तीन उर्दू शायर और उनकी पंजाबी ग़ज़लें
पंजाब हमेशा से तहज़ीबी नुक़्ता-ए-नज़र से हिन्दोस्तान का एक मालामाल ख़ित्ता रहा है। लोकगीत, लोक-कहानी और लोक-नाच की बेहद ज़िंदा-ओ-ताबिंदा रवायत पंजाब में मौजूद रही है। इस बात की तस्दीक़ पंजाबी अदब का अहाता करने से भी हो जाती है। ग़ज़ल हिन्दोस्तान की दीगर ज़बानों में कही जा रही है, लेकिन पंजाबी ग़ज़ल उर्दू ग़ज़ल के क़रीब-तरीन है। ये क़ुरबत इस दर्जा है कि पंजाबी के मुमताज़ शायरों के फ़ेहरिस्त में जो लोग हैं, उन नामों से उर्दू के क़ारी भी ना-शनास नहीं। हबीब जालिब, ज़फ़र इक़बाल, मुनीर नियाज़ी जैसे मोतबर शायर इसकी चंद मिसालें हैं। चंद और बातें क़ाबिल-ए-ग़ौर हैं। अव्वल तो ये कि पंजाबी ग़ज़ल भी उन्हीं बहरों में कही जाती है जो उर्दू में राइज हैं, साथ ही पंजाबी पर फ़ारसी ज़बान का असर भी साफ़ दिखाई देता है। पंजाबी में चंद फ़ारसी अल्फ़ाज़ ऐसे भी इस्तेमाल होते हैं जिनका इस्तिमाल उर्दू में इतना आम नहीं है। मिसाल के तौर पे 50 को उर्दू में ‘पचास’ बोला जाता है और फ़ारसी में ‘पंजाह’ का लफ़्ज़ राइज है। यही लफ़्ज़ (पंजाह) पंजाबी में राइज है।
दूसरी बात ये कि अल्फ़ाज़ का वज़्न उर्दू ग़ज़ल ही की तरह उनके तलफ़्फ़ुज़ पर मुनहसिर होता है। लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि अल्फ़ाज़ का वज़्न वही बाँधा जाता है जो कि उर्दू में। दिलचस्प बात ये है कि ‘ग़ज़ल’ लफ़्ज़ को पंजाबी में फ़’अल (12) की जगह फ़ेल (21) के वज़्न पर बाँधा जाता है। यानी इसका तलफ़्फ़ुज़ ‘ग़ज़ल’ न हो कर ‘ग़ज़्ल’ होता है। हालाँकि ग़ज़ल लफ़्ज़ को फ़’अल पर बाँधने को ले कर सब मुत्तफ़िक़ नहीं हैं। इसकी एक मिसाल देखें :
होया मैं हाज़िर जदों कल रूप दे दरबार विच
हुक्म मिलेआ ग़ज़्ल आखो, जाँ लिखाई छड्ड दिओ
तर्जुमा :
कल जो मैं दाख़िल हुआ था हुस्न के दरबार में
हुक्म आया कि ग़ज़ल कह लो या लिखना छोड़ दो
पेश-गुफ़्त को मुख़्तसर रखते हुए अशआर का रुख़ करते हैं।
मुनीर नियाज़ी
इस फ़ेहरिस्त में पहला नाम मुनीर नियाज़ी का है। मुनीर नियाज़ी के नाम से उर्दू शायरी के तमाम चाहने वाले शनासा हैं और बे-पनाह मुहब्बत करते हैं। ‘किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते’ जैसी मशहूर-ए-ज़माना ग़ज़लें भी ग़ालिबन उन्होंने पंजाबी में कहने के बाद उर्दू में तर्जुमा की हैं।
मुनीर नियाज़ी के चंद नुमाइंदा पंजाबी अशआर यूँ हैं :
बे-ख़याल हस्ती नूँ कम्म दा ध्यान ला दित्ता
हिज्र दी उदासी ने शाम नूँ सजा दित्ता
देर बाद मिलेया ओह, होर इक ज़माने विच,
मैं ए’ ख़्वाब मुद्दत दा जाग के गवा दित्ता
कुझ शहर दे लोक वी ज़ालिम सन
कुझ सानूँ मरन दा शौक़ वी सी
तर्जुमा :
बे-ख़याल हस्ती को काम का ध्यान ला दिया,
हिज्र की उदासी ने शाम को सजा दिया
देर बाद मिला वो, और इक ज़माने में,
मैंने ये ख़्वाब मुद्दत का जाग के गँवा दिया
कुछ शहर के लोग भी ज़ालिम हैं
कुछ मरने का शौक़ हमें भी था
