाम पर हो रहा हैै, हत्ता के जौन के अहल-ए-ख़ाना को भी हदफ़ बनाया जाता रहा है जौन से इश्क़ के नाम पर।

इश्क़ करो… लेकिन अंदाज़ वो हो जो महबूब चाहता है, जिस रंग में वो अपने आशिक़ को देखना चाहता है उसी रंग में सजो।

जौन ही तो है जौन के दरपय
मीर को मीर ही से ख़तरा है