देवेन्द्र सत्यार्थी: वो आदमी जिसने हिन्दोस्तान के गाँव-गाँव जा कर लोकगीत जमा किए
एक बार साहिर लुधियानवी और देवेन्द्र सत्यार्थी लाहौर से लायलपुर जा रहे थे, लेकिन जब वो स्टेशन में दाख़िल हुए तो उन्हें मालूम हुआ कि गाड़ी पूरी तरह भरी हुई है और किसी भी डिब्बे में तिल रखने की भी जगह बाक़ी नहीं है। कुछ लोग ट्रेन की छत पर भी सवार हैं। साहिर ने किसी तरह एक बोगी में घुसने की कोशिश की, लेकिन सत्यार्थी ने एक नई तज्वीज़ पेश करते हुए कहा, “चलो मिल्ट्री डब्बे में किसी सिपाही से बात करते हैं।”
साहिर ने मना करते हुए कहा, “इसका कोई फ़ाएदा नहीं है। वो जगह नहीं देंगे।”
सत्यार्थी ने साहिर की बात को नज़र-अंदाज़ करते हुए मिल्ट्री डब्बे के सामने जा कर एक सिपाही से कहा, “मैं एक शाइर हूँ और लायलपुर जाना चाहता हूँ। अगर आप मुझे अपने डिब्बे में जगह दे दें तो मैं सारे रास्ते आपको गीत सुना सकता हूँ।”
फ़ौजी ने बे-रुख़ी के अंदाज़ में जवाब दिया, “हमें कोई गीत-वीत नहीं चाहिए।”
दूसरे फ़ौजी ने पूछा, “क्या माँग रहा है?”
तीसरे फ़ौजी ने बंगाली ज़बान में कुछ जवाब दिया।
सत्यार्थी ने फिर कहा, “मैं सच-मुच शाइर हूँ। मुझे सारी ज़बानें आती हैं।”, इतना कह कर सत्यार्थी ने बंगाली में बात करना शुरू कर दिया।
एक फ़ौजी ने खिड़की से सर बाहर निकालते हुए पूछा, “क्या तमिल भी जानते हो?”
“तमिल, मराठी, गुजराती, पंजाबी सब जानता हूँ। आपको हर ज़बान में गीत सुनाऊँगा।”
फ़ौजी ने अच्छा कहा और सत्यार्थी उससे तमिल में बात करने लगे।
तभी इंजन ने सीटी दी और सत्यार्थी ने पूछा, “क्या हम अंदर आ जाएँ?”
फ़ौजी के झिजकने पर सत्यार्थी ने ख़ुद ही कहा, “अगर गीत पसंद न आएँ तो हमें अगले स्टेशन पर उतार दीजिएगा।”
ये सुन कर फ़ौजी ने हँसते हुए उन्हें अंदर बुला लिया।
जो लोग देवेन्द्र सत्यार्थी के नाम और उनकी ख़िदमात से वाक़िफ़ नहीं हैं, इस वाक़िए की बिना पर वो उनकी शख़्सियत के बारे में वो कुछ न कुछ क़यास ज़रूर लगा सकते हैं।
बढ़ी हुई दाढ़ी-मूँछें, कंधों पर बिखरे रहने वाले बाल, खद्दर का कुर्ता-पायजामा, उसके ऊपर से एक मैला ओवर-कोट पहने, बग़ल में काग़ज़ों का एक पुलिंदा दबाए और चेहरे पर एक दरवेशाना आसूदगी लिए वो दिल्ली में कहीं भी नज़र आ जाया करते थे। कभी किसी गली-नुक्कड़ पर, कभी किसी कबाड़ी की दुकान पर, कभी किसी होटल में، तो कभी किसी शाहराह पर। लेकिन जब वो नज़र नहीं आते थे तो कई-कई महीनों नज़र नहीं आते थे। ख़ुद उनके घर वालों को ख़बर नहीं होती थी कि सत्यार्थी इस वक़्त कौन से शहर में हैं, कहाँ हैं और वो वापस कब आएँगे। उनका ज़िक्र करने पर मुझे जाने क्यों मीरा-जी का एक शेर याद आता है, शायद इसलिए कि मीरा-जी ख़ुद भी आवारा-सिफ़त थे और कहीं भी ज़ियादा दिन ठहरना उन्हें गवारा न होता था। शेर यूँ है :
नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर घर का रस्ता भूल गया
क्या है तेरा क्या है मेरा अपना पराया भूल गया
सत्यार्थी की पैदाइश 28 मई 1908 ई. को भदौड़, बरनाला यानी पंजाब में हुई थी। पंजाब में लोक-गीतों और लोक-कथाओं की मुस्तहकम रवायत मौजूद है। सत्यार्थी को बचपन से ही लोक-गीतों से शग़फ़ था। 1923 में जब उन्होंने टैगोर की गीतांजली का तर्जुमा पढ़ा तो उन्हें ख़याल आया, कि जिन गीतों की फ़िज़ा में वो साँस लेते हैं और जिन्हें वो महसूस करते हैं, क्या वो गीत नोबल प्राइज़ के मुस्तहिक नहीं हैं? और उन्होंने लोक-गीत जमा करने का मंसूबा बना लिया।
सत्यार्थी ने डी.ए.वी. कौलेज, लाहौर में दाख़िला लिया था, लेकिन एक दोस्त की अचानक मौत हो जाने से उन्हें गहरा सदमा पहुँचा और उन्होंने 1927 में, यानी 19 साल की उम्र में अपनी पढ़ाई तर्क कर दी। वो ख़ुद-कुशी के इरादे से रावी किनारे गए तो इत्तिफ़ाक़ से उस वक़्त आशिक़ बटालवी वहीं मौजूद थे। उन्होंने सत्यार्थी को रोका और अल्लामा इक़बाल के पास ले गए। अल्लामा इक़बाल ने उन्हें समझाया, भगवत गीता के हवाले से ज़िंदगी जीने का सबक़ दिया। वो कुछ सँभले तो लोक-गीतों की तलाश में जम्मू चले गए।
आख़िर उनके घर वालों ने उनकी फ़ितरत से परेशान हो कर उनकी वो नोटबुक जला डाली जिसमें वो गीत जमा किया करते थे, लेकिन सत्यार्थी ने ना-उम्मीद न होते हुए अज़-सर-ए-नौ गीत जमा करना शुरू कर दिया। घर वालों ने उन्हें रोकने के लिए 1929 ई. में उनकी शादी कर दी। शादी के चंद ही दिनों बाद वो सुब्ह सब्ज़ियाँ ख़रीदने निकले और दो बरस बाद घर लौटे। इसके बाद जब सत्यार्थी दोबारा सफ़र पर निकलने को तैयार हुए तो उनकी बीवी ने साथ चलने का इसरार किया और दोनों 9-10 बरसों तक मुसलसल हिन्दोस्तान, लंका और बरमा में सफ़र करते रहे और लोकगीत जमा करते रहे और वापस आ कर कुछ दिन लाहौर में क़याम किया।
सफ़र से वापस लौटने के बाद सत्यार्थी घर में बंद पड़े रहने की जगह अपने मुसव्विदे उठाए हुए दिल्ली में जगह-जगह सड़कों पर घूमते रहते जैसे कि ये उनका रोज़गार है जिसे किसी भी सूरत छोड़ा नहीं जा सकता।
वो ख़ामोशी से अपना काम करते रहे और न इसके बदले में शोहरत चाही, न कोई माली मदद। जब उनसे एक पब्लिशर ने एक भारी रक़म दे कर उनके जमा किए गीतों का कॉपीराइट ख़रीदने की कोशिश की तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया। जब उन्हें रेडियो को फ़राहम कराए हुए लोक-गीतों का कॉपीराइट दिए जाने की बात हुई तो उन्होंने अपने ही अंदाज़ में वाज़ेह कर दिया कि ये गीत उनके नहीं बल्कि इस धरती के हैं। इन गीतों पर किसी की मिल्कियत नहीं है।
