Azad ghazal aur azad nazm kya hoti hai

आज़ाद ग़ज़ल और आज़ाद नज़्म क्या है?

अव्वल तो हम यह जान लेते हैं कि उर्दू अदब में ‘आज़ाद’ का मतलब रदीफ़, क़ाफ़िए और मिसरों के अर्कान में कम-ओ-बेशी (घटाने- बढ़ाने) से है न कि बे-बह’र होने से। लोग अक्सर लफ़्ज़-ए-आज़ाद के मआनी शाइरी में पूरी तरह की आज़ादी या छूट को मान लेते हैं जब कि ऐसा नहीं है। आज़ाद नज़्म या आज़ाद ग़ज़ल दोनों ही अस्नाफ़-ए-सुख़न में बा-क़ाएदा बह’र की पाबन्दी होती है, बल्कि आज़ाद ग़ज़ल हू-ब-हू ग़ज़ल ही की तरह होती है जिसमें बह’र समेत क़ाफ़िए की भी पाबन्दी होती है (रदीफ़ रखना न रखना ग़ज़ल की तरह आपकी मर्ज़ी पर है)।

सन 1944 के आस- पास मख़्दूम मोहिन्द्दीन के इलावा किसी भी तरक़्क़ी-पसन्द नज़्म-निगार (साहिर, कैफ़ी आज़मी, अली सरदार जाफ़री किसी ने भी) ने आज़ाद शाएरी शुरूअ नहीं की थी। (पर कुछ जानकार यह भी कहते हैं कि आज़ाद नज़्म 1928- 1931 के आस-पास कही जा चुकी थी, लेकिन उतनी राइज नहीं हुई थी)। उसके बाद धीरे-धीरे आज़ाद नज़्म कहने का सिलसिला शुरूअ हुआ।

आज़ाद नज़्म में रदीफ़, क़ाफ़िए की कोई पाबन्दी नहीं होती, बावजूद इसके अगर कहीं कोई क़ाफ़िया मिल जाए तो उसे ऐब की नज़र से नहीं बल्कि हुस्न-ए-इज़ाफ़ी की नज़र से देखते हैं। आज़ाद नज़्म में तय की गयी बह’र के अर्कान में कम-ओ-बेशी की जा सकती है (जैसे किसी मिसरे में हम 3 अर्कान लेते हैं किसी में 5 किसी में 2 किसी में 1 लेकिन अगर सारे के सारे मिसरे बराबर अर्कान में हैं, तब भी इसे कोई ऐब नहीं माना जाएगा।) अर्कान को तोड़ने का सिलसिला इसके बाद शुरूअ हुआ।

मिसाल के तौर पर अख़्तर पयामी की एक आज़ाद नज़्म का एक टुकड़ा देखते हैं-

इस नज़्म के तमाम मिसरे तीन तरह के रुक्न (फ़ाइलातुन- फ़इलातुन- फ़ेलुन या फ़इलुन 2122- 1122- 22 या 112) की तरतीब में हैं।

नोट- इस बह’र के पहले रुक्न फ़ाइलातुन (2122) को फ़इलातुन (1122) से बदल सकते हैं और आख़िरी रुक्न फ़ेलुन (22) को फ़इलुन (112), फ़ालान (221) या फ़इलान (1121) से बदल सकते हैं।

लौटते हैं नज़्म की जानिब:

आप नज़्म में देख सकते हैं कि मुख़्तलिफ़ मिसरों में अर्कान की ता’दाद कम ज़ियादा हुई है और रुक्न को तोड़ा भी गया है।

पहले मिसरे का वज़्न है-

‘रात के हा/ थ पे जलती / हुई इक शम- / ए-वफ़ा’
(2122- 1122- 1122- 112)

दूसरे मिसरे का वज़्न है-

‘अपना हक़ माँ / गती है’
(2122- 112)

तीसरे मिसरे का वज़्न है-

‘दूर ख़्वाबों / के जज़ीरे / में’
(2122- 1122- 1)

चौथे मिसरे का वज़्न है-

किसी रौ / ज़न से
(122- 22)

पाँचवें मिसरे का वज़्न है-

‘सुब्ह की ए / क किरन झाँ / कती है’
(2122- 1122- 112)

और आख़िरी मिसरे का वज़्न है-

‘वो किरन दर/ पा-ए-आज़ा / र हुई जा / ती है’
(2122- 1122- 1122- 22)

आज़ाद ग़ज़ल ‘मज़हर इमाम’ की ईजाद है, और उनके इलावा उनके बाद शाएद फिर किसी शाएर ने आज़ाद ग़ज़ल कहना पसन्द नहीं किया। मज़हर इमाम की आज़ाद ग़ज़ल के कुछ अशआर:

Doobne waale ko tinke ka sahara aap hain

यहाँ आप देखिए कि तमाम अशआर दो तरह के रुक्न (फ़ाइलातुन 2122- फ़ाइलुन 212) की तरतीब में हैं, और मिसरों में अर्कान की ता’दाद कम-ज़ियादा हुई है।

डूबने वा/ ले को तिनके / का सहारा / आप हैं

इश्क़ तूफ़ाँ / है सफ़ीना / आप हैं

आरज़ूओं / की अँधेरी / रात में

मेरे ख़्वाबों / के उफ़ुक़ पर / जगमगाया / जो सितारा / आप हैं

मेरी मंज़िल / बेनिशाँ है / लेकिन इसका (अलिफ़ वस्ल) / क्या इलाज (ज हर्फ़- ए- इज़ाफ़ी है)

मेरी ही मं/ ज़िल की जानिब / जादा-पैमा / आप हैं

अशआर के क़वाफ़ी सिलसिला-वार ‘सहारा’, ‘सफ़ीना’, ‘सितारा’, ‘पैमा’ हैं और रदीफ़ ‘आप हैं’ (जो कि हर मिसरे में फ़ाइलुन (212) के वज़्न पर है)।

मज़हर इमाम ही की एक और आज़ाद ग़ज़ल के दो शे’र देखते हैं:

Phool ho zahar mein dooba hua

यहाँ भी आप देखिए कि तमाम अशआर तीन तरह के रुक्न (फ़ाइलातुन- फ़इलातुन- फ़ेलुन या फ़इलुन 2122- 1122- 22 या 112) की तरतीब में हैं, और यहाँ भी मिसरों में अर्कान की ता’दाद कम-ज़ियादा हुई है।

फूल हो ज़ह / र में डूबा / हुआ पत्थर / न सही

दोस्तो मे/ रा भी कुछ हक़ / तो है छुपकर / सही खुलकर / न सही

यूँ भी जी ले/ ते हैं जीने / वाले

कोई तस्वी / र सही आ / पका पैकर / न सही

अशआर के क़वाफ़ी सिलसिला-वार ‘पत्थर’, ‘छुप कर’, और ‘पैकर’ हैं और रदीफ़ ‘ न सही’ (जो कि हर मिसरे में फ़इलुन (112) के वज़्न पर है)।

लिहाज़ा उर्दू में कोई भी विधा (सिवाए नस्री नज़्म के) बेबह्र नहीं होती।