उर्दू इमला और हम्ज़ा का इस्तेमाल

उर्दू पढ़ने लिखने वालों को या पढ़ना लिखना सिखाने वालों को अगर सबसे ज़ियादः कोई हर्फ़ परेशान कर सकता है तो वो हम्ज़ा है। अव्वल तो इस पर बहसें हैं कि इसे हर्फ़ माना भी जाए या नहीं कि इसकी दूसरे हुरूफ़ की तरह अपनी कोई आवाज़ नहीं है। डॉक्टर गोपी चंद नारंग ने हम्ज़ा के हवाले से कहा है कि हम्ज़ा अलामत ए बे सौत सही मगर ये अलामत ए बे मसरफ़ नहीं है,अरबी तो छोड़िए बाज़ उर्दू/ हिंदी अल्फाज़ बग़ैर इसके नहीं लिखे जा सकते।हम इस पर आगे आएँगे मगर पहले ये देख लेते हैं कि हम्ज़ा का इस्ते’माल उर्दू में कहाँ होना चाहिए, इसके इस्ते’माल का क़ाइदा क्या है और किन अल्फ़ाज़ में इसका इस्ते’माल सिरे से ग़लत हो रहा है। साथ ही लफ़्ज़ “हुआ” पर बात करेंगे जिस पर हमारे बड़ों ने बड़ी बहसें की हैं। हम्ज़ा इज़ाफ़त में भी आता है। इज़ाफ़त में कहाँ आता है,इसको देखने से पहले जहाँ इज़ाफ़त नहीं है, या’नी आम बोल चाल में इस्ते’माल होने वाले तमाम अल्फ़ाज़ साथ ही कुछ अरबी अल्फ़ाज़ जो बहुत ज़ियादः मुस्तामल हैं उर्दू में, उनमें हम्ज़ा की मौजूदगी की निशानदही करेंगे, उनका इस्ते’माल समझेंगे और फिर आगे बढ़ेंगे। क़ायदा ये है कि जहाँ दो वॉवेल या’नी स्वर इकट्ठा हो रहे हों, वहाँ दूसरे स्वर के ऊपर हम्ज़ा आता है। इसे समझने के लिये पहले तो हमें उर्दू में स्वर (हुरूफ़ ए इल्लत) और व्यंजन (हुरूफ़ ए सहीह) को समझना होगा।

