Phir Chhidi Baat Phoolon Ki

फिर छिड़ी बात फूलों की

उर्दू शायरी में फूलों का ख़ास मक़ाम रहा है, दर अस्ल फूल हर ज़बान के अदब में अपना ख़ास मक़ाम रखते हैं।

जैसे एक फूल होता है जिसे बर्ड ऑफ़ पैराडाइज़ कहते हैं, इसी फूल को क्रेन फ़्लावर यानी सारस फूल भी कहते हैं, वज्ह बनावट से ज़ाहिर है।

Crane Flower

अब फ़र्ज़ कीजिये कि इस फूल से कहा जाए कि जन्नत में जा कर ख़ुदा को मेरा पैग़ाम दे आ, और फूल लाचारी ज़ाहिर करे कि मैं हूँ तो परिंदा मगर ज़मीं से बँधा।

सिर्फ़ उसका रूप रंग यहाँ ख़ासियत नहीं है मगर आप उसे किस तरह बरत रहे हैं, क्या म’आनी निकाल रहे हैं ये भी बहुत माने रखता है और अस्ल ख़ूबसूरती इसी से पैदा होती है।

जैसे गुलाब का फूल बहुत सी बातों के लिए इस्तेमाल होता है, इश्क़, मासूमियत, नाज़ुक़ी….. मगर ज़ख़्म के लिए भी होता है, साक़ी फ़ारूक़ी साहब की एक नज़्म है, जिसका उनवान ही सुर्ख़ गुलाब और बद्र-ए-मुनीर है,

ऐ दिल पहले भी तन्हा थे, ऐ दिल हम तन्हा आज भी हैं
और उन ज़ख़्मों और दाग़ों से अब अपनी बातें होती हैं
जो ज़ख़्म कि सुर्ख़ ग़ुलाब हुए, जो दाग़ कि बदर ए मुनीर हुए
इस तरहा से कब तक जीना है, मैं हार गया इस जीने से
(बाक़ी की नज़्म आप रेख़्ता पर पढ़ सकते हैं)

ज़ख़्मों को गुलाब से तशबीह दी गयी है, अब इसके दो म’आनी हो सकते हैं, एक तो यही कि ज़ख़्म दिखने में सुर्ख़ और हल्के छितरे हुए हैं जैसे गुलाब,

Rose

और इसके म’आनी ये भी हो सकते हैं कि दर्द खिल उठा है, जिस तरह दर्द सह कर कैटरपिलर तितली बनता है वैसे ही हमारे ज़ख़्म गुलाब हुए हैं।

इसी तरह से एक फूल है जिसे नरगिस कहते हैं, नरगिस को अंग्रेज़ी में डैफ़ोडिल कहते हैं और जिस प्रजाति का ज़िक्र अक्सर शायरी में मिलता है उसे पोएट्स डैफ़ोडिल कहतेहैं, इसका वैज्ञानिक नाम नार्सिसस है।

Daffodil

नार्सिसस ग्रीक मायथोलॉजी से लिया गया नाम है, एक नायक था नार्सिसस, नार्सिसस प्रेम की तलाश में था और उसे अपने आस पास कोई इतना ख़ूबसूरत नहीं मिला जिससे वो प्रेम कर पाता, एक दिन उसने अपना अक्स पानी में देखा और उसकी तरफ़ आकर्षित हो गया बिना ये जाने कि ये अक्स उसी का है, लेकिन वो अक्स उस से प्रेम नहीं कर सकता था, इस ग़म में नार्सिसस डूब कर मर गया, उसी जगह एक फूल खिला, जिसका नाम नार्सिसस रखा गया, इसी से “नार्सिसिज़्म” भी बना है जिसका अर्थ है आत्ममुग्धता,ऐसा शख़्स जो ख़ुद पर मुग्ध हो, ये हालत बढ़ती जाए तो मनोरोग भी बन सकती है।

तो ये है नरगिस के मिथ की कहानी, इस के अलावा भी नरगिस को,आंखों, खुले ज़ख़्मों की तशबीह के तौर पर इस्तिमाल करते हैं।

जैसे गुल-बकावली की कहानी का ही एक मंज़र देखिए, इस दृश्य में एक शहज़ादा, शहज़ादी के बग़ीचे में चुपके चुपके “गुल-ए-बकावली” (कहानी में एक नायाब फूल) को चुराने आ रहा है, उस मंज़र को यहाँ फूलों के ज़रिए इस तरह बताया गया है,

