इन दास्तानों में हमें हमेशा बुराई पर अच्छाई की जीत मिलती है

उर्दू अदब को दो अस्नाफ़ में तक़्सीम किया जा सकता है, नस्र और शाइरी। कहा जाता है कि बेहतरीन अल्फ़ाज़ का इस्ते’माल नस्र और बेहतरीन अल्फ़ाज़ का बेहतरीन इस्ते’माल शाइरी है।

उर्दू अदब की आलमी शिनाख़्त के लिहाज़ से नस्र का मक़ाम शाइरी के मुक़ाबले में बहुत कम ठहरता है। शाइरी के बारे में हम सब जानते हैं कि शाइरी को दो अस्नाफ़ में बाँटा गया है एक ग़ज़ल और दूसरा नज़्म। और दोनों ही मौज़ूआत पर हम पहले भी गुफ़्तगू कर चुके हैं। आइन्दा भी करते रहेंगे मगर आज का मौज़ूअ नस्र के हवाले से है ख़ास-तौर से दास्तान के हवाले से।

दास्तान क्या है

नस्र के लिहाज़ से उर्दू अदब की क़दीम-तर सिन्फ़ दास्तान को कहा गया है। उर्दू अदब का नहवी जुज़्व बुनियादी तौर पर नामी महाकावी कहानियों की क़दीम- तर शक्ल तक ही महदूद था जिसे दास्तान कहा जाता था। इन लम्बी कहानियों के पेचीदा प्लॉट तिलिस्म, जादुई और दीगर हैरत-अंगेज़ मख़्लूक़ और वाक़िआत से लबरेज़ होते थे। इस सिन्फ़ की इब्तेदा Middle East में हुई और और लोक कथाकारों द्वारा इसका प्रसार किया गया। इंफ़िरादी मुसन्नफ़ीन की जानिब से मुल्हक़ दास्तान के प्लॉटों की बुनियाद लोक कथाओं और क्लासिकी अदबी मज़ामीन दोनों पर रही है। ख़ास-तौर पर उर्दू अदब में मशहूर दास्तान मशरिक़ी अदब में दीगर अस्नाफ़ जैसे फ़ारसी मसनवी, पंजाबी क़िस्सा, सिन्धी वाक़िआती बैत और यूरोपी नावेल की तर्ज़ की याद दिलाती है। दास्तानगोई oral storytelling art form या’नी मौखिक कहानी कला का रूप है। दास्तान की फ़ारसी शैली 16 वीं शताब्दी में विकसित हुई। दास्तानगोई के सबसे शुरुआती हवालों में से एक ‘दास्तान- ए- अमीर हम्ज़ा है’ जो उन्नीसवीं सदी में 46 वॉल्यूम के साथ प्रिंट हुई थी।

कहा जाता है कि उन्नीसवीं सदी में बर्रे-सग़ीर में दास्तानगोई अपने उरूज पर थी और 1928 के आते-आते मीर बाक़र अली के निधन के साथ ही इसका ख़ात्मा भी हो गया। इतिहासकार, लेखक और हिदायतकार महमूद फ़ारूक़ी 2005 में नए सिरे से इस की तश्कील की। उन्नीसवीं सदी के दास्तानगो में अंबा प्रसाद रासा, मीर अहमद अली रामपुरी, मुहम्मद अमीर ख़ान, सैयद हुसैन और ग़ुलाम रज़ा का नाम अहम है।

