Articles By Ajmal Siddiqi

Republic Day Urdu

टैगोर, जम्हूरियत और आख़िरी नागरिक

जम्हूरियत को अगर सिर्फ़ वोट करने के हक़ से ता’बीर किया जाए तो उसका मतलब ये होगा कि मुल्क में अक्सरिय्यती ख़याल, वो सोच जिस के मानने वाले अक्सरिय्यत में हों उस सोच को ही ग़लबा मिलेगा। लेकिन इस का दूसरा पहलू क्या ये है कि बाक़ी तमाम ख़याल, बाक़ी तमाम लोग और तमाम फ़िक्र के लोगों के लिए कोई जगह नहीं?

Jaun Elia

जौन तो एक धड़कता हुआ दमाग़ था!!

जौन वो शमअ’ थी जिसको मालूम था कि लोग उसके बुझने का नज़्ज़ारा करना चाहते हैं। जौन एलिया ने कभी कोशिश भी नहीं की समाज की उस रस्म को निभाने की, जिसमें अपने ज़ख़्मों को छुपाया जाता है, उनकी सर-ए-आम नुमाइश नहीं की जाती। रोया तो बीच महफ़िल रो दिया।

Urdu Articles

बात करना या बात करनी – दिल्ली और लखनऊ वालों का मसअला

अस्ल में इस बखेड़े की वजह है दिल्ली और लखनऊ स्कूल का एक क़दीम इख़्तिलाफ़ मसदरी प्रतीक को लेकर। मसदरी प्रतीक कहते हैं वो अलामत जो फे़अल की अस्ल सूरत यानी मसदर पर लगती है। ‘खिलाना’ ‘पिलाना’ ‘खाना’ ‘देखना’ ‘भागना’ वग़ैरा ये मसदरी सूरतें हैं और उनके आख़िर में जो “ना” है वो अलामत-ए-मसदरी है।

Urdu zabaan

ज़बान और इश्क़ किसी तरह की पाबन्दियाँ पसन्द नहीं करते

ज़बान और इश्क़ किसी तरह की पाबन्दियाँ पसन्द नहीं करते, कितनी अजीब बात है कि लफ़्ज़ ‘मजनूँ’ पागल के अर्थ में है, क़ैस इश्क़ में पागल हुआ तो उसे मजनून या मजनूँ बोलने लगे, लेकिन जज़बा-ए-इश्क़ इस क़दर ग़ालिब और ज़ाहिर था कि क़ैस की वज्ह से इस लफ़्ज़ में रफ़ता रफ़ता इश्क़ का मफ़हूम समाता चला गया और डिक्शनरी बग़लें झाँकते रह गई।

Qaafiya

क़ाफ़िये की ये बहसें काफ़ी दिलचस्प हैं

सौती क़ाफ़िया या’नी लफ़्ज़ सुनने में एक जैसी आवाज़ देते हों चाहे उनका इमला (spelling) अलग हो। मसलन ख़त के आख़िर में ‘तोय’(خط) है और मत(مت) के आख़िर में ‘ते’ है तो देखने में बे-शक ये एक दूसरे से मुख़्तलिफ़ मा’लूम होते हैं मगर सुनने में एक ही आवाज़ देते हैं। इसी तरह ‘ख़ास’ और ‘पास’ का हम-क़ाफ़िया होना। यही सौती क़ाफ़िया है।

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