नरगिस की खुली न आँख यकचन्द
सौसन की ज़बाँ भी ख़ुदा ने की बन्द

जब सुब्ह शहज़ादी को पता चला कि रात कोई चोर आया था तो उसकी कैफ़ियत,

नरगिस तू दिखा किधर गया गुल
सौसन तू बता किधर गया गुल

सुम्बुल मेरा ताज़ियाना लाना
शमशाद इसे सूली पर चढ़ाना

नरगगस ने निगहबाज़ियाँ कीं
सौसन ने ज़बाँदराज़ियाँ कीं

(गुलज़ार-ए-नसीम)

यअनी वो इतना धीरे और सम्भल कर चल रहा है कि नरगिस जो आँख की ही तशबीह है, उसकी भी आँख न खुली। अब यहाँ नरगिस को सिर्फ़ आँख कहा  नहीं गया है, उस से वो काम भी लिया गया है जो आँख का होता है, फिर शहज़ादी सुब्ह नरगिस से ही पूछती है कि उसे “दिखाया” जाए कि फूल कहाँ गया क्योंकि नरगिस को आँख कहा जाता है।

इसी तरह दूसरा फूल है सौसन, सौसन अंग्रेज़ी में आइरिस कहलाता है, इसकी बनावट जैसा कि आप देख सकते हैं जीभ के जैसी होती है, इसीलिए इसके संदर्भ में कहा गया है कि सौसन की ज़बान बन्द हो गयी, जीभ या ज़बान को सौसन से तशबीह दी जाती है, शहज़ादी सौसन से पूछ रही है कि वो ‘बताए’ कि गुल कहाँ गया क्योंकि ज़बाँ का काम बोलने का होता है और जब दोनों ढूँढते हैं कि गुल आख़िर गया कहाँ तो नरगिस “निगहबाज़ियाँ” करती है और सौसन “ज़बाँ दराज़ियाँ”।

Iris Flower

अब यहाँ एक और बात आती है, आइरिस आँख का जो काला, नीला, भूरा, हरा हिस्सा होता है उसे भी कहा जाता है मगर यहाँ फूल से संबंध न हो कर उस का सम्बंध ग्रीक लफ़्ज़ आइरिस से है जिसका मतलब होता है इंद्रधनुष, कई तरह के रंगों की आँखें होने की वजह से कहा जाता है कि इसका नाम आइरिस रखा गया।

इसके साथ ही एक शे’र में ज़िक्र है सुम्बुल का, सुम्बुल कहते हैं गेहूँ की बाली को, अगर आपने गेहूँ की बाली देखी है तो आप जानते होंगे कि वो गुँथी चोटी की तरह दिखती है, साथ ही हल्के कांटे से भी उस पर होते हैं।

Wheat Flower

तो सुम्बुल से ताज़ियाना यअनी कोड़े जैसा एक हथियार लाने को कहा जा रहा है जो ख़ुद सुम्बुल के गुणों से मिलता जुलता है, इसके अलावा सुम्बुल बालों की तशबीह के लिए बहुत इस्तेमाल किया जाता है, गुंथी हुई चोटी के तौर से भी (तस्वीर पर ग़ौर कीजिए) और बालों की लट के लिए भी, और बाल (चोटी या लट) ख़ुद भी कोड़े की तशबीह बन सकते हैं तो यहाँ सुम्बुल को सीधे ताज़ियाने से जोड़ा जा रहा है।

इसी तरह से शमशाद एक लंबे पेड़ का नाम है, और हर उस पेड़ को भी कह दिया जाता है जिसका तना सीधा और लंबा हो, इसी वज्ह से ख़ुश-क़द और ख़ुश क़ामत महबूब को शमशाद से उपमा दी जाती है।

ये हुई गुलज़ार-ए-नसीम की बात लेकिन ऐसे इस्तेमाल सिर्फ़ गुल्ज़ार-ए-नसीम में नहीं बल्कि पूरी उर्दू शायरी में हर जगह हुए हैं, हालाँकि गुलज़ार-ए-नसीम में हर तरह के क्राफ़्ट की इंतेहा मिलती है, अक्सर ये सवाल उठाया जाता है कि औरतों की ख़ूबसूरती और अंगों को उर्दू शायरी में तरह तरह की चीज़ों से तशबीह दी गयी है पर मर्दों के साथ ऐसा नहीं हुआ, तो मर्द की ख़ूबसूरती और उसके अंगों के लिए जिस जिस तरह की तशबीहात गुलज़ार-ए-नसीम में इस्तेमाल हुई हैं, वो अक्सर जगह देखने को नहीं मिलती।

फ़िलहाल हम फूलों की बात कर रहे हैं तो नरगिस, सौसन, गुलाब के Allegorical इस्तेमाल देखिए,

