भूपिंदर सिंह : ज़िन्दगी मेरे घर आना

जिनकी आवाज़ में थी शायरी की उदास करवटें

ढलती सुनसान दोपहरी में कोई बेकल-सी पुकार या शाम के गहराते अँधियारे में अभी-अभी जलाया गया गौरवान्वित दिया… कुछ ऐसी थी भूपिंदर सिंह की आवाज़। कैसी उजली और आत्मगौरव से दीप्त होती, घन के गरज सा भारीपन लिए और निचाट अकेलापन लिए आवाज़। अकेलापन भी कोई रोने-कलपने वाला नहीं बल्कि ठहर कर ख़ुद को देखने-परखने वाला। सत्तर के दशक के शहरों में जा कर संघर्ष करने वाले नौजवानों को उन्होंने अपनी आवाज़ दी थी।

“एक अकेला इस शहर में

रात में और दोपहर में

आब-ओ-दाना ढूँढता है

आशियाना ढूँढता है”

सुनते हुए उम्र बीत गई मगर आज भी रोजी की तलाश में अनजान शहरों में भटकने वालों के दिल इस गीत को गाहे-बगाहे गुनगुना उठते हैं। गुलज़ार के लिखे को इस से सुंदर आवाज़ कहाँ मिल सकती थी। जाने कितने दशकों से यह गीत ख़ला में भटकता रहा है और किसी भी बेचैन दिल के भीतर उतर जाता है। जब गुलज़ार लिखते हैं कि, ‘दिन एक ख़ाली बरतन है’ तो इस अनूठी उपमा को अपनी गायकी में अपने स्वरों से एक भाव तक पहुँचाना आसान नहीं रहा होगा। यहीं पर भूपेंद्र सबसे खरे, सबसे सटीक लगते हैं। ऐसी शब्दावली में ढले गीत कोई और भला कैसे गा सकता है?

दिन खाली खाली बर्तन है, और रात है जैसे अंधा कुआँ

इन सूनी अँधेरी आँखों में, आँसू की जगह आता हैं धुँआ

जीने की वज्ह तो कोई नहीं, मरने का बहाना ढूँढता है

इन उम्र से लम्बी सड़कों को, मंज़िल पे पहुँचते देखा नहीं

बस दौड़ती फिरती रहती हैं, हम ने तो ठहरते देखा नहीं

इस अजनबी से शहर में, जाना पहचाना ढूँढता है

एक अकेला इस शहर में

भूपेंद्र के सबसे ज़ियादा लोकप्रिय गीत जैसे बदलते मौसम की करवटें हैं। ‘बाज़ार’ का गीत तो जैसे कई दिनों तक चलती बारिश से गीले मौसम के एहसास से भरा हुआ है। बशर नवाज़ के दिल कचोटने वाले शब्दों के चारों ओर भूपेंद्र की आवाज़ एक गहरी उदासी भरे कुहासे सी लिपटी हुई है। भूपिंदर ने हमेशा के लिए कुछ छूट जाने की कसक को अपनी आवाज़ के ज़रीए ऐसी शिद्दत दी है कि शब्दों के मानी और गहरा जाते हैं।

बरसता-भीगता मौसम धुआँ-धुआँ होगा

पिघलती शम्अ’ पे दिल का मेरे गुमाँ होगा

हथेलियों की हिना, याद कुछ दिलाएगी

गली के मोड़ पे, सूना सा कोई दरवाज़ा  

तरसती आँखों से रस्ता किसी का देखेगा

निगाह दूर तलक जा के लौट आएगी  

करोगे याद तो हर बात याद आएगी

यूँ तो कहा जाता है कि भूपिंदर सबसे ज़ियादा गुलजार के प्रिय थे। गुलज़ार के कुछ बहुत ख़ूबसूरत गीतों को उन्होंने शब्द भी दिए हैं। लेकिन बशर नवाज़ की तरह ऐसे कई शाइर हैं जिनके शब्दों को भूपिंदर ने अपनी आवाज़ से सजाया है। सुदर्शन फ़ाकिर जैसे इश्क़ में ठुकराए और मजनूँ बनकर घूमते फिरने वाले शाइर के लिखे को अगर जगजीत सिंह के इलावा किसी ने अपनी गायकी से जगमगाया है तो वह भूपिंदर सिंह ही रहे हैं।

इश्क़ में ग़ैरत-ए-जज़्बात ने रोने न दिया

वर्ना क्या बात थी किस बात ने रोने न दिया

ये सुनते ही जगजीत सिंह और चित्रा याद आते हैं। इसी तरह “ज़िंदगी ज़िंदगी मेरे घर आना – आना ज़िंदगी” में भूपिंदर की आवाज़ का उजास है। फ़िल्म दूरियाँ के इस गीत में उनकी जानी-पहचानी उदासी नदारद है, उस की जगह एक गहरी सकारात्मकता है। ‘कुछ नहीं’ में ‘सब कुछ’ तलाश लेने का उत्साह इस गीत में देखते बनता है। बोल भी तो ऐसे ही हैं :