हिन्दुस्तानी Urban anthropologist ग़ौस अंसारी के मुताबिक़ दास्तान-गोई की इब्तेदा पूर्व इस्लामिक अरब में हुई और उन्होंने बताया कि किस तरह से इस्लाम के पूर्व प्रसार ने दास्तानगोई को ईरान और फिर भारत में दिल्ली तक पहुँचाया। 1857 के इंक़लाब की ताईद में दास्तान-गोई ने दिल्ली से लखनऊ जाने का रास्ता बनाया और इसी दौरान कई कलाकार, लेखक और दास्तान-गो दिल्ली से लखनऊ चले गए। लखनऊ में दास्तान-गोई हर तबक़े में मक़बूल थी। और इसे मुख़्तलिफ़ मक़ामात पर जैसे चौकों, अफ़ीम- ख़ानों और निजी घरानों वग़ैरा में बा-क़ाएदगी से पेश किया जाता था। दास्तान अफ़ीम के आदी अफ़राद में इस क़दर मशहूर हो गई थी कि उन्होंने दास्तान सुनने को अपनी मजलिस का अहम उन्सुर क़रार कर दिया था। अंसारी लिखते हैं कि लम्बा नशा और (पेशेवर दास्तान सुनाने वालों की) लम्बी दास्तानें एक दूसरे से मुश्तर्का थीं। हर एक अफ़ीम के अड्डे पर अफ़ीम के नशेड़ियों की तफ़रीह के लिए दास्तानें सुनाने के लिए यहाँ तक कि अमीर और निजी घरानों में स्टाफ़ के तौर पर एक-एक दास्तान-गो को रखा जाने लगा था। उन्नीसवीं सदी के लखनऊ के मक़बूल मुसन्निफ़ और इतिहासकार अब्दुल हलीम शरर के मुताबिक़ दस्तानगोई की कला को “जंग”, “ख़ुशी,” “ख़ूब- सूरती “, “मुहब्बत “दग़ा- बाज़ी या धोका- देही” जैसे उन्वानों में बाँट दिया गया था। इब्तेदाई दास्तान-गोयों ने जादू, जंग और रोमांच की दास्तानें कही। और दीगर दास्तानों जैसे अरेबियन नाइट्स, रूमी जैसे दास्तान-गोयों और पंचतंत्र जैसी कथात्मक परंपराओं से मुतअस्सिर हुए और इनसे स्वतंत्र रूप से मौज़ूअ उधार लिए। चैदहवीं सदी से, फ़ारसी दास्तानगोई ने इस्लामी पैगंबर हज़रत मुहम्मद के चाचा अमीर हम्ज़ा की ज़िन्दगी और रोमांच पर तवज्जो मर्कूज़ करना शुरू’ कर दिया। दास्तानगोई की हिन्दुस्तानी धारा ने दास्तानों में अय्यारी या छल जैसे कहानी के उन्सुर भी शामिल किए।

कुछ ख़ास दास्तानें

सब रस — मुल्ला वजही

नौ तर्ज़- ए-मुरस्सा — हुसैन अता ख़ान तहसीन

नौ आईन-ए-हिन्दी — मेह’र चन्द खत्री

जज़्बा-ए-इश्क़ — शाह हुसैन हक़ीक़त

नौ-तर्ज़-ए-मुरस्सा — मुहम्मद हादी अ.क.अ. मिर्ज़ा मुग़ल ग़ाफ़िल

आराइश-ए-महफ़िल (क़िस्सा-ए-हातिम ताई) — हैदर बख़्श हैदरी

बाग़-ओ-बहार (क़िस्सा-ए-चहार दरवेश) — मीर अम्मन

दस्तान-ए-अमीर हम्ज़ा — ख़लील अली ख़ान अश्क

फ़साना-ए-अजाएब — रजब अली बेग सुरूर

देवल देवी- ख़िज़्र ख़ान (वाघेला राजकुमारी और दिल्ली के ख़िलजी बादशाह की रोमांटिक दास्तान) — अमीर खुसरो

ख़मसा (ख़मसा- ए- ख़ुसरो) पाँच क्लासिकी रोमांस दास्तानें- ‘हिश्त- बिहिश्त’, ‘मतलुल-अनवर’, ‘ख़ुसरो और शीरीन’, ‘लैला और मजनूँ’ और ‘आइना- सिकन्दरी’ — अमीर ख़ुसरो