पूछे ‘गुलज़ार’ से है वो ब-ज़बान-ए-सौसन
तुम कहाँ बज़्म में आए हो ज़बाँ-दानों की
गुलज़ार देहलवी

मिस्सी की सिफ़त बयाँ न होगी
सौसन भी कहे जो सौ ज़बाँ से
सख़ी लखनवी

सौसन ज़बाँ निकाले जो निकली तो ज़ेर-ए-ख़ाक
क्या जानिए कि कौन ये तिश्ना-दहन गया
ज़ुरअत क़लन्दर बख़्श

आई यक-उम्र से मअज़ूर-ए-तमाशा नर्गिस
चश्म-ए-शबनम में न टूटा मिज़ा-ए-ख़ार हुनूज़
मिर्ज़ा ग़ालिब

देख सकती नहीं मआल-ए-बहार
गरचे नर्गिस है दीदा-वर कितनी
मजीद अमजद (नज़्म-जीने वाले)

देखती है ये किस की आँखों को
क्यूँ खुले हैं ये चश्म नर्गिस के
मीर हसन

सौदा-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार में काफ़िर हुआ हूँ में
सुम्बुल के तार चाहिएँ ज़ुन्नार के लिए
हैदर अली “आतिश”

यहाँ हैदर अली आतिश के शे’र पर ग़ौर कीजिए, किसी की ज़ुल्फ़ों के सौदे में कोई काफ़िर कैसे हो सकता है? लेकिन ये दूसरे मिसरे में खुल रहा है कि हिंदुओं में जो जनेऊ (ज़ुन्नार) पहना जाता है या पुजारी/भक्त/जोगी जो माला जपते हैं, उसके लिए उन्हें सुम्बुल के तार चाहिए। यानी उस सुम्बुल जैसी ज़ुल्फ़ को बाँधने या उसकी माला जपने का ऐसा सौदा है कि मुझे हिन्दू समझा जा सकता है।

और ये शे’र ख़ास इसलिए भी है कि हैदर अली आतिश, पंडित दया शंकर नसीम के उस्ताद थे, और मुसहफ़ी के शागिर्द भी।

इस तरह के इस्तेमाल अठारहवीं, उन्नीसवीं सदी में ज़ियादा देखने को मिलते हैं, नए लोगों ने फूलों में दुनिया देखनी क्यूँ छोड़ दी, कौन जानता है!

हमारे आस पास इतनी तरह के फूल हैं, पौधे हैं, प्रतीक हैं कि अगर हम वाक़ई दुनिया को ग़ौर से देखें तो हर शय में किसी और शय का अक्स नज़र आएगा और कई बार तो एक ही शय में चार पाँच तरह के मंज़र दिखेंगे और इसी तरह की नज़र का इस्तेमाल जब शायरी करने के लिए हो तो ख़ूबसूरती से शे’र निकल कर आते हैं।

ज़रूरी नहीं है कि आज भी सौसन और नरगिस ही लाये जाएं, आप क्रेन फ़्लावर भी ला सकते हैं, ब्लीडिंग हार्ट भी ला सकते हैं, यहाँ तक कि पतंगे खाने वाले पौधे भी ला सकते हैं बस उनका इस्तेमाल इतना सहज हो जैसे ज़ख़्म से गुलाब बनते हैं।

आज हम उस दौर में नहीं हैं जिसमें पंडित दयाशंकर “नसीम” या मीर या ग़ालिब या हैदर अली “आतिश” हुए थे, उनके यहाँ फूलों की भरमार थी, हवा साफ़ थी, पानी साफ़ था, चमन वाक़ई महका करते थे, गुल सचमुच खिला करते थे, मशीनी युग की शुरुआत के बाद से ये मंज़र कुछ जगहों तक ही महदूद होते गए, इसीलिए लॉकडाउन हमारे लिए हर तरह की परेशानी का सबब बनने के बाद भी एक राहत ये लेकर आया कि हवा साफ़ हो गयी और हमें क़ुदरत दिखने लगी।

हम बुरे से बुरे वक़्त में भी क़ुदरत देख सकते हैं, ख़ुशबुएँ पा सकते हैं, शायरी मौजूद को अनोखे ज़ाविये से बयाँ करना तो है ही, ग़ैर मौजूद को मौजूद कर देना भी है,

आज के दौर के फूलों पर मेरा ही एक शे’र,

बाद-ए-सबा गुम, हब्स बला का, फिर भी तसव्वुर के दम से
बंद पड़ा छत का पंखा भी फूल के जैसा लगता है

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