Naseeruddin Shah Blog

कहते हैं कि नसीर का है अंदाज़-ए-बयाँ और

अगर ये कहें कि मिर्जा ग़ालिब और नसीरुद्दीन शाह एक दूसरे में इस तरह ज़म हो गए हैं कि उन्हें जुदा करना अब मुम्किन नहीं रहा, तो ये मुबालग़ा-आराई नहीं होगी। जिन लोगों ने ग़ालिब की तस्वीर भी देखी है, अगर उन से भी कहा जाए कि ग़ालिब का तसव्वुर करें तो उन के ज़ेह्न में भी उसी ग़ालिब की तस्वीर उभर कर आती है जो उन्होंने नसीरुद्दीन शाह की शक्ल में मिर्ज़ा ग़ालिब सीरियल में देखी है। मिर्ज़ा ग़ालिब का रोल उन्हें कैसे मिला, ये क़िस्सा नसीरुद्दीन ने कई मर्तबा दुहराया है और अपनी किताब “और फिर एक दिन” में भी बड़े दिलचस्प अंदाज़ में लिखा है लेकिन ये क़िस्सा इस क़दर दिलचस्प है कि बार-बार दोहराए जाने पर भी बासी मालूम नहीं होता। एक इक़्तिबास इस तअल्लुक़ से उनकी ख़ुद-नविश्त “और फिर एक दिन” से : “जब मैं एफ़.टी.आई. आई में था, ख़बर गर्म थी कि गुलज़ार साहब संजीव कुमार को लेकर ग़ालिब पर फ़िल्म बनाने वाले हैं। असिस्टेंट फ़िल्मों से शुरूआ’त कर के संजीव कुमार तब एक मक़्बूल और बा-इज़्ज़त स्टार बन गए थे लेकिन कई साल बेहतरीन अदाकारी करने के बाद अब ऐसा लगने लगा था कि वो ख़ुद को ही दाद देते रहते हैं। ग़ालिब का मैं ने एक शेर नही पढ़ा था न ख़ाक जानता था उनके बारे में पर संजीव कुमार ग़ालिब? मेरे दिल पर आरियाँ चलने लगीं। फिर एक दिन ख़बर आई कि उन्हें दिल का दौरा पड़ने की वज्ह से फ़िल्म की शूटिंग टल गई है। विक्रम महरोत्रा की मदद से मैं ने गुलज़ार भाई का पता ढूँढ निकाला और उनको ख़त लिखा कि दर-अस्ल मैं वो एक्टर हूँ जिस की उन्हें तलाश है। ग़ालिब का रोल करने के लिए मैं ने अपनी क़ाबिलिय्यतें गिनवाईं : मैं मेरठ का हूँ (सच) जहाँ से ग़ालिब की शराब आती थी। पुरानी देहली में ग़ालिब की गली क़ासिम जान में रह चुका हूँ (आधा सच, मैं बस वहाँ गया था) मैं रवानी से उर्दू बोल, लिख और पढ़ सकता हूँ (एक तिहाई सच, सिर्फ़ बोलता था) और मैं ग़ालिब की शाइरी से पूरी तरह वाक़िफ हूँ। (पूरी तरह झूट)”

सब से दिलचस्प बात ये है कि ग़ालिब सीरियल की शूटिंग के दौरान, जब वो गुलज़ार साहब से और बेहतर तरीक़े से वाक़िफ़ हो गए तो एक दिन हिम्मत जुटा कर उस ख़त का ज़िक्र किया। गुलज़ार साहब ने कहा कि उन्हें वो ख़त कभी मिला ही नहीं।