ज़ियादः परेशान न हों, हम केवल हुरूफ़ ए इल्लत समझ लेंगे, हमें हम्ज़ा के बाब में काम भी उन्हीं से है (लेकिन व्यंजन को पूरी तरह नज़रअंदाज़ नहीं करना है) जो बचे रहेंगे वो व्यंजन होंगे। आप अलिफ़, (अ) अलिफ़ मम्दूदा या’नी अलिफ़ जिस पर मद हो (आ)इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ,औ, पर ध्यान दीजिए। इनमें से तीन ज़ेर,ज़बर और पेश से बनने वाले हैं या’नी इ, उ और किसी भी हर्फ़ में छुपा हुआ अलिफ़ या’नी ज़बर जिसके बग़ैर कोई भी आज़ाद हर्फ़ साकिन होगा। ध्यान ये देना है कि इनमें से कोई भी दो स्वर अगर एक साथ किसी लफ़्ज़ में इकठ्ठा हो जाएँ तो हमें हम्ज़ा लगाना है। मगर ठहरिए, बात इतनी सीधी साफ़ है नहीं, हमें तमाम मिसालें देखना होंगी इसे क़ायदे से समझने के लिए। एक बात तो ये ज़हन में बैठा लेनी है कि अगर किसी स्वर से पहले ज़बर और पेश में से कुछ है तो स्वर पर हम्ज़ा आएगा, वहीं अगर ज़ेर है स्वर से पहले तो वहाँ ‘ये’ आएगी , हम्ज़ा नहीं आएगा। हम ये तमाम बातें मिसालों से गुज़र कर ही समझ सकते हैं। आइए एक क्रिया लेते हैं, आना। इसकी तमाम शक्लें मुम्किन हैं या’नी आना ही से आए, आएँ, आइए, आओ। इन तीनों को लिखते वक़्त हम्ज़ा का इस्ते’माल होगा। ‘आएँ’ में हम देखते हैं कि अलिफ़ और बड़ी ये इकठ्ठा हो रहे हैं, नून ए ग़ुन्ना आख़िर में हैं, हम्ज़ा आएगा ही क्योंकि उसे तो दो स्वरों के इकट्ठा होने पर आना ही है। आए में भी बिल्कुल वही बात है।अब देखिए ‘आइए’ में क्या हो रहा है। آئیے यहाँ आप देख सकते हैं कि अलिफ़ + अलिफ़ (जिसके नीचे ज़ेर है जो स्वर छोटी इ की आवाज़ दे रहा है।) और बड़ी ये है। ध्यान से देखिए क्या दो स्वर इकट्ठा दिख रहे हैं आपको?? या’नी इ और ए?? है न?? जी, यहाँ हम्ज़ा आएगा। डॉक्टर अब्दुस्सत्तार सिद्दीक़ी मर्हूम का ये कहना कि “उर्दू में हम्ज़ा अलिफ़ का क़ायम मक़ाम है।” दुरुस्त है। ‘आइए’ जैसे लफ़्ज़ में आ के बाद जो शोशा है, जिस पर हम्ज़ा रक्खा गया है, ध्यान से देखिए तो अलिफ़ ही की जगह है, वो अलिफ़ जिसके नीचे ज़ेर आता और स्वर छोटी इ की आवाज़ देता। वो तो शुक्र है कि हम्ज़ा है हमारे पास वर्ना इसे कैसे लिखते हम! अलिफ़ मद और फिर अलिफ़ ज़ेर फिर बड़ी ये?? सोचना भी अजीब है इसे।

इस मुश्किल का हल हम्ज़ा है। इस लफ़्ज़ ‘आइए’ को ध्यान में रखिए और सोचिए क्या लिए, किए, दिए जैसे अल्फ़ाज़ या लीजिए, कीजिए, दीजिए में हम्ज़ा आना चाहिए?? जी..बिल्कुल नहीं। माना कि लिए या किए में लाम और काफ़ के नीचे ज़ेर है और आइए, जाइए में भी अलिफ़ के नीचे ज़ेर था मगर वहाँ अलिफ़ के नीचे ज़ेर आ कर छोटी इ की आवाज़ दे रहा था जो एक स्वर है,यहाँ लफ़्ज़ लिए या किए में लाम और काफ़ के नीचे ज़ेर तो है मगर उसका होना लाम और काफ़ को स्वर में नहीं बदल सकता या’नी ‘इ’ की तरह लिए का ‘लि’ या किए का ‘कि’ स्वर नहीं हो सकते। ज़ाहिर है,यहाँ हम्ज़ा नहीं सकता।

ये भी देख लीजिए साथ ही कि आना का भूत काल या’नी माज़ी लफ़्ज़ ‘आया’ है। इस पर हम्ज़ा नहीं आएगा। जानते हैं क्यों? क्योंकि यहाँ जो छोटी ये है, वो व्यंजन है,’य’ की आवाज़ देता हुआ। इ, ई, ए, ऐ से इसका कोई लेना देना नहीं। ध्यान रहे कि वाव भी ऐसा ही हर्फ़ है।ओ, औ, ऊ जैसे स्वरों के अलावा इसका इस्ते’माल वर्षा और वरूण जैसे अल्फ़ाज़ में व्यंजन की तरह भी होता है। हम्ज़ा के इस्ते’माल के लिए इन दोनों को तभी अहल मानते हैं जब ये स्वर की तरह आएँ। आया, गया में इसीलिए हम्ज़ा नहीं है मगर आए, गए, नए, लखनऊ जैसे अल्फ़ाज़ में हम्ज़ा आएगा। याद कीजिए क़ायदा जो हम पहले देख चुके हैं। जी.. दो स्वर इकट्ठा हों या स्वर से पहले ज़बर या पेश में से कोई हरकत हो तो हम्ज़ा आएगा।ध्यान दीजिए कि ज़ेर इस क़ायदे से बाहर की शै है। गए, नए दोनों में बड़ी ये से ठीक पहले या’नी गाफ़ और नून पर ज़बर है,ठीक ऐसा ही लखनऊ में भी है कि स्वर ऊ के पहले हर्फ़ नून पर ज़बर है। ज़ाहिर है, हम्ज़ा आएगा। ये बात गाँठ बाँध लीजिए कि लिए, किए, जिए, दिए, दीजिए, कीजिए, पीजिए, चाहिए, इनमें से किसी में हम्ज़ा नहीं है। आइए, जाइए, आज़माइए, फ़रमाइए, रोइए इन सब में है। सबब आपको पता ही है।ठीक ऐसे ही आओ, जाओ, खाओ वग़ैरह में भी हम्ज़ा है कि दो स्वर साफ़ साफ़ इकट्ठा दिख रहे हैं इनमें।

