जो कृष्ण भक्त थे और मौलवी भी थे, और कामरेड भी

है मश्क़-ए-सुख़न जारी चक्की की मशक़्क़त भी
इक तुर्फ़ा तमाशा है ‘हसरत’ की तबीअत भी

ये शे’र हसरत मोहानी ने इलाहाबाद की सेंट्रल जेल में कहा था उन्हें दो साल की क़ैद-ए-बा मशक़्क़त हुई थी और पाॅंच सौ रुपयों का जुर्माना, हसरत बड़े शौक़ से चक्की चला रहे हैं और शे’र गुनगुना रहे हैं।

हसरत मोहानी का अस्ल नाम सैय्यद फ़ज़्ल-उल-हसन था। यूनाइटेड प्रोविंस का एक छोटा सा कस्बा मोहान में पैदाइश हुई। उनकी इब्तिदाई ता’लीम घर पर ही हुई। फ़ारसी की ता’लीम नियाज़ फ़तेहपुरी के वालिद मोहम्मद उमैर ख़ान से हासिल की। इसी दौर में उन्हें शायरी का ज़ौक़ हुआ। कुछ कुछ लिखने भी लगे और तस्लीम लखनवी को दिखाने लगे थे, बा’द में नसीम दहेलवी के शागिर्द भी रहे। हसरत बा’द की ता’लीम के लिए अलीगढ़ गए। वहाॅं से उन्होंने बी-ए किया और उर्दू-ए-मुअल्ला नाम का एक रिसाला निकाला। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का वह दौर जिसमें हसरत ने वहाँ ता’लीम हासिल की, देश-भक्तों से भरा हुआ था। मौलाना मुहम्मद अली जौहर, शौक़त अली,फ़ानी बदायूॅंनी जैसे लोग थे। हसरत चाहते तो बी-ए के बा’द सरकारी नौकर हो सकते थे। वो कबीर और गांधी से प्रभावित थे । मुलाज़मत की बजाय वो देश सेवा में ये कहकर कूद पड़े “जो घर फूॅंकें आपनो चलो हमारे साथ” सम्पूर्ण देश में छटपटाहट और बेचैनी के फलस्वरूप भड़कती हुई आग के शो’ले उनकी ऑंखों के सामने थे। 1907 में इसी रिसाले में एक मज़मून प्रकाशित करने पर वो जेल भेज दिए गए। उसके बा’द आज़ादी तक वो कई बार जेल जाते रहे और रिहा होते रहे।

ब्रिटिश हुकूमत हसरत को क़ैद कर सकती थी मगर उन के विचारों को नहीं। अब ये शे’र देखें और समझें कि हसरत किस तरह आज़ाद हैं ~

रूह आजाद है, ख़याल आजाद ,
जिस्म-ए-हसरत की क़ैद है बेकार

ऐसे ख़यालात हसरत के बाद वामिक़, फ़ैज़,अली सरदार जा’फ़री,हबीब जालिब ऐसे लोगों में देखने को मिलते हैं। उनके समकालीन शायर फ़ानी बदायूॅंनी,सीमाब अकबराबादी, वग़ैरह थे। हसरत की इन्क़लाबी सोच भारत की मुक्ति के लिए बेचैन थी। उनका विश्वास था कि ब्रिटिश हुकूमत जितना ज़ुल्म-ओ-सितम करेगी, लोगों में देश-भक्ति की भावना उतना ही और अधिक बल पकड़ती जायेगी। अपने मिज़ाज से वे एक संत थे, विचारों से साम्यवाद के पक्षधर मार्क्स , एंजेल्स , काॅडवेल का ख़ूब मुताला किया और किरदार से एक धर्मनिष्ठ मुसलमान। यह एक ऐसी त्रिवेणी थी जिस से इंक़लाब की धारा का फूटना लाज़मी था। उन दिनों रूस का साम्यवादी लेखक गोर्की को दिसम्बर 1905 में कारागार के कष्टों से मुक्ति के लिए रूस से भाग कर स्वीडेन और डेनमार्क होते हुए जर्मनी में शरण लेनी पड़ी थी, किंतु हसरत के इन्क़लाबी संस्कारों में पलायन नहीं हुआ। वो अपने पूरे जज़्बे और शिद्दत के साथ डटे रहे। अब एक शे’र देखें ~

