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उन्होंने हमेशा पाकिस्तानी फ़ौजी तानाशाहों का खुले-आम विरोध किया

उर्दू अदब में ‛‛हबीब जालिब’’साहब एक ख़ास मक़ाम रखते हैं, वो एहतिजाज की शायरी को एक नई बुलंदी तक लेकर गए, अवाम के दर्द को जितना क़रीब से उन्होंने देखा उसे महसूस किया और उसके बारे में लिखा ऐसा उस दौर में बहुत ही कम शायरों ने किया। लोगों ने उन्हें शायर-ए-अवाम का दर्जा भी दिया। वो उस वक़्त के सबसे ज़ियादा पढ़े जाने वाले और मक़बूल शायरों की फ़ेहरिस्त में सबसे आगे थे। हबीब जालिब साहब ने पाकिस्तान में हमेशा मार्शल लॉ की मुख़ालिफ़त की क्योंकि वो जानते थे कि इस ‘लॉ’ में किस तरह से एक आम इंसान के हुक़ूक़ तलफ़ किए जाते हैं। इस सिलसिले में उन्हें पुलिस की लाठियाँ भी खानी पड़ी और जेल भी जाना पड़ा।

हबीब जालिब साहब 24 मार्च 1928 में पंजाब के जिला होशियारपुर के इलाक़े मियानी अफ़ग़ाना में पैदा हुए, बुनियादी तालीम भी यहीं से हासिल की, उनका अस्ल नाम हबीब अहमद था। उनके वालिद साहब का नाम ‛‛सूफ़ी इनायतुल्लाह’’ और उनकी वालिदा का नाम ‛‛राबिया बसरी’’ था।

कहा जाता है कि हबीब जालिब साहब 18-19 साल की उम्र तक पाकिस्तान नहीं आए थे, उनके दोस्त सब यहीं पर थे लेकिन बाद में उन्हें मजबूरन पाकिस्तान आना पड़ा। यहाँ आने के बाद उन्होंने कराची में ‛‛डेली इमरोज़’’ में प्रूफ़ रीडर की हैसियत से काम करना शुरू किया, यहीं उन्होंने कुछ मुशायरे भी पढ़े, बाद में वो लाहौर चले गए और फिर वहीं क़याम-पज़ीर हुए। उन्होंने मुमताज़ बेगम से शादी की जिनसे उन्हें तीन बेटे और पाँच बेटियाँ हुईं।

कहा जाता है कि वो कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ़ पाकिस्तान में कैंडिडेट मेम्बरशिप की हैसियत से काम करते रहे, आगे चलकर इस पार्टी पर पाबंदी लगा दी गई। 1959 में जनरल अय्यूब ख़ान का मार्शल लॉ चल रहा था, तानाशाही की बुलंदी आसमान छू रही थी। जिससे सत्ता का चेहरा बेहतर दिखाई दे, हर जगह वही लिखा और बोला जा रहा था। बहुत सारे शायर और लेखक ने भी सत्ता से समझौते कर लिए ऐसे में हबीब जालिब का वजूद उस समाज के लिए और ज़रूरी हो जाता है। इन्हीं दिनों में एक मुशायरा हुआ, जिसमें सभी शायरों ने इश्क़-ओ-मोहब्बत पर ग़ज़लें पढ़ीं, लेकिन उन्हीं में बैठे हबीब जालिब साहब ने ये शेर पढ़कर मंज़र ही बदल दिया।

कहीं गैस का धुआँ है, कहीं गोलियों की बारिश
शब-ए-अहद-ए-कम-निगाही तुझे किस तरह सुनाएँ

ये शेर सुनने के बाद मुशायरा को फ़ौरन बंद करा दिया गया और हबीब जालिब साहब को जेल भेज दिया गया , मगर इस शेर ने तब तक कहीं न कहीं लोगों की सोच पर गहरा असर पैदा कर दिया था। कुछ सालों बाद वो नेशनल अवामी पार्टी का हिस्सा बने। ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो ने जब अपनी नई पार्टी बनाई तो उन्होंने हबीब जालिब साहब को पार्टी में शामिल होने को कहा लेकिन उन्होंने इसे क़ुबूल नहीं किया। इस दौर में उन पर झूठा आरोप भी लगाया गया। उन्होंने जनरल अय्यूब ख़ान की नीतियों के ख़िलाफ़ भी नज़्म लिखी जो अवाम में बेहद मक़बूल हुई। इस नज़्म को सुनने के बाद जनरल ने उन्हें जेल में बंद करवा दिया। नज़्म देखें:-