याद रखिए और ख़ूब याद रखिए कि हम्ज़ा का इस्ते’माल तलफ़्फ़ुज़ पर निर्भर करता है।दिक़्क़त तब होती है जब तलफ़्फ़ुज़ को लेकर इख़्तेलाफ़ हो या हिन्दी से उर्दू सीखने वाला कोई शख़्स ये पाए कि हिन्दी में एक लफ़्ज़ जैसे लिखा जाता है,उसे ठीक ठीक उर्दू में कर दें तो हम्ज़ा न आना चाहिए मगर उर्दू वाले लगाते हैं। यहाँ भी घूम फिर कर बात तलफ़्फ़ुज़ पर आ ठहरती है। देखिए कैसे। फिर ये आपको ख़ुद सोचना और तै करना है कि जिन अल्फ़ाज़ का हम आगे ज़िक्र करने जा रहे हैं, हम्ज़ा उन पर आएगा या नहीं।

इन अल्फ़ाज़ को ध्यान से देखिए नाव, बनाव (बनाव सिंगार वाला), कढ़ाव, राय, चाय, गाय (दुधारू पशु, गाना गाए वाला गाए नहीं)इन सबका आख़िरी हर्फ़ व्यंजन है। या’नी नाव में वही व्यंजन वाला वाव है जो वर्षा और वरुण में है, बनाव और कढ़ाव में भी वही है। गाय और राय और चाय में वही छोटी ये है जो यमन में है। डॉक्टर अब्दुस्सत्तार सिद्दीक़ी “मक़ालात ए सिद्दीक़ी” में और रशीद अहमद ख़ान “इमला नामा”में साफ़ कहते हैं कि इन तमाम अल्फ़ाज़ में हम्ज़ा न आना चाहिए और मैं इन उलमा से इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ। बनाव सिंगार का “बनाव” और खाना बनाओ का “बनाओ” दोनों दो अलग चीज़ें हैं और उनका तलफ़्फ़ुज़ मेरे नज़दीक़ फ़र्क़ है। जब ‘ओ’ के साथ कुछ बनाओ के अर्थ में इस्ते’माल हो तो हम्ज़ा लगाना चाहिए मगर बनाव सिंगार वाले बनाव में हम्ज़ा क्या मा’नी?? यही फ़र्क़ गाय और गाए के तलफ़्फ़ुज़ में भी है। वो किताबें जो हिंदी भाषी लोगों को उर्दू सिखाती हैं, वो हिंदी में तो नाव लिखती हैं, उर्दू में वाव के ऊपर हम्ज़ा लगाती हैं कि उनका कहना है ये लफ़्ज़ उर्दू में यूँ ही चलन में है और उर्दू की हद तक गाओ और नाओ एक ही जैसा तलफ़्फ़ुज़ रखते हैं। ऐसा कहने वालों में डॉक्टर गोपी चंद नारंग भी हैं। उनके नज़दीक भी छाए और चाय एक ही जैसा तलफ़्फ़ुज़ रखते हैं और इन पर हम्ज़ा आना चाहिए। जहाँ तक मेरा सवाल है, न मैं न मेरा कोई साहिब ए ज़बान दोस्त चाय को बादल छाए में जो छाए है, उसके वज़्न पर बोलते हैं और मेरे नज़दीक ये बात बिल्कुल साफ़ है कि चाय में आख़िरी हर्फ़ य है न कि ए। सो मैं इस मुआमले में डॉक्टर नारंग की राय से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखता, डॉक्टर सिद्दीक़ी और रशीद हसन ख़ान बिल्कुल ठीक हैं यहॉं। इन तमाम अल्फ़ाज़ के आख़िर में व्यंजन की आवाज़ है, हम्ज़ा नहीं आना चाहिए।