पंजाबी ग़ज़ल :
दिल नूँ अपणी हस्ती दा चारागर बणा लैंदे
मैं ते ओह जे मिल जांदे, इक नगर बणा लैंदे
दर-बदर न मैं फिरदा, दर-बदर न ओह हुंदा
इक जगह ते मिलके जे, अपणा दर बणा लैंदे
तर्जुमा :
दिल को अपनी हस्ती का चारागर बना लेते
मैं और वो जो मिल जाते, इक नगर बना लेते
दर-बदर न मैं होता, दर-बदर न वो होता
इक जगह पे मिल के जो, अपना दर बना लेते
ज़फ़र इक़बाल
इस फ़ेहरिस्त में दूसरा नाम यक़ीनन ज़फ़र इक़बाल का है। उन्होंने जिस तरह उर्दू शायरी में एक नई तर्ज़ इख़्तियार की, उसी तरह उनकी पंजाबी ग़ज़लें भी अपनी तरह की इकलौती हैं। उनका पंजाबी ज़बान का कुल्लियात भी शाया हो चुका है।
ज़फ़र इक़बाल के चंद बेहतरीन पंजाबी शेर यूँ हैं :
कालख सारी रात दी, अक्खाँ विच परो के
वेखाँ चड़दे चन्न नूँ, शहरों बाहर खलो के
चारे पासे रह गया, मैला पाणी हड़ दा
हस्साँ किस दे साहवे, दस्साँ किस नूँ रो के
मुंसफ़, चोर वी हो सकदा ऐ
उल्टा शोर वी हो सकदा ऐ
तर्जुमा :
रात की कालिख सारी, आँखों ही में पिरो के
मैं देखूँ चढ़ते चाँद को, शहर से बाहर हो के
चारों तरफ़ रह गया, बस बाढ़ का मैला पानी
अब हँसूँ तो किसके सामने, किसे बताऊँ रो के
मुंसिफ़ चोर भी हो सकता है
उल्टा शोर भी हो सकता है
पंजाबी ग़ज़ल :
दुक्ख दी अक्ख विच्च अक्ख ते पाओ
दुक्ख कमज़ोर वी हो सकदा ऐ
ज़फ़रा! जज़्बे मर जावण ते
सीना गोर वी हो सकदा ऐ
ए’ शाम घर गुज़ार लै, उस ने केहा वी सी
अग्गे दुखाँ दी रात ऐ, मैं नूँ पता वी सी
तर्जुमा :
दुःख की आँख में आँख तो डालो
दुःख कमज़ोर भी हो सकता है
ज़फ़र! यह जज़्बे मर जाएँ तो
सीना गोर भी हो सकता है
ये शाम घर गुज़ार ले, उसने कहा भी था
आगे दुखों की रात है, मुझको पता भी था
हबीब जालिब
इस फ़ेहरिस्त में तीसरा नाम हबीब जालिब का है। हबीब जालिब ने उर्दू अदब में एहतिजाज की शायरी को एक नई बुलंदी तक पहुँचाने में एक अहम किरदार अदा किया। उनकी नज़्मों को आज भी जुलूसों में आम लोग गाते हैं।
हबीब जालिब के चंद नुमाइंदा अशआर यूँ हैं :
जालिब साईं कदी कदाईं चंगी गल्ल कह जांदा ऐ
लक्ख पूजो चड़दे सूरज नूँ, आख़िर ए’ लह जांदा ऐ
बाझ तेरे ओह दिल दे साथी, दिल दी हालत की दस्साँ
कदी कदी ए’ थक्केया राही रस्ते विच बह जांदा ऐ
तर्जुमा :
जालिब साईं कभी कभी तो बात खरी कह जाता है
लाख परस्तिश चढ़ते सूरज की कर लो, ढह जाता है
बिन तेरे ओ दिल के साथी, क्या बतलाऊँ हाल-ए-दिल
कभी कभी यह थका मुसाफ़िर, राह बैठ रह जाता है
पंजाबी ग़ज़ल :
याद आइयाँ कुझ होर वी तेरे शहर दियाँ बरसाताँ
होर वी चमके दाग़ दिलाँ दे नाल अश्काँ दे धुल के
अपणी गल्ल न छड्डीं ‘जालिब’ शायर कुझ वी आखण
अपणी रंगत खो देंदे ने, रंग रंगाँ विच घुल के
तर्जुमा :
याद आई कुछ और भी तेरे शहर की बरसातों की
और भी चमके दाग़ दिलों के अश्कों के संग धुल के
अपनी बात छोड़ना मत ‘जालिब’ शायर कुछ भी कह लें
अपनी रंगत खो देते हैं रंग रंगों में घुल के
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