Gandhi Jayanti

गांधी जी की उर्दू और उर्दू के गांधी जी

गांधी जी का ख़याल आए या उर्दू ज़ुबान का तसव्वुर हो, लबों पर मुस्कुराहट आ ही जाती है। इस मुस्कुराहट का सबब मुहब्बत है। अपना बना लेने की बेपनाह सलाहियत गांधी जी और उर्दू दोनों में एक जैसी है। आप गांधी जी के क़रीब जाएं तो उनकी मक़नातीसी सादगी, ख़ुलूस और सच्चाई की ताक़त आपके सारे ग़ुरूर और नफ़रत का एक-एक ज़र्रा खींच लेती है और आप सिर्फ़ मुहब्बत और अम्न का पैकर हो कर रह जाते हैं। इसी तरह आप उर्दू के पास जाएं तो यह आपकी शख़्सियत का सारा खारापन और अकड़ सोख लेती है और आप नफ़ासत और चाशनी से लबरेज़ होते चले जाते हैं। आपको अपने आप से मुहब्बत होने लगती है।

गांधी युग जहाँ ना-इंसाफ़ी और ग़ुलामी के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलन्द करने और ज़ुल्म का लोहा अहिंसा की आंच से पिघलाने का हैरत-अंगेज युग था, वहीं यह युग उर्दू ज़ुबानो-अदब का भी तारीख़-साज़ एहद माना जाता है। अकबर, चक्बस्त, डिप्टी नज़ीर अहमद, सर सय्यद, शिब्ली, मुहम्मद अली जौहर, दाग़, हाली, हसरत, फ़ानी, इक़बाल, जोश, जिगर, प्रेमचंद, बेदी, कृष्ण चंदर, मंटो, फ़ैज़, मजाज़, सरदार जाफ़री वग़ैरा गांधी जी के दौर में सांस भी ले रहे थे और उर्दू शेरो-अदब में नये कारनामे भी अंजाम दे रहे थे।

फ़ारसी की चाशनी में लिपटी उर्दू उस वक़्त की क़तई आम-फ़हम ज़ुबान थी और उस वक़्त यह ज़ुबान ज़्यादा ख़ुश-क़िस्मत थी कि इसे मज़हब का लिबास भी नहीं पहनाया गया था।

गांधी जी और उर्दू ने जहाँ एक दूसरे से मोहब्बत की, वहीं एक दूसरे का असर भी लिया। एक तरफ़ उर्दू में अदब तख़लीक़ करने वालों ने गांधी जी की अज़ीम शख़्सियत और उनके अज़ीम कारनामों से मुतअस्सिर हो कर उन पर और उनके बताए रास्तों पर चलते हुए अदब तख़लीक़ किया। दूसरी तरफ गांधी जी ने भी हर मौक़े पर उर्दू से अपनी मोहब्बत का सबूत दिया। उन्होंने कई एहम ख़ुतूत उर्दू में लिखें जो अब हमारा सरमाया है।

गांधी जी के विचारों की आँधी उनकी वतन वापसी से पहले हिंदुस्तान को अपनी गिरफ़्त में ले चुकी थी। आम हिंदुस्तानी ही नहीं, उस वक़्त के शायर और अदीब भी गांधी जी के जादू से अपने आपको अलग नहीं कर पाए।

चक्बस्त और अकबर ने तो गांधी जी के अफ़्रीक़ा में उनके कारनामों से मुतअस्सिर हो कर उनकी शान में नज़्में लिखीं। नज़्म ‘वतन का राग’ में चक्बस्त कहते हैं,

Hamare vaste zanjeeron, हमारे वास्ते ज़ंजीरो-तौक़ गहना है

अकबर इलाहाबादी ने ‘गांधी नामा’ में गांधी जी से मुतअस्सिर हो कर ‘गांधी-नामा’ लिख दी। कहते हैं ,

