शंकर शैलेंद्र के नग़्मे हमें आज भी याद हैं।
तू ज़िन्दा है तो ज़िन्दगी की जीत में यक़ीन कर,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!
बुरी है आग पेट की, बुरे हैं दिल के दाग़ ये,
न दब सकेंगे, एक दिन बनेंगे इन्क़लाब ये,
गिरेंगे ज़ुल्म के महल, बनेंगे फिर नवीन घर!
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!…
कहते हैं कि ये गीत शैलेन्द्र ने तब लिखा था जब उनकी इकलौती बहन बहुत बीमार थीं । घर में ग़रीबी के हालात ये थे कि 2 जून रोटी नसीब नहीं तो इलाज कहाॅं से करा पाते । इलाज न मिलने से जब वे इंतक़ाल कर गईं तो उनका ईश्वर पर से विश्वास उठने लगा था।
पंजाब के रावलपिंडी में 30 अगस्त 1923 को पैदा हुए पिता ने नाम रखा शंकर दास केसरी लाल लेकिन आगे चलकर ‘शैलेन्द्र’ के नाम से शोहरत पायी और इसे ही अपना तख़ल्लुस बनाया । इनके पूर्वज बिहार के आरा ज़िले के रहने वाले थे। एक बार इनके पिता बहुत बीमार पड़ गए घर में ग़रीबी,बदहाली थी ,सो ये सब रावलपिंडी छोड़ मथुरा मुन्तक़िल हुए और यहाॅं अपने एक रिश्तेदार जो रेलवे में काम किया करते थे उनके पास चले आए पर वहाॅं भी हालात सुधरे नहीं । घर में माली इमदाद ये थे कि जब उन्हें और उनके बड़े भाई को भूख लगती तो दोनों जान बूझकर बीड़ी पिया करते जिससे भूख ना लगे कुछ वक़्त ऐसे ही कट जाए ,घर में ग़रीबी होने के बावजूद शैलेन्द्र ने जैसे तैसे मथुरा से ही इंटर पास किया और पूरे प्रदेश में तीसरा स्थान पाया । इन्हें हॉकी खेलने का ख़ूब शौक़ था ये खेल उन्हें अपने भीतर जोश भरता नज़र आता लेकिन खेल खेल में बड़े घरों के छात्रों ने इनकी ज़ात पर ताने दिए और कहा कि घर में खाने को नहीं है ,ये हॉकी खेलेंगे । इस घटना से शैलेन्द्र को इतना दुःख हुआ कि उन्होंने वहीं पर अपने घुटनों से हॉकी के दो टुकड़े कर दिए और फिर कभी हाथ नहीं लगाया।
स्कूल के दिनों से ही शैलेन्द्र को कविताऍं लिखने में रुचि होने लगी थी । उस दौर में उनकी कविताऍं आगरा के साप्ताहिक ‘साधना’ में छपने लगी थीं । इसके बा’द नया साहित्य,हंस,नया पथ और जनयुग में भी उनके गीत शाए’ होते थे । घर में दो जून रोटी नसीब न होती ऐसे में ताऊजी ने हौंसला बॅंधाया और शैलेन्द्र बोरिया बिस्तर लेकर मुंबई रवाना हो गए । ये 1942 का साल था वहाॅं किसी परिचय के सहारे रेलवे में वर्कशॉप की नौकरी मिली । मशीनों के चकाचौंध के बीच उनके अन्दर का कवि मरा नहीं और अक्सर उन्हें काग़ज़ क़लम लेकर अकेले में गुम बैठा हुआ देखा जाता था जिससे और लोग नाराज़ हो जाते थे । इस वक़्त देश में आज़ादी के आंदोलन को लेकर ख़ूब सभाऍं होती थीं ,अगस्त क्रांति आंदोलन भी शुरू हो गया गांधी जी ने मुंबई में करो या मरो का नारा दिया । इसका असर शैलेन्द्र पर भी हुआ और उन्होंने आंदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया जेल भी गए । जेल से आने के बा’द उन्होंने तय किया कि अब कविता को क्रांति का ज़रिया बनायेंगे । इसी बीच देश आज़ाद हो गया इसका दुर्भाग्य ये रहा कि ये दो मुल्कों में तक़सीम हो गया।
शैलेन्द्र उस रात ज़ार ज़ार रोये थे और उन्होंने लिखा था ~
सुन भैया ! सुन भैया !
