PANDIT VIDYA RATTAN ASI Blog

ज़िंदगी की तल्ख़ सच्चाइयों का शाइर: पं. विद्या रतन आसी

कभी रंज-ओ-ग़म है, कभी बे-कसी है
मेरी ज़िंदगी भी अजब ज़िंदगी है

मुहब्बत में जीना, मुहब्बत में मरना
मेरी ज़िंदगी का अक़ीदा यही है

पं. विद्या रतन आसी के ये दो शेर ज़िंदगी से उनके रिश्ते और उनके नज़रिए के बारे में बहुत कुछ कहते हैं. पहले शेर में जहाँ आसी ज़िंदगी की तल्ख़ सच्चाइयों को पूरी ईमानदारी से बयान करते हैं तो दूसरे शेर में इन सबके बावजूद मुहब्बत और ख़ुलूस से उम्र बसर करने की अपनी प्राथमिकता से हमें रू-ब-रू कराते हैं. किसी भी इंसान में एक ही वक़्त में इन दो अलग-अलग जज़्बों का होना हमें हैरान करता है और यही बात आसी को आसी बनाती है. पं. आसी ने अपनी तमाम उम्र अकेलेपन की धूप और महरूमियों के साए में गुज़ारी और ज़िंदगी का कड़वापन इनके ला-शऊर में लगातार पलता रहा है. दो शेर देखिए:

दुनियादारी निभा तो सकते थे
दिल ही सीने में दूसरा न हुआ

दरहम-ओ-बरहम है नज़्म-ए-ज़िंदगी
ऐ ग़म-ए-दौराँ तेरा खाना ख़राब

आसी ने अपनी ज़िंदगी में वो वक़्त भी देखा जब उनके अपने ही बेगाने हो गए और इंसानी रिश्ते उनके लिए अज़ाब बन गए. और उनके मुँह से निकल पड़ा:

जैसे माहौल में जिए हमलोग
आप होते तो ख़ुदकुशी करते

अभी कोई सितम टूटा, अभी कोई बला टूटी
रहा जब तक मैं ज़िंदा, बस यही ख़दशा रहा दिल में

आसी ने ज़िंदगी की महरूमियों को क़बूल ज़रूर किया लेकिन कभी हालात के आगे झुके नहीं. कभी ख़ुदकुशी करने की नहीं सोची. मुस्तक़िल उदासियों की सौगात ने आसी को हस्सास से हस्सासतर बनाया और वे राह में आने वाले हर अजनबी से पूरे ख़ुलूस और मुहब्बत से मिले और यही वजह है कि उनसे मिलने वाला हर अजनबी उनका अपना बन गया. आसी ने अपनी सारी तालीम ज़िंदगी की पाठशाला से हासिल की है. वो कभी स्कूल नहीं गए लेकिन वो अस्ल पंडित है. उन्होंने कबीर के कहे

पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय
ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय

को पूरी तरह अपनी ज़ात में उतारा. आसी को क़रीब से जानने वाले बताते हैं कि तमाम मुश्किलों के बावजूद ज़िंदगी को हँसते-मुस्कुराते हुए, लोगों से मुहब्बत करते हुए जीना उन्होंने आसी साहब से सीखा है.

मुहब्बत किसको रास आई?
मैं, जीता-जागता हूँ ना!

आसी की शायरी के बारे में सबसे अनोखी बात ये है कि उनकी शायरी को पढ़ने के बाद उनकी ज़िंदगी को अलग से पढने की ज़रूरत महसूस नहीं होती. उनकी शायरी ही उनकी आत्म-कथा है. आसी ने सिर्फ़ वही लिखा जिसको जिया और जिसपर यक़ीन किया. उन्होंने ज़िंदगी के कड़वेपन को पिया तो ज़िंदगी को कड़वा लिखा भी लेकिन इस सबके बावजूद उनका मुहब्बत पे अक़ीदा बरकरार रहा तो सबको मुहब्बत करते रहने की नसीहत भी दी.

