वो सुब्ह कभी तो आएगी

हमें पूरी उम्मीद रखनी है कि दुनिया फिर उतनी ही ख़ूबसूरत होगी जितनी इन दो बरसों पहले थी। हम उसी तरह बग़लगीर होंगे, उसी तरह हसेंगे-बोलेंगे, नाचेंगे-गाएंगे, खाऐंगे-पिऐंगे। उसी तरह शादियों में शहनाइयां और ढ़ोल-नगाड़े बजेंगे। उसी तरह महफ़िलें सजेंगी, शायरी सुनी जाएगी, मुशायरे बरपा होंगे। वैसे ही ट्रेनें खचाखच भरेंगी। भीड़ वाली जगहों पर भीड़ होगी। बाग़ों में झूले सुनसान नहीं पड़े होंगे, बच्चों के साथ गुनगुनाऐंगे, लहराएंगे।