दोनों के आँगन एक थे भैया
कजरा और सावन एक थे भैया
ओढ़न पहरावन एक थे भैया
जोधा हम दोनों एक ही मैदान के
परदेसी कैसी चाल चल गया
झूठे सपनों से हमको छल गया
डर के वह घर से तो निकल गया
दो आँगन कर गया मकान के ।
1940 की दहाई के आवाख़िर में एक मुशायरे में शैलेन्द्र ने अपनी कविता ‘जलता है पंजाब’ सुनाई जिसमें राज कपूर साहब ने उन्हें सुना जिससे प्रसन्न होकर वे शैलेंद्र के लिखे गीत खरीदना चाहते थे । उन दिनों वे फ़िल्म ‘आग’ बना रहे थे लेकिन शैलेंद्र जी ने मना कर दिया और कहा मैं पैसे के लिए नहीं लिखता । राजकपूर ने कहा कोई बात नहीं आपको जब ज़रूरत हो मेरे पास आ जाना । इसी दौरान झाॅंसी के एक रिश्तेदार ने अपने जानने वाले की बेटी शकुन्तला से शैलेन्द्र की शादी करा दी ।
साथ में चार दिन ही रह पाए कि वापस मुंबई जाना पड़ा । मुंबई में एक छोटा सा कमरा जिसमें एक चारपाई दो जोड़ी कपड़े ,पढ़ने लिखने का सामान और कुछ बर्तन जो चारपाई के नीचे रखे होते थे । शकुन्तला शैलेन्द्र को ख़त लिखा करतीं कि उन्हें भी मुंबई आना है लेकिन हालात ये थे कि वहाॅं एक ही व्यक्ति का गुज़ारा हो सकता था , आख़िरकार अंत में शैलेन्द्र झुके और शकुन्तला भी मुंबई आ गयीं । शकुन्तला जब उम्मीद से थीं तो उनकी देखभाल करने के लिए परिवार के किसी व्यक्ति की ज़रूरत थी क्योंकि मुंबई में सुविधाओं का अभाव था तो शैलेंद्र ने उन्हें झाॅंसी जाने का सुझाव दिया । शकुन्तला जब झाॅंसी जाने वाली थीं तो शैलेन्द्र ने कहा रुको इतने में शैलेन्द्र राजकपूर के पास गए उनसे पाॅंच सौ रुपए उधार लेकर आए और शकुन्तला को देकर कहा जाओ आने वाले मेहमान का धूम धाम से स्वागत होना चाहिए ।
शैलेन्द्र जब पाॅंच सौ रुपए राजकपूर को वापस करने गए तो उन्होंने ये कहकर लौटा दिए कि मैं सूद पर रुपए नहीं देता । आप हमारी फ़िल्म के लिए गीत लिखें और इसके बा’द ही शैलेन्द्र का फ़िल्मों में गीत लिखने का सफ़र शुरू हुआ ।
शैलेन्द्र ने फ़िल्म ‘बरसात’ में दो गीत लिखे इसमें एक इसका टाइटल सॉन्ग बन गया। ये गीत हिन्दी सिनेमा का पहला टाइटल सॉन्ग माना जाता है ~
बरसात में हमसे मिले तुम सजन
तुमसे मिले हम बरसात में
यहीं से शैलेन्द्र और राजकपूर दोस्त हो गए । एक रोज़ राजकपूर शैलेन्द्र को ख़्वाजा अहमद अब्बास के पास ले गए । ख़्वाजा अहमद अब्बास उन्हें फ़िल्म ‘आवारा’ की कहानी सुनाते रहे दो घंटे बा’द उन्होंने राजकपूर से कहा कि ये किसको पकड़ कर लाए हो तो तिलमिलाए हुए शैलेन्द्र कुर्सी से उठे और तेज़ी से बाहर की ओर गए । इतने में राजकपूर ने शैलेन्द्र को रोक कर पूछा क्या हुआ ? शैलेन्द्र पीछे मुड़े और कहा
“गर्दिश में हूॅं आसमान का तारा हूॅं आवारा हूॅं”,
उन्होंने जब ये सुना तो ख़्वाजा अहमद अब्बास पानी पानी हो चुके थे । बा’द में अब्बास ने राजकपूर से कहा इस आदमी ने मेरी ढाई घंटे की फ़िल्म को एक लाइन में बयाॅं कर दिया । बा’द में आवारा फ़िल्म का यही गीत बड़ा मशहूर टाइटल सॉन्ग बना ।
फ़िल्मी दुनिया में सब से ज़्यादा टाइटल सॉन्ग ( जिसे शीर्षक गीत कहा जाता है ) लिखने का कारनामा शैलेन्द्र के ही नाम है । इनमें जंगली,संगम,छोटी बहन, आई मिलन की बेला ,हरियाली और रास्ता, अनाड़ी,जिस देश में गंगा रहती है,दिल अपना और प्रीत पराई और राजकुमार जैसी फ़िल्में शामिल हैं । अब आवारा फ़िल्म के गीत का ये बंद देखें ~
घर आया मेरा परदेसी प्यास बुझी मेरी अखियन की
तू मेरे मन का मोती है इन नैनन की ज्योती है
याद है मेरे बचपन की घर आया मेरा परदेसी !