अब देखते हैं इज़ाफ़त में हम्ज़ा के इस्ते’माल को। उर्दू में, जैसा कि हम जानते हैं, तीन तरह की इज़ाफ़तें इस्ते’माल होती हैं। एक जिसे हम इज़ाफ़त ए कसरा या ज़ेर की इज़ाफ़त कहते हैं, दूसरी हम्ज़ा की और तीसरी जहाँ बड़ी ये के साथ हम्ज़ा का इस्ते’माल होता है। पहली या’नी ज़ेर की इज़ाफ़त पर हमें यहाँ बात करने की ज़रूरत नहीं न वो ऐसी कोई दिक़्क़त वाली चीज़ है। बाक़ी दोनों इज़ाफ़तों में हम्ज़ा आता है, उन्हें हमें देखना है यहाँ। आपने देखा होगा कि उर्दू में छोटी हे अगर आख़िर में आती है तो वो भी स्वर (अर्ध स्वर)और व्यंजन दोनों तरह इस्ते’माल होती है। मिसाल के तौर पर लफ़्ज़ निगाह, राह वग़ैरह में तो ‘ह’ की आवाज़ एक व्यंजन की आवाज़ है मगर ख़तरा, जज़्बा जैसे अल्फ़ाज़ में आप पाएँगे कि आख़िर में जो आवाज़ है, वो तक़रीबन अलिफ़ मद आ जैसी है। है न?? इसीलिए यहाँ जो छोटी हे आयी है, इसे अर्ध स्वर मानते हैं और ऐसे अल्फ़ाज़ अगर आगे किसी लफ़्ज़ के साथ इज़ाफ़त में आएँ तो इन अल्फ़ाज़ के आख़िरी हर्फ़ के ऊपर हम्ज़ा आता है, जैसे ख़तरा ए जाँ या जज़्बा ए दिल में आएगा। जहाँ छोटी हे व्यंजन के तौर पर आएगी ,वहाँ ज़ेर ही की इज़ाफ़त आएगी, जो तमाम व्यंजनों के लिए आती है। जैसे निगाह ए यार में।निगाह के आख़िर में जो छोटी हे है,वो व्यंजन है, वहाँ कोई अलिफ़ या उसके आस पास की आवाज़ मौजूद नहीं, जैसी ख़तरा या जज़्बा में थी, ज़ाहिर है इसीलिए वो व्यंजन भी है और उसी के ऐतबार से ज़ेर की इज़ाफ़त आती है वहाँ। यहाँ तक तो ठीक है।