बीस घराने हैं आबाद
और करोड़ों हैं नाशाद
सद्र अय्यूब ज़िंदाबाद
आज भी हम पर जारी है
काली सदियों की बेदाद
सद्र अय्यूब ज़िंदाबाद

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कुछ सालों के बाद जनरल अय्यूब ख़ान एक नया संविधान लेकर आए, जिसका हबीब जालिब ने ख़ूब विरोध किया और एक नज़्म लिखी। ये नज़्म उन्होंने ‛‛नासिर बाग़’’ में पढ़ी। इस के बाद तो ये नज़्म की शोहरत को गोया पर लग गए , और जहाँ जहाँ भी ज़ुल्म , ख़ौफ़ का माहौल रहा , ये नज़्म गुनगुनाई जाने लगी। नज़्म देखें:-

दीप जिस का महल्लात ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को ले कर चले
वो जो साए में हर मस्लहत के पले
ऐसे दस्तूर को सुब्ह-ए-बे-नूर को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

मैं भी ख़ाइफ़ नहीं तख़्ता-ए-दार से
मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़्यार से
क्यूँ डराते हो ज़िंदाँ की दीवार से
ज़ुल्म की बात को जहल की रात को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

फूल शाख़ों पे खिलने लगे तुम कहो
जाम रिंदों को मिलने लगे तुम कहो
चाक सीनों के सिलने लगे तुम कहो
इस खुले झूट को ज़ेहन की लूट को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

तुम ने लूटा है सदियों हमारा सुकूँ
अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फ़ुसूँ
चारागर दर्दमंदों के बनते हो क्यूँ
तुम नहीं चारागर कोई माने मगर
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

हबीब जालिब साहब ने हमेशा ग़लत बोलने वाले और क़ौम को भटकाने वालों के ख़िलाफ़ खड़े रहे चाहे वो जनरल ज़िया उल हक़ हो या यहया ख़ान या फिर जनरल अय्यूब ख़ान। ग्यारह फ़रवरी 1965 को पाकिस्तान के गवर्नर मलिक अमीर मोहम्मद ख़ान से कोई ग़ैर-मुल्की साहब मिलने आए हुए थे, उनके लिए डिनर और सक़ाफ़ती शो का एहतिमाम किया गया। गवर्नर ने उस वक़्त की मशहूर अदाकारा नीलो को रक़्स करने के लिए तलब किया, लेकिन नीलो ने साफ़ साफ़ इनकार कर दिया, जिसके बाद उन्हें धमकियाँ दीं और बेइज़्ज़त किया गया। नीलो पर इस बेइज़्ज़ती का इतना असर हुआ कि उसने काफ़ी मिक़दार में नींद की गोलियाँ खाकर ख़ुदकुशी करने की कोशिश की, नीलो को बेहोशी की हालत में हस्पताल पहुँचाया गया जहाँ डाक्टरों ने उनकी जान बचा ली। ये बात पाकिस्तान की फ़िल्मी दुनिया में बहुत तेज़ी से फैल गई। पाकिस्तान फ़िल्म प्रोडयूसर्ज़ एसोसीएशन और फ़िल्म स्टार एसोसीएशन ने इस पर काफ़ी एहतिजाज और हड़ताल भी की। इस वाक़ए से मुतअस्सिर होकर हबीब जालिब साहब ने एक नज़्म लिखी जो कि बाद में ग़ालिबन फ़िल्म ‘जरक़ा’ (1969) का हिस्सा बनी। नज़्म देखें:-