ग़ालिब सीरीयल के तअल्लुक़ से एक और दिलचस्प क़िस्सा है। नसीरुद्दीन शाह मुँह-फट, और ग़ुस्सैले मशहूर हैं। ज़बान पर अंग्रेज़ी की वो गाली जो एफ़ से शुरू होती है, वो भी चढ़ी हुई है। उनकी शरीक-ए-हयात रत्ना ने उनसे गुज़ारिश कि ख़ुदा के लिए अपनी ज़बान पर क़ाबू रखना क्योंकि तुम इंडस्ट्री के तीन सब से ज़ियादा मोहज़्ज़ब, शाइस्ता और शरीफ़ लोगों के साथ काम कर रहे हो। उन तीन में एक तो गुलज़ार साहब थे, दूसरे डायरेक्टर आफ़ फ़ोटोग्रफ़ी मनमोहन सिंह और तीसरे साउंड रिकारडिस्ट नरेंद्र सिंह। इत्तिफ़ाक़ से ये तीनों हज़रात सरदार हैं। चौथे जगजीत सिंह जिन की बे-मिसाल गायकी और मौसीक़ी ने इस सीरियल को और मक़्बूल बनाया वो भी सरदार हैं। (अफ़्सोस जगजीत साहब अब इस दुनिया में नहीं हैं।)

ये थी उर्दू से उनके इश्क़ की शुरूआत। उन्होंने फिर से उर्दू सीखनी शुरूअ की। ख़ुद उनका कहना है कि हालाँकि उर्दू वो पहली ज़बान है जिस से उनके कान आशना हुए लेकिन अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़ कर वो इसे बिल्कुल भूल चुके थे। वालिद पूरे अंग्रेज़ थे। माँ को अंग्रेज़ी नहीं आती थी इसलिए वो होस्टल से ख़ुतूत भी वालिद को ही भेजते थे। उन के नज़्दीक शाइर तो वर्ड्सवर्थ, कीट्स और शैली और टी. एस. इलियट वग़ैरा थे। अलीगढ़ जा कर भी वो इंग्लिश के सेहर से आज़ाद नहीं हुए। वहाँ भी सब्जेक्ट इंग्लिश लिट्रेचर ही था। बस इतना फ़र्क़ पड़ा कि अब वो उर्दू बेहतर तरीक़े से बोल सकते थे क्योंकि सारा माहौल उर्दू का था। वो तो जब उन्होंने ग़ालिब का रोल किया तब उन्हें समझ में आया कि ये सारे शाइर तो ग़ालिब के आगे पानी भरते हैं। जो तह-दारी, फ़ल्सफ़ा और गहराई ग़ालिब के यहाँ है, उन के मुक़ाबले में तो कोई शायर ठहरता ही नहीं।

मुश्किल बस ये थी कि उस रोल के साथ इंसाफ़ कैसे किया जाए। यहाँ गुलज़ार साहब की मश्शाक़ी और उनका कमाल-ए-फ़न काम आया। ग़ालिब का रोल अगर उन्होंने इस कमाल से किया है तो उसमे बहुत बड़ा हाथ गुलज़ार साहब का भी है। रोल को निभाने के लिए जो भी ज़रूरी मवाद था वो सब स्क्रिप्ट में मौजूद था। गुलज़ार साहब की डिमांड बस इतनी थी कि वो ये कैरेक्टर empathy के साथ करें। उस कर्ब को महसूस करें जिस से ग़ालिब गुज़रे थे। उस शख़्स के कर्ब को महसूस कीजिए जो ये जानता था कि वो कितना अज़ीम है लेकिन ज़माना जिस का क़द्र-शनास नहीं था। ग़ालिब को जीते-जीते वो शोहरत नहीं मिली जिसके वो हक़दार थे। गुलज़ार साहब की पारखी निगाहों ने नसीरुद्दीन शाह में वो ताब देखी जो इस को स्क्रीन पर उतार सकता था। नसीरुद्दीन शाह की “शोहरत” के सबब वो प्रोड्यूसर हज़रात की आख़िरी “च्वाइस” थे लेकिन गुलज़ार साहब अड़े रहे। और नतीजा सब के सामने है। किस ख़ूबसूरती से नसीरुद्दीन शाह ने उस कर्ब को स्क्रीन पर उतारा है। इस सीरियल में बारह एपीसोड हैं और बारह महीने में शूट हुए हैं जबकि आज-कल बारह एपीसोड तीन दिन में शूट हो जाते हैं। सोचिए कि किस जाँ-फ़िशानी, लगन, मेहनत, अक़ीदत और मोहब्बत से पूरी यूनिट ने काम किया होगा। शाहकार ऐसे ही नहीं तख़्लीक़ होते।