सत्यार्थी ने इस तरह घूम-घूम कर तक़रीबन चार से पाँच लाख लोक-गीत जमा किए। अंग्रेज़ी, उर्दू, पंजाबी, हिन्दी, चारों ज़बानों में न जाने कितने मज़मून, कहानियाँ और नज़्में लिखीं, उनकी पचास से ज़ियादा किताबें शाया हुईं लेकिन उन्होंने न तो कभी अज़ीम होने का गुमान अपने ऊपर हावी होने दिया न ही लोगों के दरमियान एक क़द-आवर शख़्सियत नज़र आने की कोशिश की।
बलराज मैनरा ने लिखा है कि कभी सत्यार्थी किसी हद दर्जा अहमक़ के साथ घुल-मिल कर बातें करता नज़र आता है जिससे के साथ एक मिनट गुज़ारना दुश्वार है वहीं ऐसे VIP लोग जिनके पास दो घड़ी बैठने को मन तरसता है, उससे बे-तकल्लुफ़ी से बातें करते हैं तो ऐसा लगता है कि सत्यार्थी को अपनी अज़्मत का अंदाज़ा नहीं है।
सत्यार्थी को बहुत से लोगों ने फ़्राड कहा है, जिनमें पहला नाम मंटो का है। शमीम साहब (अल्लाह उनकी मग़फ़िरत फ़रमाए) ने सत्यार्थी पर बेहद अहम मज़मून लिखा है। वो लिखते हैं :
“गोश्त-पोस्त का बना आदमी इस दर्जा ट्रांसपेरैंट दिखाई दे तो खोट का ख़याल हमा-शुमा को होना ऐन मुताबिक़-ए-फ़ितरत है।”
और
“सत्यार्थी बड़ा था, लोगों के ज़र्फ़ छोटे थे।”
सत्यार्थी को 1997 में पद्मश्री से नवाज़ा गया। फिर भी सत्यार्थी वही आवारा-सिफ़त मुसाफ़िर बने रहे, जब तक कि उनकी सेहत ने उनका साथ दिया।
2016 में पहली बार जब Bob Dylan को नोबेल से नवाज़ा गया, सारी दुनिया के अदब से वाब्सतगी रखने वाले लोग पूरी तरह हैरान थे। Bob Dylan पहले गीतकार बने जिन्हें नोबेल मिला और इसकी वज्ह उनका अपने गानों के ज़रीए अमरीकी Folk Aesthetics और Tradition को फिर से ज़िंदा करने की उनकी मुहिम भी था। तो कहीं न कहीं, Folk को नोबेल मिलता देखने का सत्यार्थी का ख़्वाब भी पूरा हो गया।
लोकगीत हमारे इज्तिमाई हाफ़िज़े का हिस्सा होते हैं और हमारा लोक साहित्य हमें बताता है कि हम कौन हैं और कहाँ से आए हैं। हमारा लोक-साहित्य कहीं न कहीं हर मौक़े पर, हमारी ख़ुशियों, हमारे ग़मों और हमारी पहचान की तर्जुमानी करता है। सत्यार्थी ने हज़ारों मील का सफ़र किया, लेकिन आम सैलानियों की तरह नहीं। वो जहाँ भी गए, उन्होंने वहाँ की ज़बान और वहाँ के Folk को समझा, और जिन लोगों से उन्होंने गीत लिए, एक सत्ह पे उन्होंने उन गीतों को उन्हीं लोगों में से एक बन कर जिया भी।
लोक-साहित्य हमेशा से मौखिक रहा है यानी उसे लिखे जाने की कोई रवायत मौजूद नहीं थी। इसी वज्ह से कितने लोक-गीत, कितनी लोक-कथाएँ हमेशा के लिए फ़रामोश हो गईं, उनका कोई हिसाब नहीं। जो काम सत्यार्थी ने किया, वो सैंकड़ों लोग मिल कर भी नहीं कर सकते थे। सत्यार्थी हमेशा हमारी लोक-संस्कृति के आईना-दार बन के हमारे सामने रहेंगे और जब हम मुड़ कर अपनी लोक-गीतों की तरफ़ मुड़ कर देखेंगे तो ज़हन के किसी न किसी कोने में उनका शुक्रिया अदा करते रहेंगे।
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