उर्दू के बग़ैर पुरानी फ़िल्मों की कल्पना नहीं की जा सकती

जिन्हें भी उर्दू शायरी और सिनेमा से दिलचस्पी है वो आप को कई सारी ऐसी मिसालें दे कर बता सकते हैं कि उर्दू कितनी शीरीं ज़बान है। इस ज़बान में कितनी नरमी है और ये अपनी तहज़ीब से कितनी जुड़ी हुई नज़र आती है। इस ज़बान के आप सिर्फ़ दो लफ़्ज़ भी इस्तिमाल कर दें तो बात में इतना असर पैदा हो जाता है कि वो सामने वाले के दिल तक जा पहुँचती है। उर्दू शाइरी और सिनेमा को चाहने वालों के लिए इस कि ख़ूबसूरती को किसी के आगे बयाँ कर पाना बिल्कुल भी मुश्किल न होगा। उर्दू की बढ़ती हुई तादाद को देखते हुए पूरे यक़ीन से ये बात कही जा सकता है कि आने वाले वक़्त में बाक़ी लोग भी इसे अपने दिल में जगह ज़रूर देंगे और इस के जादू से आश्ना होंगे। उर्दू के हवाले से हिंदी के मशहूर कवि ‛‛शैलेश लोढ़ा’’ ने कहा था कि

‛‛उर्दू तहज़ीब देती है, तमीज़ देती है। बे-पढ़े लिखे को ऐसा जताती है जैसे कितना पढ़ा लिखा हो अगर दो लफ़्ज़ भी आप ढंग से बोल दें तो’’

एक शेर देखें:

उर्दू जिसे कहते हैं तहज़ीब का चश्मा है
वो शख़्स मोहज़्ज़ब है जिस को ये ज़बाँ आई

रविश सिद्दीक़ी

बॉलीवुड ने भी उर्दू का हाथ एक तवील वक़्त से थाम रक्खा है। बिला-शुबा ये बात कही जा सकती है कि उर्दू बॉलीवुड की फ़िल्मों, नग़्मों, डायलॉग्स की ख़ूबसूरती में दिन-ब-दिन इज़ाफ़ा करती आ रही है। शायद ही कोई ऐसी फ़िल्म, नग़्मा, डायलॉग हमारी ज़िंदगी से गुज़रा होगा जिस में आप को उर्दू का रंग कम दिखाई दिया हो, ज़ियादा असरात ज़ेहन-ओ-दिल पर उन्हीं फ़िल्मों, नग़्मों, डायलॉग्स ने किया जिस में उर्दू थी। पुराने नग़्मों को इस लिए अहमियत दी जाती है क्योंकि उस में आज भी उर्दू की आँच मौजूद है।

‛‛हसन कमाल’’ की लिखी हुई ये ग़ज़ल:

दिल के अरमाँ आँसुओ में बह गए
हम वफ़ा कर के भी तन्हा रह गए

शायद उन का आख़िरी हो ये सितम
हर सितम ये सोचकर हम सह गए

ज़िंदगी इक प्यास बनकर रह गई
प्यार के क़िस्से अधूरे रह गए

ख़ुद को भी हम ने मिटा डाला मगर
फ़ास्ले जो दरमियाँ थे रह गए

ये ग़ज़ल हर उस इंसान की ज़िंदगी से ज़रूर गुज़री होगी, जिस ने सिनेमा और उर्दू को पसंद किया है या उस में दिलचस्पी रक्खी है।

1982 में रिलीस हुई फ़िल्म ‛‛निकाह’’ में ये ग़ज़ल शामिल है। वैसे तो कई सारी ऐसी बेहतरीन फ़िल्में हैं जिन में उर्दू की ख़ूबसूरती को ज़ाहिर किया गया है, उसे सँवारा गया है। उन सभी बेहतरीन फ़िल्मों में एक नाम ‛‛निकाह’’ का भी आता है। इस फ़िल्म ने उर्दू के चाहने वाले लोगों के दिल में एक मख़्सूस जगह बनाई है।

हैदर और नीलोफ़र एक ही कॉलेज में पढ़ रहे होते हैं। हैदर को शेर-ओ-शायरी में ख़ूब दिलचस्पी होती है वो ग़ज़लें भी कहते हैं। हैदर और उन के दोस्त शर्त लगाते हैं की नीलोफ़र के शाने पर हाथ रख कर दिखाइए ! हैदर नीलोफ़र के पास जाते हैं और उन के शाने पर हाथ रख कर फ़ौरन हटा लेते हैं नीलोफ़र के ग़ुस्से से बचने के लिए वो कोई और बात शुरू कर देते हैं। बस यहीं से इस प्यार का आग़ाज़ हो जाता है। हैदर गुलाब ले कर उन के घर तक भी चले जाते हैं मगर नीलोफ़र उन पर बहुत ग़ुस्सा होती हैं और उन्हें वापस भेज देती हैं। हैदर इस बात को दिल पे लेकर उदास रहने लगते हैं। कॉलेज की अलविदाई महफ़िल के लिए उन्हें ग़ज़ल पढ़ने को कहा जाता है मगर वो मना कर के चलने लगते हैं इतने में पीछे से नीलोफ़र उन्हें आवाज़ दे कर रोकती हैं और उन्हें मनाने की कोशिश करती हैं। हैदर मान जाते हैं। कॉलेज ख़त्म हो जाता है और हैदर को नीलोफ़र का राब्ता भी। कुछ सालों बाद हैदर एक पत्रिका के संपादक बन जाते हैं यहीं उन की नीलोफ़र से अचानक मुलाक़ात होती है। आगे की कहानी के लिए आप को फ़िल्म ही देखनी पड़ेगी इसी फ़िल्म से ‛‛हसरत मोहानी’’ की इंतिहाई मक़बूल ग़ज़ल देखें जिसे ग़ुलाम अली ने अपनी आवाज़ दे कर सदा बहार बना दिया है।

चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है
हम को अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है

खींच लेना वो मिरा पर्दे का कोना दफ़अ’तन
और दुपट्टे से तिरा वो मुँह छुपाना याद है

फ़िल्म के अदाकार ‛‛हैदर’’ (राज बब्बर), ‛‛वसीम’’ (दीपक पराशर) अदाकारा नीलोफ़र (सलमा आग़ा) हैं। इस फ़िल्म के निर्देशक और निर्माता ‛‛बलदेव राज चोपड़ा’’ हैं। फ़िल्म के गुलू-कार ‛‛महेंद्र कपूर’’ ‛‛सलमा आग़ा’’ ‛‛आशा भोंसले’’ जी हैं संगीत ‛‛रवि’’ जी ने दिया है और इसी के साथ ‛‛हसन कमाल’’ के याद रह जाने वाले नग़्में और ग़ज़ल। इन सभी नामों को पढ़ने के बाद मुझे मालूम है कि आप की इस फ़िल्म को देखने की प्यास और शदीद हो गई होगी। इसी फ़िल्म से एक नग़्मा देखें।

अभी अलविदा मत कहो दोस्तो
न जाने फिर कहाँ मुलाक़ात हो, क्योंकि
बीते हुए लम्हों की कसक साथ तो होगी
ख़्वाबों में ही हो चाहे मुलाक़ात तो होगी

ये साथ गुज़ारे हुए लम्हात की दौलत
जज़्बात की दौलत ये ख़्यालात की दौलत
कुछ पास न हो पास ये सौगात तो होगी

बीते हुए लम्हों की कसक साथ तो होगी
ख़्वाबों में ही हो चाहे मुलाक़ात तो होगी

फ़िल्म के कुछ डायलॉग्स देखें और बताएँ की अगर इन में उर्दू का इस्तिमाल न होता तो क्या वो ख़ूबसूरती पैदा होती ?

1:- या अल्लाह मर्द को तौफ़ीक़ दे कि वो औरत की बे-इज़्ज़ती न करे।

2:- मोहतरम जनाब एडिटर साहब। आदाब और तस्लीमात के बाद अर्ज़ है कि आप का ख़त मिला। हालात से आगाही हुई, दीगर अहवाल ये है कि यहाँ सब ख़ैरियत है। अब फ़रमाइए क्यों बुलाया है।

3:- दुनिया की तमाम ख़ूबसूरत नज़्में दर्द की कोख से ही से तो पैदा होती हैं हैदर साहब।

4:- ला हौल वला क़ुव्वा। मियाँ अपने दीदों का सही इस्तिमाल कीजिए, एक भी जुम्ला आप को सही लिखना नहीं आता और उस पर इस कदर गन्दी किताबत। लानत है आप पर, किस बेवक़ूफ़ ने आप को कातिब बनाया है।

5:- अम्मी अब्बू और निक्की चले गए, घर जैसे ख़ामोश हो गया, वसीम का रहना न रहना यूँ भी बराबर ही था फिर भी इन लोगों के सहारे इंतज़ार की घड़ियाँ कट ही जाती थीं, मगर उस रोज़ जब मैं अकेली रह गई तो ऐसा महसूस हुआ जैसे घड़ी की सूईयों के भागते रहने के बावजूद मेरा वक़्त कहीं ठहर गया हो। इतनी बड़ी हवेली में इधर से उधर घूमती अपने उस घर को ढूँडती-फिरती जो शादी के बाद औरत का अपना होता है, जिस की बुनियाद उस के मर्द के प्यार पे टिकी होती है।

6:- जिस हसीन चेहरे को ये लब मिले हैं उस चेहरे का। जिस चेहरे को ये बदन मिला है उस बदन का। जिस बदन को ये रूह मिली है उस रूह का दोनों आलम में कोई जवाब नहीं है जानम।

7:- आप ने पहली बार किसी चीज़ के लिए इसरार किया है। इनकार नहीं कर सकते

फ़िल्म को देखने के बाद मैं ये बात यक़ीन से कह सकता हूँ कि आप के दिल में उर्दू के लिए मोहब्बत और बढ़ जाएगी।