शैलेन्द्र के गीतों का जादू ये है कि आसान ज़बान में बड़ा फ़लसफ़ा बयान कर देते हैं । सड़क पर फ़ुटपाथ पर सोते हुए आदमी से लेकर आलीशान महलों में रहने वाले तक शैलेन्द्र के गीतों के दीवाने हैं । कभी वे हक़ की बात करते हैं तो कभी मुश्किल वक़्त में उनके गीत इंसान को ढाॅंढस बॅंधाने का काम करते हैं ।
अब उन्हीं के गीत से ये बंद देखें ~
ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार दिन,
ये दिन भी जाऍंगे गुज़र, गुज़र गए हज़ार दिन,
हमारे कारवाॅं का मंज़िलों को इन्तज़ार है,
यह ऑंधियों, ये बिजलियों की, पीठ पर सवार है,
तू ज़िन्दा है तो ज़िन्दगी की जीत में यक़ीन कर,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!
शैलेन्द्र एक दौर में मार्क्स से प्रभावित हुए और वामपंथी रुझान के जनवादी गीतकार हो गए । उनके गीत मज़दूरों , काश्तकारों को क्रांति करने के लिए आज भी प्रेरणा देते हैं जब वे कहते हैं ~
क्रान्ति के लिए जली मशाल, क्रान्ति के लिए उठे क़दम !
भूख के विरुद्ध भात के लिए, रात के विरुद्ध प्रात के लिए
मेहनती ग़रीब जाति के लिए, हम लड़ेंगे, हमने ली क़सम !
छिन रही हैं आदमी की रोटियाँ ,बिक रही हैं आदमी की बोटियाँ
किन्तु सेठ भर रहे हैं कोठियाँ ,लूट का यह राज हो ख़तम !
शैलेन्द्र ने यूॅं तो कई गीत लिखे मुड़ मुड़ के ना देख मुड़ मुड़ के ,मेरा जूता है जापानी ,आज फिर जीने की ,किसी की मुस्कराहटों पे , सजन रे झूठ मत बोलो , दिल अपना और प्रीत पराई, नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है ,घर आया मेरा परदेसी ,दोस्त दोस्त न रहा, अपनी उल्फ़त पे ज़माने का न पहरा होता, गाता रहे मेरा दिल ,पिया तोसे नैना लागे रे , क्या से क्या हो गया ,हर दिल जो प्यार करेगा ,दोस्त दोस्त ना रहा ,सब कुछ सीखा हमने ,दुनिया बनाने वाले और ‘दिल तड़प तड़प के कह रहा है आ भी जा’ जैसे कई अमर गीत लिखे । इनके बारे में जे एन यू से वाबस्ता रहे आलोचक डॉ नामवर सिंह ने कहा था बाबा रैदास के बाद दलितों में सबसे बड़ा कवि कोई है तो वो शैलेन्द्र हैं । गुलज़ार भी कहते हैं शैलेन्द्र एक लफ़्ज़ में दो दो मा’नी निकालने का हुनर जानते थे, ये कला थी उनमें अब इतना बड़ा फ़लसफ़ा कोई और क्या बयान करेगा ?