Inquilab aaya nayi duniya, हमारे वास्ते ज़ंजीरो-तौक़ गहना है

इसी तरह गांधी जी से मुतअस्सिर हो कर मजाज़ अपनी नज़्म ‘इंकलाब’ में कहते हैं,

khatm ho jane ko hai, ख़त्म हो जाने को है सरमायादारों का निज़ाम

गांधी जी भी उर्दू से मुहब्बत करते थे। इस बात का सुबूत उनके ख़ुद के लिखे ख़ुतूत हैं। ये ज़्यादातर 1929-1930 के दरमियान लिखे गये। 1929 में गांधी जी शिब्ली अकादमी आज़मगढ़ गये थे जहाँ उन्होंने उर्दू में आटोग्राफ़ दे कर मौजूदा लोगों को खु़शगवार हैरानी में मुब्तिला कर दिया था। वहाँ उनके हाथ का उर्दू में लिखा हुआ दावत-नामा अभी तक महफ़ूज़ है।

गांधी जी ने डॉ इक़बाल की वफ़ात पर ताज़ियती ख़त उर्दू में रक़म किया। जिसमें गांधी जी लिखते हैं,

भाई मुहम्मद हुसैन,

आपका ख़त मिला, डॉ इक़बाल के बारे में मैं क्या लिखूं? लेकिन इतना तो मैं कहता हूँ कि जब उनकी मशहूर नज़्म “हिन्दुस्तान हमारा” पढ़ी तो मेरा दिल उभर आया। और यारवरदा जेल में तो सैकड़ों बार मैंने इस नज़्म को गाया होगा। इस नज़्म के अल्फ़ाज़ मुझे बहुत ही मीठे लगे। और यह ख़त लिखता हूँ, तब भी वो नज़्म मेरे कानों में गूंज रही है।

आपका
म. क. गांधी

Gandhi's Letter to Mohammad Hussain
गाँधी जी गाँधी जी गाँधी जी की तहरीर का एक अक्स

इस तरह कह सकते हैं कि जहाँ गांधी जी उर्दू से मुहब्बत करते थे और उर्दू में अपनी बातें करते भी थे और अक्सर लिखते भी थे, इसी तरह गांधी जी की शख़्सियत से मुतअस्सिर हो कर उस वक़्त के शायर और अदीब भी उर्दू में अदब तख़्लीक़ कर रहे थे। वो दौर उर्दू और उर्दू में लिखने वालों के लिए सुनहरी दौर इस लिए भी था कि उर्दू किसी मज़हब या क़ौम की ज़ुबान नहीं हुआ करती थी और उर्दू बोलने वालों को, लिखने वालों को इज्ज़त और मोहब्बत की नज़र से देखा जाता था।

आज मामला यह है कि गांधी जी और उर्दू दोनों ही हाशिए पर हैं। हमारी एहसान-फ़रामोशी गांधी जी के एहसानात को मानने से इंकार करती आयी है और उनके बताए हुए रास्ते, जिसे सारी दुनिया तस्लीम कर चुकी है, को ग़लत बताती है। इसी तरह उर्दू भी तंग-नज़री और सियासी नफ़रत का शिकार है। जिसके सबब यह मीठी ज़ुबान एक मज़हब की ज़ुबान मानी जाने लगी है। यह बदनसीबी इस दौर की है जिसने न तो गांधी जी के रास्ते पर चलना गवारा किया और न ही उर्दू की मिठास चखने की कोशिश की।

लेकिन बहुत ज़्यादा मायूस होने की ज़रूरत नहीं है। हर नई नस्ल अपनी पिछली नस्लों की ख़ामियों को न सिर्फ़ देखती है बल्कि उन ख़ामियों को दूर कर के अपने लिए नए रास्ते बनाती है। जिस तरह गांधी जी और उनके विचार हर दौर में मोहब्बत करने वालों के लिए मशअल-ए-राह बनते रहे हैं, उसी तरह उर्दू हर दौर में मुहब्बत और ख़ुलूस वालों के लिए किसी वरदान से कम नहीं है।

गांधी जी जैसी सच की पैरवी करने की हिम्मत हो और ज़ुबान पर उर्दू की मिठास हो तो, शख्सियत अपने आप में इतनी पुर-कशिश हो जाती है कि उसे फिर किसी मसनूई कशिश की ज़रूरत नहीं पड़ती। खुशी की बात यह है कि नई नस्ल धीरे-धीरे गांधी जी और उर्दू के करिश्मों को तस्लीम भी कर रही है और इस राह पर गामज़न भी है।