नज़्म क्या होती है?
नज़्म का लुग़वी मआनी ‘पिरोने’ का है. जैसे अक्सर हम यह कहते भी हैं कि फ़लाँ ने फ़लाँ शे’र में फ़लाँ लफ़्ज़ जो नज़्म किया है वह ज़बान के लिहाज़ से दुरुस्त नहीं है.
नज़्म (पाबन्द) की तवारीख़ देखें तो मेरे ख़याल से इसकी उम्र ग़ज़ल की उम्र के लगभग बराबर ही होगी। नज़्में बेश्तर तीन क़िस्म की होती हैं:
पाबन्द नज़्म
आज़ाद नज़्म
नस्री नज़्म
पाबन्द नज़्म क्या है?
पाबन्द नज़्म उस नज़्म को कहते हैं जिसमें हू-ब-हू ग़ज़ल ही की तरह बह्र समेत क़ाफ़िए, रदीफ़ (ग़ज़ल की तरह यहाँ भी रदीफ़ होना ज़रूरी नहीं होता और जैसा कि मैंने पहले भी आपको बताया था कि रदीफ़ ग़ज़ल या नज़्म में हुस्न- ए- इज़ाफ़ी का काम करता है या’नी उसकी ख़ूबसूरती बढ़ता है) आदि की भी पाबन्दी होती है। पाबन्द नज़्में कई तरह की होती हैं:
दो मिसरे की नज़्म जिसे ‘बैत‘ या ‘क़तअ बन्द‘ कहते हैं, तीन मिसरे की जिसे ‘सुलासी‘ कहते हैं, पंजाबी में ‘माहिया‘ भी एक क़िस्म है जो तीन मिसरे में लिखी जाती है और गुलज़ार की ईजाद त्रिवेणी भी तीन मिसरे की नज़्म होती है (हालाँकि तीन मिसरे की नज़्में उतनी राइज नहीं हो पाईं क्यूँ कि उर्दू में दो मिसरे में बात कहने के लिए पहले से ही शे’र की शक्ल में एक सिन्फ़ मौजूद थी. ऐसे में कोई बात तीन मिसरे में कहना कम ही शाइरों को रास आया.) चार मिसरे की नज़्म जैसे ‘रुबाई’, ‘मस्नवी’, ‘क़सीदा’ वग़ैरह, पाँच मिसरों की नज़्म जिसे ‘मुख़म्मस‘ कहते हैं, छह मिसरों की नज़्म जिसे ‘मुसद्दस‘ कहते हैं जैसे- ‘मर्सिया’ वग़ैरह.
आज़ाद नज़्म
वह नज़्म जिसमें बह्र के इलावा कोई और पाबन्दी (रदीफ़, क़ाफ़िए की भी) नहीं होती. सन 1944 के आस- पास मख़्दूम मोहिन्द्दीन के इलावा किसी भी तरक़्क़ी- पसन्द नज़्म निगार (साहिर, कैफ़ी आज़मी, अली सरदार जाफ़री किसी ने भी) ने आज़ाद शाएरी शुरूअ नहीं की थी। (पर कुछ जानकार यह भी कहते हैं कि आज़ाद नज़्म 1928- 1931 के आस- पास कही जा चुकी थी लेकिन उतनी राइज नहीं हुई थी) उसके बाद धीरे- धीरे आज़ाद नज़्म कहने का सिलसिला शुरूअ हुआ.
जैसा कि मैंने आपको बताया कि आज़ाद नज़्म में रदीफ़, क़ाफ़िए की कोई पाबन्दी नहीं होती बावजूद इसके अगर कहीं कोई क़ाफ़िया मिल जाए तो उसे ऐब की नज़र से नहीं बल्कि हुस्न- ए- इज़ाफ़ी की नज़र से देखते हैं। आज़ाद नज़्म में तय की गयी बह्र के अर्कान में कम- ओ- बेशी की जा सकती है (जैसे किसी मिसरे में हम 3 अर्कान लेते हैं किसी में 5 किसी में 2 किसी में 1 लेकिन अगर सारे के सारे मिसरे बराबर अर्कान में हैं तब भी इसे कोई ऐब नहीं माना जाएगा). अर्कान को तोड़ने का सिलसिला इसके बाद शुरूअ हुआ। मिसाल के तौर पर अख़्तर पयामी की एक आज़ाद नज़्म का एक टुकड़ा देखते हैं:
रात के हाथ पे जलती हुई इक शम-ए-वफ़ा
अपना हक़ माँगती है
दूर ख़्वाबों के जज़ीरे में
किसी रौज़न से
सुब्ह की एक किरन झाँकती है
वो किरन दरपा- ए- आज़ार हुई जाती है
इस नज़्म का अर्कान- फ़ाइलातुन- फ़इलातुन- फ़इलातुन- फ़ेलुन (2122- 1122- 1122- 22)
आप देख सकते हैं कि मिसरे- दर- मिसरे यहाँ अर्कान कम- ज़ियादा भी किए गए हैं और रुक्न को तोड़ा भी गया है.
नस्री नज़्म
वह नज़्म जिसमें किसी तरह की कोई भी पाबन्दी नहीं होती न बह्र की और न ही रदीफ़ क़ाफ़िए की आप किसी भी मौज़ूअ पर मिसरा दर मिसरा यह नज़्म कह सकते हैं. यह सिन्फ़ उर्दू अदब में बहुत नयी है लिहाज़ा आसेतेज़ा (उस्ताद) के यहाँ इसकी कोई मिसाल नहीं मिलती.
नोट
कोई भी नज़्म हो वह एक ही मौज़ूअ (टॉपिक) पर लिखी जाती है।
पाबन्द नज़्म की किसी भी सिन्फ़ (विधा) में अशआर की ता’दाद की कोई पाबन्दी नहीं होती।
नज़्म का अपना एक उन्वान (टाइटल) भी होता है।
ग़ज़ल के इलावा उर्दू अदब में जो भी जितनी भी पद्य की विधाएँ हैं वह सब नज़्म के दाएरे में आती हैं।
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