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हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे: क़ाएम चाँदपुरी

मोहम्मद क़यामुद्दीन ‘क़ाएम’ चाँदपुरी अठारहवीं सदी के मुम्ताज़ शाइ’रों में शामिल हैं। ‘क़ाएम’ चाँदपुरी की पैदाइश तक़रीबन 1725 में क़स्बा चाँदपुर, ज़िला बिजनौर के क़रीब ‘महदूद’ नाम के एक गाँव में हुई थी। लेकिन वो बचपन से दिल्ली में आ रहे और 1755 तक शाही मुलाज़मत के सिलसिले से दिल्ली में ही रहे। दिल्ली की तबाही और हालात की ना-साज़गारी से बद-दिल हो कर दिल्ली से टांडा पहुँचे। जब यहाँ के हालात भी अबतर हो गए तो उन्हें मजबूरन टांडा भी छोड़ना पड़ा। इस तरह उ’म्र भर रोज़गार की तलाश में हैरान-ओ-परेशान वो एक शहर से दूसरे शहर में फिरते रहे। आख़िर 1780 में रामपुर चले गए, जहाँ 1794 में वफ़ात पाई।

क़ाएम ने अपने कलाम पर सब से पहले शाह हिदायत से इस्लाह ली। उसके बाद ख़्वाजा मीर ‘दर्द’ और फिर मोहम्मद रफ़ीअ’ ‘सौदा’ के शागिर्द हुए। शेर ओ शाइरी के फ़न में इतने माहिर हो गए कि ‘मीर’, ‘मिर्ज़ा’ और ‘दर्द’ के बा’द उस ज़माने के बड़े शाइरों में उनका नाम लिया जाने लगा। ब-क़ौल मोहम्मद हुसैन आज़ाद “उनका दीवान हर्गिज़ ‘मीर’-ओ-‘मिर्ज़ा’ के दीवान से नीचे नहीं रख सकते।”


टूटा जो का’बा कौन सी ये जा-ए-ग़म है शेख़
कुछ क़स्र-ए-दिल नहीं कि बनाया न जाएगा


ग़ैर से मिलना तुम्हारा सुन के गो हम चुप रहे
पर सुना होगा कि तुम को इक जहाँ ने क्या कहा


दर्द-ए-दिल कुछ कहा नहीं जाता
आह चुप भी रहा नहीं जाता


किस बात पर तिरी मैं करूँ ए’तिबार हाए
इक़रार यक तरफ़ है तो इन्कार यक तरफ़


मय की तौबा को तो मुद्दत हुई ‘क़ाएम’ लेकिन
बे-तलब अब भी जो मिल जाए तो इन्कार नहीं


न जाने कौन सी साअ’त चमन से बिछड़े थे
कि आँख भर के न फिर सू-ए-गुल्सिताँ देखा


चाहें हैं ये हम भी कि रहे पाक मोहब्बत
पर जिस में ये दूरी हो वो क्या ख़ाक मोहब्बत


ज़ालिम तू मेरी सादा-दिली पर तो रह्म कर
रूठा था तुझ से आप ही और आप मन गया