ग़ालिब करते वक़्त एक मुश्किल और थी कि हर एपीसोड में उन्हें तीन चार ग़ज़लें स्क्रीन पर गानी थीं। जगजीत सिंह और उनकी आवाज़ में बहुत मुमासिलत थी लेकिन सारी दुश्वारी “लिप सिंकिंग (lip syncing)” में थी। उन्होंने पूणे में डिप्लोमा हासिल करते वक़्त कभी वो क्लास ही नहीं अटेंड की थी जहाँ नाचना-गाना सिखाया जाता था। उनका ख़याल था कि उन्हें कभी इस की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। क़िस्मत देखिए उन्हें ये भी करना पड़ा। ग़ालिब के लिए उन्होंने ये तरकीब निकाली कि सारी ग़ज़लें वाक-मैन में लोड कर लीं और उनको इतनी बार सुना कि उन्हें जगजीत सिंह की साँस तक की आवाज़ सुनाई देने लगी। ये तरकीब काम आ गई और यही उनके लिए लिप सिंकिंग का “क्यू cue” बन गया।

ग़ालिब से पहले नसीरुद्दीन शाह उर्दू और उर्दू लिट्रेचर से किस हद तक ना-बलद थे, इस का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि “जुनून” फ़िल्म में एक छोटा सा रोल इस्मत चुग़्ताई ने भी किया था। तक़रीबन दो महीने के इस शूटिंग शैडूल में वो कभी न जान सके कि इस्मत चुग़्ताई कौन हैं और अदब में उन का क्या मुक़ाम है। बाद में उन्होंने इस की भरपाई इस तरह की, कि इस्मत आपा की कई कहानियों पर ड्रामे किए। उन्होंने एक इंटरव्यू के दौरान ये एतिराफ़ किया है कि अपनी जवानी के दिनों में उन्होंने कभी फ़ैज़ को नहीं पढ़ा। हालाँकि जब वो दिल्ली में पढ़ाई कर रहे थे तो कई बार फ़ैज़ दिल्ली आए लेकिन वो कभी उनसे मिलने नहीं गए क्योंकि वो जानते ही नहीं थे कि फ़ैज़ कौन हैं। आज वो फ़ैज़ के दीवाने हैं।

उर्दू से जो उनका इश्क़ शुरू हुआ था, उसे जमील गुलरेज़ साहब की सोहबत ने और मेहमेज़ किया। जमील साहब उर्दू ज़बान को बचाने की एक मुहिम “कथा कथन” शुरू किए हुए हैं। आज नसीरुद्दीन शाह इस मुहिम से पूरी तरह जुड़ गए हैं और दोनों उर्दू की तरवीज-ओ-इशाअत के लिए हर मुम्किना कोशिश कर रहे हैं।

ग़ालिब और उर्दू के इलावा उनकी शख़्सियत के और बहुत से पहलू हैं। एक ज़माना उनकी अदाकारी का मोतरिफ़ है। उन्होंने कमर्शियल और आर्ट दोनों तरह की फिल्मों में अपनी अदाकारी के जौहर दिखाए हैं, हालाँकि वो अज़-राह-ए-मज़ाक़ अपनी बहुत सारी कमर्शियल फिल्मों के बारे में कहते हैं कि अच्छा हुआ लोग उन्हें नहीं जानते हैं। आर्ट फिल्मों की बात कीजिए तो उस में उनका कोई सानी नहीं है। “निशाँत”, “मिथुन”, “जुनून”, “स्पर्श”, “अल्बर्ट पिंटो को ग़ुस्सा क्यों आता है”, “भवानी भिवाई”, उमराव जान“, “बाज़ार”, “इजाज़त”, “जाने भी दो यारो”, “मंडी”, “पार”, “मिर्च मसाला” वग़ैरा उनकी यादगार फिल्में हैं। शेखर कपूर की डाइरेक्ट की हुई फ़िल्म “मासूम” को वो अपनी सबसे अच्छी फ़िल्म मानते हैं। आज-कल वो कई वैब सीरीज़ और शॉर्ट फिल्में भी कर रहे हैं। उनका मानना है कि इनमें उन्हें अपनी पसंद के रोल मिल रहे हैं। हाल में ही आई उनकी शॉर्ट फ़िल्म “दी मिनीयेचरिस्ट आफ़ जूनागढ़” (The Miniaturist Of Junagadh) का तज़्किरा हर ज़बान पर है।