मेरे घर का सीधा सा इतना पता है

ये घर जो है चारों तरफ़ से खुला है

न दस्तक ज़रूरी, न आवाज़ देना

मेरे घर का दरवाज़ा कोई नहीं है

हैं दीवारें गुम और छत भी नहीं है

बड़ी धूप है दोस्त

कड़ी धूप है दोस्त

तेरे आँचल का साया चुरा के जीना है जीना

जीना ज़िंदगी, ज़िंदगी

मेरे घर आना…

एक और गीत जिसका जादू दशकों से छाया हुआ है, उस को सुनना और देखना दोनों ही बहुत ख़ूबसूरत लगता है। कोहरे में डूबी पहाड़ियों में ख़ूबसूरत साड़ी में लिपटी बद-हवास भागती एक स्त्री। कहीं पर सजी एक छोटी सी सुंदर महफ़िल। सुरेश ओबेरॉय की शख़्सियत पर भूपिंदर सिंह की आवाज़ कितनी सटीक बैठी थी। गीत के बोल थे :

“किसी नज़र को तेरा इंतिज़ार आज भी है…”

उस दौर में फ़िल्म ‘निकाह’ में अपनी लेखनी का जादू दिखाने वाले हसन कमाल की एक ख़ूबसूरत ग़ज़ल जिसका हर शेर अपने में कोई मुकम्मल कहानी कहता नज़र आता है। ज़रा ग़ौर कीजिए :

किसी नज़र को तिरा इंतिज़ार आज भी है

कहाँ हो तुम कि ये दिल बे-क़रार आज भी है

वो वादियाँ वो फ़ज़ाएँ कि हम मिले थे जहाँ

मिरी वफ़ा का वहीं पर मज़ार आज भी है

न जाने देख के क्यों उन को ये हुआ एहसास

कि मेरे दिल पे उन्हें इख़्तियार आज भी है

उदासी जैसे उस आवाज़ के लिए काफ़ी नहीं थी। एक ख़ास क़िस्म के अनुशासन के बीच थोड़ी सी शोख़ी की झलक भी मिलती है उनकी गायकी में। उन के शरारती अंदाज़ को सबसे ख़ूबसूरत रूप में फ़िल्म मासूम में देखा जा सकता है।

हुज़ूर इस कदर भी न इतरा के चलिए

खुले आम आँचल न लहरा के चलिए

लहजे में शरारत तो है मगर सस्तापन नहीं है। सुरेश वाडेकर के साथ गाया गया यह पार्टी सांग अपने में अनूठा है। गुलज़ार ने इतने मन से लिखा है कि इसके बोल मन में बस जाते हैं।

बहुत ख़ूबसूरत है हर बात लेकिन

अगर दिल भी होता तो क्या बात होती

लिखी जाती फिर दास्तान-ए-मुहब्बत

इक अफ़्साने जैसे मुलाक़ात होती

इसी तरह जब वो रूना लैला की शोख़ी भरी आवाज़ से क़दम मिलाते हैं तो कितना ख़ूबसूरत गीत सामने आता है। गीत है घरौंदा फ़िल्म का,

दो दीवाने शहर में, रात में और दोपहर में

आब-ओ-दाना ढूँढते हैं एक आशियाना ढूँढते हैं

गुलजार के टटके शब्दों को वो कितनी सहजता से गीत बना देते हैं।

बहुत कम लोगों को पता होगा कि भूपिंदर बहुत अच्छे म्यूज़िक कंपोज़र भी थे। वो वायलिन और गिटार बजाते थे। फ़िल्म ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ का गीत “दम मारो दम” और ‘यादों की बारात’ का “चुरा लिया है तुमने” में हम जो गिटार की धुन सुनते हैं वो दर-अस्ल भूपिंदर की उँगलियों का जादू है। फ़िल्म में पहली बार ही उन्होंने इंडस्ट्री के तीन बड़े दिग्गजों के साथ सुर से सुर मिलाया था। ‘हक़ीकत’ का एक बहुत ही मार्मिक गीत है, “हो के मजबूर मुझे उसने बुलाया होगा” जिसे उन्होंने मोहम्मद रफ़ी, मन्ना डे और तलत महमूद के साथ गाया था।

भूपिंदर ने बतौर प्लेबैक सिंगर गिनती के फ़िल्मी गीत गाए हैं लेकिन उनके गाए ये गीत जाने कितने बरस लोग गुनगुनाते रहेंगे। बदलते मौसमों में शाइरी की उदास करवटों वाले उनके गीत बरबस याद आया करेंगे। फ़िल्म ‘किनारा’ में लता मंगेशकर के साथ गाए डुएट के ये बोल ही शायद उनकी गायकी के प्रति सबसे ख़ूबसूरत आदरांजलि होंगे।

दिन ढले जहाँ, रात पास हो

ज़िंदगी की लौ, ऊँची कर चलो

याद आए गर कभी, जी उदास हो

मेरी आवाज़ ही पहचान है

गर याद रहे…