मुहब्बत पे तेरा ये एहसान होगा
मुहब्बत में जी से गुज़र जाने वाले

आसी साहब ने ज़िंदगी के तल्ख़ तजरबों को अपनी ग़ज़लों में ब-ख़ूबी ढ़ाला है और पढ़ने-सुनने वाले अनायास ही उनके अशआर से जुड़ जाते हैं. दो-तीन शेर देखिए:

ये बहारें, ये चमन ये आशियाँ मेरे लिए
सर-ब-सर साबित हुए आज़ार-जाँ मेरे लिए

अब तबीयत मुश्किलों से इस क़दर मानूस है
फ़स्ल-ए-गुल से कम नहीं है दौर-ए-ख़िज़ाँ मेरे लिए

कौन सी है वो मुसीबत मुझ पे जो टूटी नहीं
रात-दिन ग़र्दिश में हैं हफ़्तआसमाँ मेरे लिए

इन अशआर को पढ़ते-सुनते हुए हम अक्सर ग़मगीन हो जाते हैं और अपने माज़ी के तजरबों को याद करने लगते हैं लेकिन तुरंत यही आसी हमसे कहते हैं कि हालात कैसे भी हों, जीवन को जीने का तरीक़ा हमेशा आशावादी होना चाहिए. और इस जीवटता को उन्होंने ख़ुद भी अपने जीवन में उतारा है. शेर देखिए:

फिर भी ज़िंदा हैं हम जमाने में
हर जफ़ा उसने तोड़ ली हम पर

देखिए कब तक न हों, कामराँ ऐ दोस्त हम
बख़्त हम से सरगराँ देखिए कब तक रहे

आसी साहब का ये शेर उनकी आशावादिता की मिसाल है और हमारे लिए अपने अक़ीदा पर टिके रहने और अपने मंज़िल को हासिल करने के लिए अनथक प्रयास करते रहने का सबक़ देती है. शेर देखिए और उनकी जीवटता का अनुमान लगाइए:

ये अपनी हिम्मत थी हम हर मौज-ए-बला से पार हुए
खेल बहुत दिलदोज़ थे वरना जो तक़दीर ने खेले हैं

इसके अलावा आसी साहब की शायरी की ख़ास बात ये है कि उन्हें बहुत कम, बल्कि बहुत ही कम लफ़्ज़ों में अपनी बात कहने का हुनर मालूम है. चंद लफ़्ज़ों में वो इतनी बातें कह जाते हैं जिसे आप नस्र में कहने बैठें तो एक मजमून तैयार हो सकता है. इनकी एक शाहकार ग़ज़ल से चंद अशआर देखें.

ज़रा सा आदमी हूँ / बला का आदमी हूँ
निहायत कम हूँ इन्साँ / ज़ियादा आदमी हूँ
ख़ुदा वाले तो तुम हो / मैं सीधा आदमी हूँ
न आदी अंत मेरे / अजन्मा आदमी हूँ

साथ ही, इनकी ग़ज़लों में कई जगहों पर ऐसी कारसाज़ी देखने को मिलती है कि चंद लफ़्ज़ों में कही गई बात में उनका नज़रिया समझने के लिए आपको एक ही शेर को कई बार पढ़ना पड़ता है.

आप क़ाबिल तो हैं / दोस्ती के नहीं
तेरा मेरा मिलन / अब्र बरसा, गया
इसलिए आज तक नहीं देखे / ख़्वाब होते हैं ख़्वाब, था मालूम
बस कि रिसता रहे / ज़ख्म ऐसा लगा

आख़िरी शेर को सरसरी तौर पर देखने से ऐसा लगता है जैसे माज़ी में घटे किसी घटना की बात की जा रही है लेकिन जब आप ग़ौर करेंगे तो पाएँगे कि दरअस्ल आसी साहब ने इक शेर में एक दुआ की है, एक बहुत ही मुख़्तलिफ़ क़िस्म की दुआ. आसी साहब के पास ऐसे कई शेर हैं जिनके अस्ल म’आनी तक पहुँचने के लिए आपको तख़य्युल की तह तक जाना पड़ेगा और ध्यान से एक-एक मिसरे की बुनत को समझना होगा. यही आसी साहब का कमाल है और यही बात उन्हें बाक़ी शाइरों के मुक़ाबले एक बिल्कुल जुदा सफ़ में खड़ी करती है.