सजन रे झूठ मत बोलो, ख़ुदा के पास जाना है
न हाथी है ना घोड़ा है, वहाँ पैदल ही जाना है
तुम्हारे महल चौबारे, यहीं रह जाएंगे सारे
अकड़ किस बात कि प्यारे अकड़ किस बात कि प्यारे,
ये सर फिर भी झुकाना है
सजन रे झूठ मत बोलो, ख़ुदा के पास जाना है !
या फिर फ़िल्म ‘सीमा’ के गीत का ये बंद देखें ~
तू प्यार का सागर है तेरी इक बूँद के प्यासे हम
लौटा जो दिया तुमने ,चले जायेंगे जहाॅं से हम
तू प्यार का सागर…
ये 1950 का दशक था शैलेन्द्र उस दौर में उरूज पर थे । शंकर जयकिशन ,राजकपूर और मन्ना डे की जोड़ी ख़ूब जम रही थी । इनके सामने हसरत जयपुरी जैसे गीतकार फ़ीके पड़ते जा रहे थे । शैलेन्द्र की माली आसूदगी दूर हो चुकी थी लेकिन उन्हें आत्मसंतुष्टि नहीं मिल रही थी वे कुछ बड़ा करना चाह रहे थे । 1960 में उन्होंने बिहार के मशहूर लेखक फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफ़ाम’ पढ़ी ये इन्हें बहुत पसंद आई और उन्होंने तुरंत रेणु को ख़त लिखा कि भाई आपकी कहानी पढ़ी बहुत अच्छी लगी इसे फ़िल्म में इस्ते’माल किया जा सकता है आपका क्या ख़याल है ? रेणु ने हामी भर दी और बा’द में इसी कहानी पर तीसरी क़सम फ़िल्म बनी ।
‘मारे गये गुलफ़म’ उर्फ़ ‘तीसरी क़सम’…मानवीय संवेदना व प्यार की उत्कृष्ट कहानी है । कहते हैं कि फणीश्वरनाथ रेणु के ‘मैला आँचल’ और ‘परती परिकथा’ जैसे उपन्यासों पर उनकी केवल यही एक कहानी भारी पड़ती है । इस फ़िल्म में राजकपूर और वहीदा रहमान ने मुख्य भूमिका निभाई थी । बासु भट्टाचार्य ने इसे निर्देशित किया था। यह फिल्म हिंदी सिनेमा में मील का पत्थर मानी जाती है । नायक ‘हीरामन’ और नायिका ‘हीराबाई’ की इस प्रेम कथा ने प्रेम का एक अद्भुत महाकाव्यात्मक रचा, पर अफ़सोस कि इसका दुखांत कसक से भरा ऐसा आख्यान बन गया जो आज भी पाठकों और दर्शकों को लुभाता तो है ,पर कहीं न कहीं कचोटता भी है। राजकपूर ने कहा भी था कि फ़िल्म का अंत दुखांत नहीं होना चाहिए लेकिन रेणु और शैलेन्द्र ने मना कर दिया । एक साल का वक़्त लगना था इस फ़िल्म को बनने में लेकिन पाॅंच साल लग गए इस वजह से फ़िल्म बनने तक सब उनका साथ छोड़ गए थे । रेणु और शैलेन्द्र दिन रात मेहनत इस उम्मीद से करते कि फ़िल्म चल जाएगी । अफ़सोस ! इस फ़िल्म की असफ़लता और आर्थिक तंगी ने उन्हें इतना तोड़ दिया था कि वे सड़क पर आ चुके थे । अपने जीवन के अंतिम दिनों में शराब नोशी करने लगे थे उनके ऊपर क़र्ज़ हो गया और लोगो की बे-रुख़ी से उन्हें गहरा धक्का लगा जिसके चलते व बीमार रहने लगे ।
इस फ़िल्म के बाद शैलेन्द्र ने चौथी क़सम खाई और कहा कि दोस्तों के कहने पर अब कभी फ़िल्म न बनाना ~
दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई
काहे को दुनिया बनाई, तूने काहे को दुनिया…
काहे बनाए तूने माटी के पुतले,
धरती ये प्यारी प्यारी मुखड़े ये उजले
काहे बनाया तूने दुनिया का खेला
जिसमें लगाया जवानी का मेला
गुप-चुप तमाशा देखे, वाह रे तेरी खुदाई
काहेको दुनिया बनाई, तूने काहेको दुनिया बनाई !