दिक़्क़त वहाँ होती है जहाँ कोई लफ़्ज़ अलिफ़ या उस वाव पर ख़त्म हो जो स्वर ऊ की आवाज़ देता है। जैसे लफ़्ज़ सज़ा और जादू को ले लीजिए। ऐसे अल्फ़ाज़ जब इज़ाफ़त में आते हैं तो इनके आगे बड़ी ये बढ़ाकर उस पर हम्ज़ा लगा दिया जाता है। डॉक्टर नारंग का कहना है कि ऐसी इज़ाफ़तों में दो स्वर इकट्ठा होते हैं,मिसाल के तौर पर सज़ा ए मौत में सज़ा का अलिफ़ और इज़ाफ़त ए की बड़ी ये। जादू ए हुस्न में जादू का ऊ, और इज़ाफ़त ए की बड़ी ये। अब जब दो स्वर इकट्ठा हो ही गए तो हम्ज़ा आएगा ही आएगा। हम्ज़ा के आने का जो क़ायदा हमने पढ़ा था शुरुआत में, उसके हिसाब से ये ठीक भी है और तमाम किताबें ऐसा ही कर भी रही हैं मगर रशीद हसन ख़ान मर्हूम ने इमला नामा में ग़ालिब के एक ख़त का हवाला देते हुए जो उन्होंने हरगोपाल “तफ़्ता” को लिखा था, ये कहा है कि एक आवाज़ या’नी इज़ाफ़त की ए के लिए दो हर्फ़ लाना, या’नी बड़ी ये के बाद हम्ज़ा भी, अक़्ल को गाली देने के बराबर है। उन्होंने अपनी तहरीरों में अलिफ़ या वाव के बाद इज़ाफ़त में सिर्फ़ बड़ी ये लिखा है, हम्ज़ा नहीं लिखा। दोनों या’नी डॉक्टर नारंग और रशीद हसन ख़ान, दलीलें रखते हैं और वाजिब दलीलें रखते हैं। बहरहाल चलन में वही है जिसके नारंग साहब पैरो हैं या’नी बड़ी ये और उसके ऊपर हम्ज़ा। ये बात तो हुई इज़ाफ़त में हम्ज़ा के इस्ते’माल की।

आइए अब चंद अरबी अल्फ़ाज़ में इसकी मौजूदगी और इस्ते’माल को देख लिया जाए। इंशा, ज़का, मंशा जैसे तमाम अल्फ़ाज़ जिनके आख़िर में अलिफ़ के बाद हम्ज़ा है (मूल अरबी में)अगर इज़ाफ़त में आएँ, हम्ज़ा तभी लगाया जाए उर्दू में, या’नी अगर इंशा अल्लाह, ज़का उल्लाह, मंशा उर्रहमान वग़ैरह लिखते वक़्त तो हम्ज़ा लगाया जाए इंशा, ज़का, मंशा के आख़िरी अलिफ़ के बाद उल, अल का अलिफ़ आ जाता है और दो स्वर इकट्ठा हो जाते हैं मगर जब ये अकेले लिखे जाएँ तो हम्ज़ा की ज़रूरत नहीं। मेरी समझ में ये बात बिल्कुल ठीक है।अब अरबी के दो लफ़्ज़ या’नी मसअला और जुर्रत का इमला देखते हैं। इनमें से पहले या’नी मसअला को जब हम उर्दू में लिखते हैं “مسئلہ” तो इसमें अलिफ़ कहीं दिखायी ही नहीं देता। रशीद हसन ख़ान साहब ने इमला नामा में लिखा है कि जब अलिफ़ पर ज़बर की हरकत हो, या’नी जब वो मफ़तूह हो तो अरबी में उसे सिर्फ़ हम्ज़ा से ‘भी’ ज़ाहिर किया जा सकता है, जैसा इस लफ़्ज़ में है।(यही इमला अब उर्दू में चलन में है) अगर अलिफ़ साकिन हो तो अलिफ़ लिखते हैं। अब दूसरे लफ़्ज़ जुर्रत/जुरअत “جرات” को देखते हैं। यहाँ अभी उर्दू में जैसा लिखा है, इसके अलावा अलिफ़ पर ज़बर और हम्ज़ा के साथ भी आप इसे पाएँगे, ये ख़ास अरबी के अल्फ़ाज़ हैं, इन्हें “उर्दुवाने” की कोशिश हुई भी मगर चलन में अब तक अरबी क़ायदा ही है ।हम वैसे भी अल्फाज़ से झगड़े के क़ाइल नहीं, सो इन अल्फ़ाज़ से सुल्ह कर लेना ही बेहतर है।