मायए-इशरत-ए-बेहद है ग़म-ए-क़ैद-ए-वफ़ा
मैं शानासा भी नहीं रंज-ए-गिरफ़्तारी का

भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में हसरत का बड़ा योगदान है। प्रसिद्धि न मिल पाने के कारण इस नाम को ज़्यादा याद नहीं किया जाता-ए- अगर हम देखें तो उनके संकल्पों,उनकी मान्यताओं, उनकी शायरी में व्यक्त इन्क़लाबी ख़यालात और उनके संघर्षमय जीवन की गूॅंज से पूर्ण आज़ादी (पूर्ण स्वराज्य) की भावना को वह ऊर्जा प्राप्त 1921 के अहमदाबाद अधिवेशन में हसरत ने प्रदान की। ”इंक़लाब ज़िंदाबाद” जैसा नारा उन्होंने लिखा, जिसे बा’द में शहीद-ए-आज़म भगत सिंह ने मशहूर किया था जिसकी अभिव्यक्ति का साहस पंडित जवाहर लाल नेहरू नौ वर्ष बाद 1929 में जुटा पाये।1925 में जब कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया की स्थापना हुई उसके बा’द हसरत का झुकाव कम्युनिज़्म की तरफ़ हो गया और 1926 में उन्होंने एक भाषण भी दिया था जिसमें उन्होंने काश्तकारों और मज़दूरों के हक़ की मांग उठाई।

हसरत बुनियादी तौर पर शाइर थे या सियासतदाॅं, ये कहना आसान नहीं लेकिन एक वाक़या है जब हसरत ने स्वदेशी तहरीक में हिस्सा लिया तो अल्लामा शिबली नो’मानी ( जो निचले दर्जे के तुलबा से इम्तियाज़ रखते थे, उन्हें क्लास में फ़र्श पर बिछे हुए टाट पर पीछे बिठाते थे और आला दर्जे के तुलबा को सीट पर आगे बैठने देते थे) ने हसरत से कहा ”तुम जिन हो क्या, कभी शायर हो जाते हो कभी सियासतदा और कभी बनिये” वग़ैरह वग़ैरह तो हसरत के बारे में ऐसा भी कहा गया लेकिन शाइरी और राजनीति को जिस तरह वो तावज़ुन में रखते थे वो बड़ी बात थी इस शे’र से समझिए उन्हें

जो चाहे सज़ा दे लो, तुम और भी खुल खेलो
पर हमसे क़सम ले लो ,की हो जो शिकायत भी

हसरत ने बहुत जद्दोजहद की। उनकी पूरी ज़िंदगी वतन की आज़ादी के लिए समर्पित थी, यही कारण है कि जी-तोड़ मेहनत, दुःख और पीड़ा, विपत्तियाँ और अपमान सब कुछ झेलकर भी वे हमेशा स्वयं को मंज़िल के क़रीब महसूस करते रहे। इस महान मक़सद के लिए उनका अटूट विश्वास जहाँ एक ओर कारागार के कष्टों से उन्हें मुक्त रखता है वहीं दूसरी ओर सत्य की जीत में उनके विश्वास को और भी गहरा देता है। उनके इन्क़लाबी स्वर में हर लम्हा एक नयी शक्ति जन्म लेती है। उनके हौसले धूमिल नहीं पड़ते और उनका जीवन शत्रु के प्रबल वर्चस्व के समक्ष निर्भीक डटे रहने की प्रेरणा देता है, जो बहुतों के लिए मिसाल बनता है अब उन्हीं का एक शेर देखें ~

मैं ग़लबा-ए-आ’दा से डरा हूँ न डरूँगा
ये हौसला बख़्शा है मुझे शेरे-ए-खुदा ने

हसरत जेल में थे, उनकी दूध पीती बच्ची बहुत बीमार थी, इसी ज़माने में उनके वालिद का इंतक़ाल हो गया, जिसकी ख़बर तक उन्हें नहीं दी गई। जुर्माने की रक़म न भर पाने के कारण उनका नायाब कुतुबख़ाना नीलाम कर दिया गया और रद्दी की तरह बेशक़ीमती पुस्तकों को ठेलों और बैलगाड़ियों पर लाद कर ले जाया गया, किंतु हसरत की पेशानी पर सिल्वटें नहीं उभरीं। उन्होंने दोस्तों के सुझाव के बावजूद राजनीति से अलग होना पसंद नहीं किया। वो तिलक की भांति आज़ादी को अपना जन्म-सिद्ध अधिकार मानते थे। जो कि उनके राजनीतिक गुरू भी थे।
प्रेमचंद ने अपनी हयात के आख़िरी दिनों में लिखा था, मुसलमानों में ग़ालिबन हसरत ही वो बुजुर्ग हैं जिन्होंने आज से पन्द्रह साल क़ब्ल, हिन्दोस्तान की मुकम्मल आज़ादी का तसव्वुर किया था और आजतक उसी पर क़ायम हैं।