जॉर्ज फ़र्नांडीज के नेतृत्व में 1974 में हुई रेलवे स्ट्राइक में शैलेन्द्र के गीतों को एक बड़ी अवाम ने नारों के रूप में इस्ते’माल किया था ~
हर ज़ोर ज़ुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है!
तुमने माँगें ठुकराई हैं, तुमने तोड़ा है हर वादा,
छीना हमसे सस्ता अनाज, तुम छँटनी पर हो आमादा
तो अपनी भी तैयारी है, तो हमने भी ललकारा है,
हर ज़ोर ज़ुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है!
बीस दिन चली रेल हड़ताल से भारत में हाहाकार मच गया था। शैलेन्द्र के गीत इंसान को मुश्किल वक़्त में हमेशा प्रेरणा देते रहेंगे ,सरकार से ,सिस्टम से सवाल करते रहेंगे ।
सर्दियों के पूस के महीने में बड़ी ख़ामोशी से मात्र 43 साल की उम्र में इस दुनिया से विदा ले गए । अगले दिन जब अख़बार में खबर छपी कि शैलेन्द्र नहीं रहे तो राजकपूर को धक्का लगा उन्होंने कहा मेरा दायां हाथ ही चला गया । शैलेन्द्र जितने बड़े दिखते थे उससे ज़्यादा बड़े थे । शैलेन्द्र वो चराग़ थे जिसकी रोशनी उनके जाने के बा’द दुनिया को दिखाई पड़ी ! दो दशक से भी कम वक़्त में वो हिन्दी सिनेमा को 800 से ज़ाइद-अज़-ज़रूरत कालजई गीत दे गए ।
यह वो दौर था जब दलित ,मुस्लिम,पिछड़े समाज के लेखकों,कलाकारों को सिनेमा में अपनी पहचान और नाम तक बदलना पड़ता था ताकि सामाजिक भेदभाव से बचा जा सके । भारतीय सिनेमा के इतिहास में कालजई गीत देने वाले शैलेन्द्र को दलित होने की वजह से कोई बड़ा पुरस्कार नहीं मिला उनका जीवन जाति भेदभाव के साए में आगे बढ़ा और बेहद मुफ़्लिसी में ख़त्म हुआ ।
मग़रिब के फ़लसफ़ी रूसो का बड़ा मशहूर क़ौल है “मनुष्य स्वतंत्र पैदा होता है लेकिन तरह तरह की बेड़ियों में जकड़ा होता है” । महान पुरुषों की कोई जाति नहीं होती परंतु किसी न किसी जाति में जन्म अवश्य होता है । शैलेन्द्र के दलित होने की जानकारी उनकी मौत के बा’द तब सामने आई जब उनके बेटे दिनेश शैलेन्द्र ने अपने पिता की याद में उनकी कविता का मज्मू’आ ‘अन्दर की आग’ का दीबाचा लिखा । इसके बाद साहित्य जगत के मठाधीशों ने उनकी जमकर आलोचना की और जातिवादी होने का आरोप लगाया ! उनके गीत समाज को हमेशा एक नई दिशा दिखाते रहेंगे और समाज को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते रहेंगे ।
ढोल बजे ऐलान हुआ, आज़ादी आई,
ख़ून बहाए बिना लीडरों ने दिलवाई,
ख़ुश होकर अँगरेज़ों ने दी नेताओं को,
सत्य अहिंसावादी वीर विजेताओं को!
हम चकराए, फ़ेल हो गई बुद्धि हमारी,
क्षण-भर चकाचौंध में आँखें मुँदीं हमारी,
पर फिर देखा, अब भी सारा ठाट वही है,
वही फ़ौज है, वही पुलिस है, लाट वही है!
ज़मींदार है, खेत और खलिहान वही है,
गल्ला पहले से कम, किंतु लगान वही है,
नाम बदल डाले हैं, पर हर काम वही है,
ढोल, पोल, कंट्रोल वही, गोदाम वही है!
वह नवाब, वही राजे, कुहराम वही है,
पदवी बदल गई है, किंतु निज़ाम वही है,
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