एक ऐसा परिवार जो छ पीढ़ियों से साहित्य की ख़िदमत कर रहा है
उर्दू अदब के चंद बेहतरीन और अहम शाइरों की फ़ेहरिस्त में जाँ निसार अख़्तर का नाम भी आता है। अपनी बात को आसान लहजे में कह देने का फ़न उन की शाइरी में भी देखने को मिलता है। वो अपने वक़्त से लेकर अब तक लोगों के पसंदीदा शाइर बने हुए हैं जब कि ऐसा कम शाइरों के साथ होता है। उनकी शाइरी को पसंद करने वाले लोगों में दिन-ब-दिन इज़ाफ़ा हो रहा है। गोपी चंद नारंग फ़रमाते हैं कि,
‘‘उर्दू दुनिया में नहीं पूरे हिन्दोस्तान की अदबी दुनिया में कोई ख़ानदान ऐसा है जिस ने छह नस्लों से आर्ट की आबियारी की हो’’
एक शे’र देखें,
उस नज़र की उस बदन की गुनगुनाहट तो सुनो
एक सी होती है हर इक रागनी ये मत कहो
‘‘जाँ निसार अख़्तर’’ 18 फ़रवरी 1914 को ग्वालियर में पैदा हुए। उनका अस्ल नाम ‛‛सय्यद जाँ निसार हुसैन रिज़वी’’ था। ‛‛अख़्तर’’ उनका तख़ल्लुस था। उन का आबाई वतन ख़ैराबाद है। उनकी परवरिश और तरबियत एक इल्मी और अदबी घराने में हुई। उनके वालिद का नाम ‛‛मुज़्तर ख़ैराबादी’’ था जो कि उस वक़्त के मशहूर शाइर थे। जाँ निसार अख़्तर ने विक्टोरिया कॉलेजिएट हाई स्कूल से तालीम हासिल की और उसके बाद 1930 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी गए। यहाँ से उन्होंने बी-ए ऑनर्स और एम-ए तक की तालीम पूरी की। उन्हें किसी वजह से पी-एच-डी की पढ़ाई अधूरी छोड़नी पड़ी। जिसके बाद वो ग्वालियर चले गए। यहाँ वो विक्टोरिया कॉलेज में उर्दू के लेक्चरर रहे। 1943 को उनकी शादी ‛‛सफ़िया’’ से हुई जो कि उर्दू के मशहूर शाइर ‛‛मजाज़’’ की बहन थीं। ग्वालियर में आज़ादी के बाद दंगों के हालात देखते हुए उन्हें भोपाल आना पड़ा। यहाँ आने के बाद उन्हें हमीदिया कॉलेज में उर्दू और फ़ारसी का एच-ओ-डी ( हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट) बनाया गया। कुछ वक़्त बाद सफ़िया अख़्तर ने उसी कॉलेज में लेक्चरर की हैसियत से काम करना शुरू किया। इसी दौरान जाँ निसार अख़्तर प्रगतिशील लेखक आंदोलन का हिस्सा बन गए। 1949 में उन्होंने अपनी नौकरी से इस्तिफ़ा दिया और बम्बई चले गए।
बम्बई आ जाने के बाद कुछ सही नहीं रहा। उन्हें काम के लिए काफ़ी ज़ियादा दिक़्क़तें पेश आईं। कुछ काम भी किया मगर वो काम करना अभी बाक़ी था जिसके लिए वो बम्बई आए थे। सफ़िया अख़्तर उनको अक्सर ख़त भेजा करती थीं। जाँ निसार अख़्तर के मुंबई जाने के बाद उनकी तबीअत कुछ ना-साज़ ही रही। उन्होंने कई बार जाँ निसार अख़्तर से इस बात का ज़िक्र किया। सफ़िया अख़्तर ने ग़ालिबन 29 दिसम्बर 1952 को उन्हें आख़िरी बार ख़त लिक्खा। उसके 19-20 दिनों बाद उनका निधन हो गया। कहा जाता है कि उन्हें कैंसर था।
ऐसा छोटे मोटे काम का सिलसिला लम्बे वक़्त तक चलने के बाद वो दूसरे राइटर्स की नज़र में आए और उन्हें आख़िर-ए-कार काम मिल ही गया। यासीन (1955) की फ़िल्म में उन्होंने एक से एक सदा बहार नग़्मे लिखे। जो कि बेहद मक़बूल हुए। यहाँ से उन्हें काम मिलना शुरू हुआ। जाँ निसार अख़्तर ने सफ़िया अख़्तर के 1943 से 1952 तक के सभी ख़तों को दो किताबों में 1955 में प्रकाशित करवाया। पहली किताब ‛‛हर्फ़-ए-आश्ना’’ और दूसरी किताब ‛‛ज़ेर-ए-लब’’ है। इन ख़तों के अध्यन से सफ़िया और जाँ निसार अख़्तर के बीच अटूट मोहब्बत देखी जा सकती है।
सफ़िया का जाँ निसार अख़्तर को आख़िरी ख़त।
लखनऊ
दिसंबर,
अज़ीज़ अख़्तर मेरी जान!