हसरत शायर तो थे ही ,संविधान सभा के सदस्य भी थे, जो यूनाइटेड प्रोविंस से चुने गए थे ,इस्लामी विद्वान,फ़लसफ़ी और कृष्ण-भक्त इनके बारे में कहा जाता है। हसरत जब भी हज की यात्रा करके लौटते थे तो सीधे मथुरा वृंदावन जाया करते थे। वो कहते थे जब तक मैं मथुरा न जाऊॅं मेरा हज किस काम का है उनके बारे में मशहूर है कि उन्होंने तेरह हज किए थे।

हसरत इल्म-ए-अरूज़ में भी माहिर थे उनकी शायरी पर रशीद अहमद सिद्दीक़ी ने कहा था कि हसरत ख़ालिस ग़ज़ल-गो हैं, इस बात में शुबा नहीं। दाग़ के बाद ग़ज़ल का जो मैयार हसरत, फ़ानी जैसे शो’रा ने गिरने नहीं दिया जबकि उर्दू के जाने माने नक़्क़ाद शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी ने अपने एक लेक्चर में हसरत मोहानी को पिलपिला और हल्का शायर कह दिया था। हसरत ने ग़ालिब के कलाम की तशरीह की उन्होंने बहुत से शायरों पर मज़ामीन भी लिखे, आइये ख़ुद उन की शायरी में मुख़्तलिफ़ रंग दिखते हैं अब ये शे’र देखें ~

हुस्ने-बेपरवा को ख़ुदबीन ओ ख़ुदारा कर दिया
क्या किया मैंने कि इज़हारे-तमन्ना कर दिया

अब एक शे’र और देखें ~

हसरत मिरे कलाम में ‘मोमिन’ का रंग है
अहल-ए-सुख़न में मुझ सा कोई दूसरा नहीं

उम्र के इस मरहले पर पहुॅंच कर हसरत बहुत थक चुके थी। अब एक आदमी क्या क्या करे अपना दीवान भी मुरत्तब करे ,मुख़्तलिफ़ महफ़िलों में भी जाए, राजनीति भी करे। ज़ह्न पर बोझ ज़्यादा था सियासत से भी जी भर गया था और अब वो आराम करना चाहते थे। हसरत का इतिहास पढ़ो तो रोना आता है वो अपने शे’र में कहते हैं ~

लगा दो आग उज़रे-मस्लेहत को
के है बेज़ार अब इस से मिरा दिल

हसरत मोहानी का मूल्यांकन भारत की आज़ादी की तारीख़ में अभी नहीं हुआ है वो जिस एज़ाज़ के मुस्तहक़ थे वो उन्हें नहीं मिला। हुकूमत को इस पर सोचना चाहिए। उन्हें अपनी रूमानी ग़ज़लों की वजह से जाना जाता है। ग़ुलाम अली ने उनकी ग़ज़ल ”चुपके चुपके रत दिन ऑंसू बहाना याद है” को अपना मधुर स्वर देकर अमर बना दिया, उसके बाद लोगों ने हसरत को जानना शुरू किया। आइये यौम-ए-वफ़ात पर उन्हें याद करते हैं ।

कुछ लोग थे कि वक़्त के सांचों में ढल गये
कुछ लोग थे जो वक़्त के सांचे बदल गये !

तोड़ कर अहद-ए-करम ना-आश्ना हो जाइए
बंदा-परवर जाइए अच्छा ख़फ़ा हो जाइए !

मुझ से तन्हाई में गर मिलिए तो दीजे गालियाँ
और बज़्म-ए-ग़ैर में जान-ए-हया हो जाइए

बुत-ए-बे-दर्द का ग़म मूनिस-ए-हिज्राँ निकला
दर्द जाना था जिसे हम ने वो दरमाँ निकला

घटेगा तेरे कूचे में वक़ार आहिस्ता आहिस्ता
बढ़ेगा आशिक़ी का ए’तिबार आहिस्ता आहिस्ता

मिरा इश्क़ भी ख़ुद-ग़रज़ हो चला है
तिरे हुस्न को बेवफ़ा कहते कहते

घर से हर वक्त निकल आते हो खोले हुए बाल
शाम देखो न मेरी जान, सवेरा देखो

मर मिटे हम तो कभी याद भी तुमने न किया
अब मुहब्बत का न करना कभी दावा देखो !

हसरत मोहानी