प्रेमचंद की वो बातें जो हमेशा जीवन में नई रौशनी भरती हैं
उर्दू भाषा और साहित्य से दिलचस्पी रखने वाले किसी भी शख़्स के लिए प्रेमचंद के तआरुफ़ की ज़रूरत नहीं होती। प्रेमचंद पिछले सौ बरसों से तमाम तरह के अदबी-ओ-समाजी डिस्कोर्स के माध्यम से हमारे ज़हनों में मौजूद रहे हैं।
कल, यानी 8 अक्टूबर को उनकी पुण्यतिथि है, इस मौके़ पर हमने कोशिश की है कि उनके रचना-संसार से कुछ ऐसे शब्द आपके लिए चुन कर लाएँ जो न सिर्फ़ साहित्य बल्कि जीवन के लिए भी रौशनी का स्रोत साबित हों।
प्रेमचंद के ये उद्धरण उनके मुख़्तलिफ़ मज़ामीन से लिए गए हैं। इन्हें पढ़िए और अपना पसंदीदा उद्धरण कमेंट बॉक्स में लिखिए।
शायरी का आला-तरीन फ़र्ज़ इन्सान को बेहतर बनाना है।
मैं एक मज़दूर हूँ, जिस दिन कुछ लिख न लूँ उस दिन मुझे रोटी खाने का कोई हक़ नहीं।
जो चीज़ मसर्रत-बख़्श नहीं हो सकती, वो हसीन नहीं हो सकती।
जवानी पुर-जोश होती है वो ग़ुस्से से आग बन जाती है और हमदर्दी से पानी।
हम अदीब से यह तवक़्क़ो रखते हैं कि वो अपनी बेदार-मग़ज़ी, अपनी वुसअत-ए-ख़्याली से हमें बेदार करे। उसकी निगाह इतनी बारीक और इतनी गहरी हो कि हमें उसके कलाम से रुहानी सुरूर और तक़वियत हासिल हो।
मायूसी मुम्किन को भी ना-मुम्किन बना देती है।
अदब की बेहतरीन तारीफ़ तन्क़ीद-ए-हयात है। अदब को हमारी ज़िंदगी पर तब्सरा करना चाहिए।
हमें हुस्न का मेयार तब्दील करना होगा। अभी तक उसका मेयार अमीराना और ऐश परवराना था।
सच्ची शायरी की तारीफ़ यह है कि तस्वीर खींच दे। इसी तरह सच्ची तस्वीर की सिफ़त यह है कि उसमें शायरी का मज़ा आए।
क़ौमी ज़बान के बग़ैर किसी क़ौम का वुजूद ही ज़हन में नहीं आता।
हिन्दुस्तान की क़ौमी ज़बान न तो वह उर्दू हो सकती है जो अरबी और फ़ारसी के ग़ैर-मानूस अल्फ़ाज़ से गिराँ-बार है और न वो हिन्दी जो संस्कृत के सक़ील अल्फ़ाज़ से लदी हुई है। हमारी क़ौमी ज़बान तो वही हो सकती है जिसकी बुनियाद उमूमियत पर क़ायम हो।
इस वक़्त हिन्दुस्तान को शायरी से ज़ियादा मुसव्विरी की ज़रूरत है। ऐसे मुल्क में जहाँ सदहा मुख़्तलिफ़ ज़बानें राइज हैं, अगर कोई आम ज़बान राइज हो सकती है तो वो तस्वीर की ज़बान है।
भारत वर्ष में ज़बान की ग़लाज़त और बुशरे का झल्लापन हुकूमत का जुज़ ख़्याल किया जाता है।
आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन उसका अहंकार है।
माज़ी चाहे जैसा हो उसकी याद हमेशा ख़ुशगवार होती है।
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