उनकी ज़ाती ज़िन्दगी की बात करें तो आसी साहब का जन्म 11 जुलाई, 1938 को जम्मू के मुहल्ला चौगान सलाथिया में हुआ. बचपन ग़ुरबत में बीता और जवानी पर क़िस्मत ने काली सियाही थोप दी. कम ऊम्र में ही माता-पिता का साया उठ जाने के बाद जब अपनों ने ही उनसे मुँह मोड़ लिया तो इंसानी रिश्तों की तल्ख़ हक़ीक़तें उनके सामने खुलकर आ गईं लेकिन आसी ने मुहब्बत पे अपना अक़ीदा कभी नहीं खोया. हर मिलने वाले पर अपनी मुहब्बत लुटाई और इसी की बदौलत उन्होंने कई बे-पनाह मुहब्बत करने वाले, ख़याल रखने वाले लोग भी कमाए. शादी हुई लेकिन उस रिश्ते से भी इन्हें ख़ुशी के बजाए दुख ही मिलना नसीब में लिखा था, सो वही हुआ भी.

सालों तक आसी एक मुर्दा रिश्ते की लाश ढ़ोते हुए अदालतों के चक्कर लगाते रहे. ख़ैर, वो रिश्ता ख़त्म हुआ मगर उसका बोझ आसी अपने कंधों पर ता-ऊम्र महसूस करते रहे.

भले ही आसी साहब का नसीब उतना ख़ूबसूरत न रहा हो लेकिन उनका हुस्न और उनकी जवानी बहुत ही क़ाबिल-ए-रश्क़ रही. गोल-गुलाबी चेहरे, तीखी नाक और नीली आँखों वाले उस दीदा-ज़ेब नौजवान पर मशहूर पंजाबी शायर शिव कुमार बटालवी के ये मिसरे बिल्कुल सटीक बैठते हैं –

इक ओहदे रूप दी धूप तिखेरी
दूजा महकाँ दा तिरहाया

तीजा उसका रंग गुलाबी
ओ किसी गोरी माँ दा जाया

अस्सी साल की ऊम्र में भी उनका रंग गुलाबी था. हाँ, उनकी नीली आँखों में सियह-बख़्ती का दर्द साफ़ झलकता था. आसी साहब की शायरी ज़िंदगी में दरपेश आने वाले हर दर्द, हर कसक को बहुत ही सहजता से अपने अंदर जज़्ब किए हुए है जो पढ़ने वालों के दिल में अंदर तक उतर जाती है. यही वज्ह है कि आसी साहब आज भी पढ़ने वालों के बीच इतने इतने लोकप्रिय हैं और उनके शेर बड़े ही चाव लेकर पढ़े-सुनाए जाते है. आसी साहब की ग़ज़लों का एक संग्रह “ज़िंदगी के मारे लोग” चेतना प्रकाशन, लुधियाना से प्रकाशित हुआ जिसने उन्हें पाठकों के बीच के एक ख़ास पहचान दिलाई. 10 फरवरी, 2019 को बसंत पंचमी के दिन आसी साहब इस फ़ानी दुनिया को छोड़ गए लेकिन वो हम सब शायरी के आशिकों के दिलों में ज़िंदा हैं और हमेशा रहेंगे. वैसे भी आसी साहब ने ख़ुद कहा है –

दोज़ख़ से जन्नत मुंतक़िल
आसी मरा थोड़े ही है