‘‘नज़्म मिली! तुम्हारा बहुत प्यारा तोहफ़ा! सच जानो मेरे आँसू ही तो छलक पड़े। आज मैं कितनी माज़ूर हूँ और नाज़ाँ। मुझे तुम्हारी मोहब्बत, मुलायमत, दोस्ती, शफ़क़त, ख़ुलूस और एतमाद सब कुछ तो हासिल रहा है। आज तो मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मैंने तुम्हारी शाइरी को भी जीत लिया है। अब मुझे और क्या चाहिए। अख़्तर आओ, तुम मुझे मरने न दो। मैं मरना नहीं चाहती। अलबत्ता मैं थक बहुत गई हूँ साथी। आओ मैं तुम्हारे ज़ानूँ पर सर रखकर एक तवील नींद ले लूँ। फिर तुम्हारा साथ देने के लिए मैं ज़रूर ही उठ खड़ी हूँगी। मेरा बेशुमार प्यार तुम पर निछावर है’’
तुम्हारी अपनी
सफ़िया
ये कुछ चंद नाम हैं बस, मगर जाँ निसार अख़्तर ने दर्ज़नों फ़िल्मों के नग़्मे लिखे हुए हैं।
यास्मीन (1955)
बाप रे बाप (1955)
सी आइ डी (1956)
नया अंदाज़ (1956)
उस्ताद (1957)
ब्लैक कैट (1959)
कल्पना (1960)
शंकर हुसैन (1977)
नूरी (1979)
रज़िया सुल्तान (1983)
जाँ निसार अख़्तर के चंद नग़्मे
फ़िल्म: सी आइ डी (1956)
संगीतकार:- एन दत्ता
कोई इक़रार करे, या कोई इनकार करे
हम से एक बार, निगाहें तो ज़रा चार करे
तुम हसीं हो तुम्हें सब दिल में जगह देते हैं
हम में क्या बात है, ऐसी जो कोई प्यार करे
मुझे क्यों पुकारती हैं, ये जवाँ जवाँ फ़िज़ाएँ
मुझे मिल गई कहाँ से, ये हसीं हसीं अदाएँ
ये हसीं हसीं अदाएँ
मेरे ज़िंदगी पे छाई, ये नई बहार क्यों है
मैं तुम्ही से पूछती हूँ, मुझे तुम से प्यार क्यों है
कभी तुम दग़ा न दोगे, मुझे एतिबार क्यों है
मैं तुम्ही से पूछती हूँ।
फ़िल्म:- रज़िया सुल्तान (1983)
संगीतकार:- खय्याम
ऐ दिल-ए-नादाँ, ऐ दिल-ए-नादाँ
आरज़ू क्या है, जुस्तजू क्या है
ऐ दिल-ए-नादाँ
हम भटकते हैं, क्यों भटकते हैं, दश्त-ओ-सहरा में
ऐसा लगता है, मौज प्यासी है, अपने दरिया में
कैसी उलझन है, क्यों ये उलझन है
एक साया सा, रू-ब-रू क्या है
ऐ दिल-ए-नादाँ, ऐ दिल-ए-नादाँ
आरज़ू क्या है, जुस्तजू क्या है
फ़िल्म: छू मंतर (1956)
संगीतकार: ओ पी नय्यर
ग़रीब जान के हम को न तुम दग़ा देना
तुम्ही ने दर्द दिया है, तुम्ही दवा देना
ग़रीब जान के
लगी है चोट कलेजे पे उम्र भर के लिए
तड़प रहे हैं मुहब्बत में इक नज़र के लिए
नज़र मिला के नज़रों से न तुम गिरा देना
तुम्ही ने दर्द दिया है
फ़िल्म:- सुशीला (1963)
संगीतकार:- सी अर्जुन
दर्द-ए-दिल दर्द-ए-वफ़ा दर्द-ए-तमन्ना क्या है
आप क्या जानें मोहब्बत का तकाज़ा क्या है
बे-मुरव्वत बे-वफ़ा बेगाना-ए-दिल आप हैं
आप माने या न माने मेरे क़ातिल आप हैं
बे-मुरव्वत बे-वफ़ा
आप से शिकवा है मुझ को ग़ैर से शिकवा नहीं
जानती हूँ दिल में रख लेने के क़ाबिल आप हैं
बे-मुरव्वत बे-वफ़ा
फ़िल्म:- शंकर हुसैन(1977)
संगीतकार:- खय्याम
आप यूँ फ़ासलों से गुज़रते रहे
दिल से कदमों की आवाज़ आती रही
आहटों से अंधेरे चमकते रहे
रात आती रही रात जाती रही
हो, गुनगुनाती रहीं मेरी तनहाइयाँ
दूर बजती रहीं कितनी शहनाइयाँ
ज़िंदगी ज़िंदगी को बुलाती रही
आप यूँ फ़ासलों से गुज़रते रहे
दिल से क़दमों की आवाज़ आती रही
जाँ निसार अख़्तर की कई किताबें प्रकशित हो चुकी हैं। जिनमें तार-ए-गिरेबाँ, नज़र-ए-बुताँ, ख़ाक-ए-दिल, सलासिल, घर आँगन, पिछले पहर शामिल हैं। जाँ निसार अख़्तर को 1976 में साहित्य अकादमी अवार्ड से भी नवाज़ा जा चुका है।
उनका देहांत 19 अगस्त 1976 को बम्बई में हुआ।
एक शेर देखें,
अब तुम सोचो अब तुम जानो जो चाहो अब रंग भरो
हम ने तो इक नक़्शा खींचा इक ख़ाका तय्यार किया
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