आख़िर में लफ़्ज़ ‘हुआ/ हुवा’ पर थोड़ी बात कर ली जाए। इस लफ़्ज़ में हम्ज़ा आएगा या नहीं इसे लेकर हमारे बुजुर्गों ने काफ़ी बातें की हैं। नारंग साहब अपने दो अलग-अलग मज़ामीन में कहते हैं कि पहले इस पर हम्ज़ा आता था, पण्डित कैफ़ी और दूसरे उलमा लगाते थे, मगर अब नहीं लगाया जाता। रशीद हसन ख़ान साहब ने इस लफ़्ज़ के लिए ख़ास तौर से डॉक्टर अब्दुस्सत्तार सिद्दीक़ी को ख़त लिख कर पूछा कि इस पर हम्ज़ा आना चाहिए या नहीं, उन्होंने न सिर्फ़ हुआ या’नी हो का माज़ी बल्कि छुआ, चुआ जैसे अल्फ़ाज़ में भी हम्ज़ा होने की बात कही थी। इस जवाब पर रशीद हसन ख़ान साहब ने इमला नामा में लिखा है कि “क़ायदा चाहे जो हो, ‘हुआ’ पर हम्ज़ा अजनबी लगता है, सो नहीं आना चाहिए।” ख़ान साहब बड़े आदमी थे, उनसे कैसी बह्स मगर ऐसी कोई भी बात मान लेना जिसकी कोई वज्ह मौजूद न हो, मेरे नज़दीक ठीक नहीं।जहाँ तक लफ़्ज़ हुआ की बात है, आप देखें कैसी बारीक बात डॉक्टर सिद्दीक़ी मर्हूम ने की है कि अगर किसी लफ़्ज़ का आख़िरी हर्फ़ वाव हो और उसके ठीक पहले वाले हर्फ़ पर पेश हो तो आख़िरी वाव की आवाज़ ‘अ’ की आवाज़ में बदल जाती है। ऐसा होता है कि नहीं,हम आगे देखेंगे मगर ऐसा हुआ तो लफ़्ज़ हुआ में आख़िर में एक स्वर हो गया या’नी ‘आ’ और उसके ठीक पहले पेश है ही, हम्ज़ा आना चाहिए। अब हम देखते हैं कि ज़ेर और ज़बर के बाद वाव आए तो उसकी आवाज़ कैसी निकलती है। लफ़्ज़ सवा और सिवा को लीजिए। इन्हें बोल कर देखिए, वाव की आवाज़ एक व्यंजन की तरह बिल्कुल साफ़ आ रही है न?? होंठ तलफ़्फ़ुज़ में एक दूसरे को छूते मिलेंगे, भले थोड़ा ही और इस तरह वाव की आवाज़ बिल्कुल साफ़ व्यंजन की तरह अदा होती मिलेगी। वहीं अगर सुवा बोलना हो या’नी वाव के ठीक पहले पेश हो तो इसका तलफ़्फ़ुज़ ‘सुआ’ हो जाएगा, होंठ गोलाई ले लेंगे हल्की सी और एक दूसरे से सोशल डिस्टेनसिंग बना कर रखेंगे। “आ” ख़ुद एक स्वर की तरह देखा जाएगा और इसके पहले आया पेश, इस पर हम्ज़ा लगाने के लिए हमें मजबूर करेगा, क़ायदा भी तो यही है आख़िर।

उम्मीद है हम्ज़ा का इस्ते’माल कहाँ होना है और कहाँ नहीं, आपको समझ आया होगा। अरबी तो ख़ैर दूर की बात, अपने हिंदी उर्दू अल्फ़ाज़ हम इसके बग़ैर नहीं लिख सकते। की को कई में गी को गई में सिर्फ़ और सिर्फ़ हम्ज़ा ही बदल बदल सकता है, वर्ना सोचिए एक अलिफ़ अलग से लिखना कितना अजीब लगता ज़ेर, या पेश वग़ैरह के साथ। बहरहाल, आज हमने इस बेहद ज़िद्दी और परेशान करने वाले हर्फ़ का उर्दू में इस्ते’माल देखा। सवालात हों तो बेशक पूछिए, कोशिश रहेगी ज़बान पर यूँही बात होती रहे।💐💐 फिर मिलेंगे।