तू कि ना-वाक़िफ़-ए-आदाब-ए-शहंशाही थी
रक़्स ज़ंजीर पहन कर भी किया जाता है
तुझ को इंकार की जुरअत जो हुई तो क्यूँकर
साया-ए-शाह में इस तरह जिया जाता है

अहल-ए-सर्वत की ये तज्वीज़ है सरकश लड़की
तुझ को दरबार में कोड़ों से नचाया जाए
नाचते नाचते हो जाए जो पायल ख़ामोश
फिर न ता-ज़ीस्त तुझे होश में लाया जाए

लोग इस मंज़र-ए-जांकाह को जब देखेंगे
और बढ़ जाएगा कुछ सतवत-ए-शाही का जलाल
तेरे अंजाम से हर शख़्स को इबरत होगी
सर उठाने का रेआया को न आएगा ख़याल

तब्-ए-शाहाना पे जो लोग गिराँ होते हैं
हाँ उन्हें ज़हर भरा जाम दिया जाता है
तू कि ना-वाक़िफ़-ए-आदाब-ए-शहंशाही थी
रक़्स ज़ंजीर पहन कर भी किया जाता है

हबीब जालिब साहब को सबसे ज़ियादा परेशानियों का सामना जनरल ज़िया उल हक़ के दौर में करना पड़ा। जनरल ने पाकिस्तान में इस्लामी क़ानून ज़बरदस्ती लागू किया, लेकिन हबीब जालिब साहब कहाँ हार मानने वालों में से थे, उन्होंने इसका भी ख़ूब विरोध किया। उसी दौरान उन्होंने एक नज़्म भी लिखी जिसे अवाम ने ख़ूब पसंद किया और मक़बूल बनाया। नज़्म देखें:-

ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
पत्थर को गुहर दीवार को दर कर्गस को हुमा क्या लिखना
इक हश्र बपा है घर में दम घुटता है गुम्बद-ए-बे-दर में
इक शख़्स के हाथों मुद्दत से रुस्वा है वतन दुनिया-भर में
ऐ दीदा-वरो इस ज़िल्लत को क़िस्मत का लिखा क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना

ये अहल-ए-हश्म ये दारा-ओ-जम सब नक़्श बर-आब हैं ऐ हमदम
मिट जाएँगे सब पर्वर्दा-ए-शब ऐ अहल-ए-वफ़ा रह जाएँगे हम
हो जाँ का ज़ियाँ पर क़ातिल को मासूम-अदा क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना

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इस नज़्म को सुनने के बाद जनरल ने उन्हें तुरंत जेल भिजवा दिया, ये कहा जा सकता है कि जनरल ज़िया उल हक़ के दस साल के शासन में हबीब जालिब साहब कई बार जेल गए। ग़ालिबन इसी दौरान उन्होंने जेल में नूर-जहाँ और लता मंगेशकर के लिए नज़्में लिखीं।

नूर-जहाँ के लिए लिखी नज़्म:-

हुजूम-ए-यास में जोत आस की तिरी आवाज़
हम अहल-ए-दर्द की है ज़िंदगी तिरी आवाज़
लबों पे खिलते रहें फूल शेर-ओ-नग़्मा के
फ़ज़ा में रंग बिखेरे यूँही तिरी आवाज़
दयार-ए-दीदा-ओ-दिल में है रौशनी तुझ से
है चेहरा चाँद मधुर चाँदनी तिरी आवाज़
हो नाज़ क्यूँ न मुक़द्दर पे अपने ‘नूर-जहाँ’
तुझे क़रीब से देखा सुनी तिरी आवाज़
न मिट सकेगा तिरा नाम रहती दुनिया तक
रहेगी यूँही सदा गूँजती तिरी आवाज़