उनकी शख़्सियत का सबसे रौशन पहलू उनकी हक़-गोई है। वो सफ़्फ़ाकी की हद तक सच्चे हैं। पंजाबी ज़बान में ऐसे शख़्स के लिए एक ख़ास लफ़्ज़ है “सचार”। यानी वो शख़्स जो हर हाल में सच बोले।

दूसरों के बारे में सच बोलना आसान है लेकिन अपने बारे में सच बोलना दुनिया का मुश्किल-तरीन काम है। उनके सच का नमूना वैसे तो उनकी पूरी ख़ुद-नविश्त ही है लेकिन जब वो अपने बारे में ये इन्किशाफ़ करते हैं कि पंद्रह साल की उम्र में पहली बार “जिन्सी तलज़्ज़ुज़” के हुसूल के लिए “पैसे” देकर वो एक बंजारन के पास गए थे या कि उनकी “हशीश” की आदत से रत्ना बहुत परेशान थीं।

“रत्ना ने कुछ वक़्त तक मेरी हशीश की आदत छुड़ाने की बे-जान कोशिश की, फिर शायद समझ गई कि हशीश उस का रक़ीब तो नहीं है, दीना (रत्ना की माँ) को बहर-हाल आख़िर तक उस से चिढ़ बनी रही और जब भी मैं सिगरेट सुलगाता तो नाक सिकोड़कर हमेशा कहतीं “कुछ जल रहा”। मैंने कई बार, सिर्फ़ मज़ाक़ में नहीं, उन से एक दो कश लगवाने की नाकाम कोशिश की कि उनकी काया का तनाव कम हो।

इसी तरह से उन्होंने अपनी बेटी “हीबा” और अपने रिश्ते के बारे में भी लिखा है कि किस तरह शुरूआती सालों में उन्होंने उस को बिल्कुल इग्नोर किया। हीबा उनकी पहली बीवी प्रवीण मुराद से है जो उम्र में उनसे चौदह साल बड़ी थीं और अलीगढ़ में पढ़ाई के दौरान उन्हें उनसे इश्क़ हो गया था। उस रिश्ते के बारे में भी इन्होंने अपनी किताब में खुल कर लिखा है। आज जब सवानह-ए-हयात सिर्फ़ इस लिए लिखी जाती है कि आदमी अपने आपको एक फ़रिश्ता साबित करना चाहता है, इसे जुरअत-ए-रिंदाना ही कहा जा सकता है। वो अपने बयानात की वज्ह से भी तनाज़ोआत और ट्रोलिंग का शिकार रहते हैं। एक तरह से उन्होंने अपना कैरियर तक दाव पर लगा दिया लेकिन अगर उन्हें किसी बात के तअल्लुक़ से ये यक़ीन हो गया कि वो हक़ है, तो दुनिया की कोई ताक़त उनका मुँह नहीं बंद करा सकती है। ऐसे आदमी को तो सैलूट करना बनता है। आज उनका जन्म-दिन है। वो आज के ही दिन या’नी 20 जुलाई सन 1949 को बाराबंकी में पैदा हुए थे। नसीर साहब जन्म-दिन बहुत बहुत मुबारक हो। ऐसे ही अपनी अदाकारी और हक़-गोई से दिलों को गर्माते राहिए।