लता मंगेशकर के लिए लिखी नज़्म:-

तेरे मधुर गीतों के सहारे
बीते हैं दिन रेन हमारे
तेरी अगर आवाज़ न होती
बुझ जाती जीवन की जोती
तेरे सच्चे सुर हैं ऐसे
जैसे सूरज चाँद सितारे
तेरे मधुर गीतों के सहारे
बीते हैं दिन रेन हमारे
क्या क्या तू ने गीत हैं गाए
सुर जब लागे मन झुक जाए
तुझ को सुन कर जी उठते हैं
हम जैसे दुख-दर्द के मारे
तेरे मधुर गीतों के सहारे
बीते हैं दिन रेन हमारे
‘मीरा’ तुझ में आन बसी है
अंग वही है रंग वही है
जग में तेरे दास हैं इतने
जितने हैं आकाश पे तारे
तेरे मधुर गीतों के सहारे
बीते हैं दिन रेन हमारे

जनरल ज़िया उल हक़ के दस साल के शासन के बाद बेज़नीर भुट्टो सामने आईं, वो भी अपनी पार्टी को पाकिस्तान की नज़रों में बेहतर दिखाना चाहती थीं मगर हबीब जालिब साहब ने इस बार भी ऐसा न होने दिया उन्होंने अपना क़लम उठाया और लिखा।

हाल अब तक वही हैं ग़रीबों के
दिन फिरे हैं फ़क़त वज़ीरों के
हर बिलावल है देश का मकरोज
पांव नंगे हैं बेनज़ीरों के

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मोहम्मद अली जिन्नाह और बहन फ़ातिमा जिन्नाह के लिए हमेशा हबीब जालिब साहब खड़े रहे। वो चुनाव में खड़ी हो रही थीं, जिन्हें देखकर हबीब जालिब साहब को ऐसा महसूस हो गया था कि अब अगर पाकिस्तान को कोई सँभाल सकता है तो वो फ़ातिमा जिन्नाह हैं। अय्यूब ख़ान की तानाशाही के ख़िलाफ़ खड़े लोग फ़ातिमा जिन्नाह को सपोर्ट कर रहे थे हबीब जालिब साहब को देखकर लोगों ने उनका और मनोबल बढ़ाया। अयूब ख़ान चुनाव जीत गए लेकिन भारत-पाक युद्ध से मिली हार ने पाकिस्तान को काफ़ी कमज़ोर कर दिया था। जिसके बाद उन्हें सत्ता छोड़नी पड़ी। हबीब जालिब साहब ने अपनी आधी ज़िन्दगी जेल में और आधी अस्पताल में काटी, उन्होंने अपने घर पर कम ही ध्यान दिया जिसकी वजह से उनके परिवार को काफ़ी दिक़्क़तें आईं जो अब तक बनी हुई हैं उनकी बेटी ताहिरा जालिब ड्राइविंग सिखाती हैं और भाई छोटा मोटा काम करके अपनी ज़िंदगी काट रहे हैं। हबीब जालिब साहब को यूँ तो कई मौके मिले अमीर होने के मगर वो अपने फ़ैसलों से समझौता करने को तैयार न थे। उनके लिए जो बात ग़लत थी वो ग़लत ही थी। उन्होंने हमेशा सच कहा और सच ही लिखा।

उनकी किताबों में अहद-ए-सज़ा, बर्ग-ए-आवारा, सर-ए-मक़्तल, गुम्बद-ए-बे-दार, अहद-ए-सितम, गोशे में क़फ़स के, इस शहर-ए-ख़राबा में, और ज़िक्र बहते ख़ून का, कुल्लियात-ए-हबीब जालिब शामिल हैं। उनकी पहली किताब सर-ए-मक़्तल थी जिसे की छपने नहीं दिया गया लेकिन आख़िर-ए-कार वो मंज़र-ए-आम पर आई और ख़ूब मक़बूल हुई। मशहूर शायर इफ़्तिख़ार आरिफ़ ने हबीब जालिब साहब की शायरी का एक मजमुआ जिसका नाम हर्फ़-ए-सर-ए-दार था लंदन से शाया करवाया जिसे अवाम ने हर बार की तरह ख़ूब पसंद किया।

12 मार्च 1993 को उन्होंने हम सभी को अलविदा कह दिया। इस मज़मून का इख़्तिताम मैं उनकी क़ब्र पर लिखे इस शेर से करना चाहूँगा।

अब रहें चैन से बे-दर्द ज़माने वाले
सो गए ख़्वाब से लोगों को जगाने वाले