वो सुब्ह कभी तो आएगी

पिछले बरस लगभग इसी मौसम में कोरोना नाम की नई बीमारी ने दुनिया में दस्तक दी और हमारी हयात के निज़ाम की बुनियादें हिला दीं। मगर हम सम्भल गए थे कि किसी नामालूम शायर का शेर है-

रंगीनी-ए-हयात बढ़ाने के वास्ते
पड़ती है हादसों की ज़रूरत कभी-कभी

हम वक़्ती तौर पर तो घबराए और घरों में क़ैद कर दिए गए मगर एक उम्मीद बंधी रही कि एक दो महीने की बात है, जल्द ही यह बुरा वक़्त भी टल जाएगा। जिगर मुरादाबादी का यह हौसला देने वाला शेर भी हमारी ताक़त बना हुआ था –

तूले-ग़मे-हयात से घबरा न ऐ जिगर
ऐसी भी कोई रात है जिसकी है जिसकी सहर न हो

और जल्द ही इस सियाह रात की तारीकी कम हुई, कोरोना की ताक़त कम होने लगी और हमारी इससे लड़ने की ताक़त बढ़ने लगी। धीरे-धीरे हम अपनी पुरानी दुनिया, पुराने माहौल को वापस पाने लगे। दिन बेहतर हो रहे थे, रातें रौशन हो रही थीं। मगर एक बरस गुज़रा भी नहीं था कि ठीक उसी मौसम में और पहले से ज़्यादा ज़ालिमाना अंदाज़ में इस बीमारी ने लगभग हर घर में दस्तक दी। ज़िन्दगी और मौत, ये दो अल्फाज़ फिर बहस का मौज़ू बनने लगे। फिराक़ गोरखपुरी याद आ गए-

बहसें छिड़ी हुई हैं हयातो-ममात की
सौ बात बन गयी है फिराक़ एक बात की

मगर जो मुआमला पिछले बरस का था कि हमें दूर-दूर से खबरें मिल रही थीं, बल्कि ज़्यादातर मशहूर लोगों के जाने की ख़बरें आ रही थीं, इस बरस ऐसा नहीं हुआ। इस बरस हर ख़ानदान, हर कुंबे का कोई न कोई फ़र्द बीमार हुआ और अपनों का साथ छोड़ कर चला गया। यानी इस बरस यह बीमारी हमारे और क़रीब आ गई। हर घर में बीमारी हर घर में दवा। अजीब ख़ौफनाक और साथ ही साथ बेज़ारी का माहौल बनता जा रहा है। साहिर याद आते हैं –

इस रेंगती हयात का कब तक उठाऐं बार
बीमार अब उलझने लगे हैं तबीब से

अब यह बीमारी हमारी ज़िन्दगियों का हिस्सा बनती जा रही है। पिछले दो बरसों से हम हिन्दुस्तानियों को दो-चार महीने इस बीमारी के सबब अपने-अपने घरों में क़ैद रहना पड़ा है। यह डर अब ज़्यादा बढ़ गया है। ज़हन यही सोच रहा है कि अगला बरस क्या लेकर आएगा। मगर अब डर के काम नहीं चलेगा। हम डर के कहां जाएंगे? इस बीमारी से बचाव भी करना है और हम बचेंगे भी, मगर हमें डरना नहीं है। जव्वाद शेख़ का यही कहना है-

हल भी तलाश कर लिया जाएगा अन-क़रीब
तुम इस वबा को बढ़ने न दो फ़ासला रखो

मगर यह फ़ासला जिस्मों के दरमियान रखना है। दिलों के बीच की दूरियों को बहुत तेज़ी से मिटाना है। एक दूसरे का साथ देना है। एक दूसरे का हौसला और सहारा बनना है। अगर हममें से कोई बीमार है तो उसे अछूत नहीं समझना है। एहतियात के साथ उसका ख़्याल रखना है। उसे हर वक़्त, हर लम्हा यह बताना है कि कोई बात नहीं जो तुम बीमार पड़ गए, तुम हमसे दूर नहीं हो, हम सब तुम्हारे साथ हैं, इस बीमारी से तुम अकेले नहीं लड़ोगे, हम भी तुम्हारे साथ लड़ेंगे। अपने बीमार को हर वक़्त यह समझाना है कि अब तुम हमें पहले से ज़्यादा अज़ीज़ हो गए हो, पहले से ज़्यादा प्यारे हो गए हो, हमारे दुलारे हो गए हो। हम तुम्हें कुछ नहीं होने देंगे, हम तुम्हें कहीं नहीं जाने देंगे। उससे हर मरतबा मुस्कुराते हुए मिलना है कि वो हर मरतबा मिर्ज़ा ग़ालिब को याद कर उठे-

उनके देखे से जो आ जाती है मुंह पर रौनक़
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है

दवाइयों के साथ इस मुस्कुराहट और अपने-पन से ही हमें अपने-अपने बीमारों का हाल अच्छा कर देना होगा।

इसमें कोई दो राय नहीं कि हम आसमानों में उड़ने लगे थे। हम अपने आगे किसी को कुछ नहीं समझ रहे थे। हम अपने खुदाओं को भी याद नहीं कर रहे थे। हमारे सामने सिर्फ़ और सिर्फ़ पैसा था। पैसे और पाॅवर के बल पर हमने सब कुछ हासिल कर लिया था। लेकिन उसकी लाठी में आवाज़ नहीं होती। जब वो रस्सी खींचता है, तब हमें अपनी लाचारी का एहसास होता है और हमारा वुजूद तिनकों की मानिंद बिखर जाता है। अंबरीन हसीब अंबर ने सच ही कहा-

ज़मीं पे इंसा ख़ुदा बना था वबा से पहले
वो ख़ुद को सबकुछ समझ रहा था वबा से पहले

बहरहाल हमें अपनी असली हैसियत का पता चल गया है। लेकिन हम हार मानने वाले नहीं हैं। अपने मुल्क की बात करें तो हमने क्या-क्या नहीं देखा! पिछली सदी का सबसे बड़ा सानिहा यानी अपने मुल्क का बंटवारा हमने देखा। लाखों जानें क़ुर्बान हो गयीं। हम डर गए क्या? हम थम गए क्या? एक ज़माना था हम बम फटने के डर से बाज़ारों में जाने से बचते थे। दहशतगर्दी ने हमसे कितने अपने छीन लिए। मगर हम रुके नहीं। हमने मुक़ाबला किया और जीत के इस डर से बाहर निकले। उससे पिछली सदी में आज़ादी की लड़ाई ने हमसे क्या-क्या नहीं छीना। मगर हम हार कर भी हारे नहीं, डटे रहे और एक दूसरे की हिम्मत बने रहे। साथ ही साथ हमें ख़ुद पर भी यक़ीन था। शकील बदायूंनी का शेर याद आता है –

चाहिए ख़ुद पे यक़ीने-कामिल
हौसला किस का बढ़ाता है कोई

दोस्तो! यह इस सदी की लड़ाई है। फर्क़ सिर्फ़ इतना है कि पिछली सदियों में दुश्मन को हम अपनी आंख से देख लेते थे। उसके वार को भी समझ लेते थे। यानी वो दुश्मन अनदेखा नहीं था। इस सदी में फ़र्क़ यह है कि दुश्मन अनदेखा है। यह दुश्मन इतना चलाक है कि इसने हमें ही एक दूसरे के खिलाफ़ हथियार बना लिया है। तो क्या हुआ, हमें अपने पुरखों वाली ही मिसाल क़ायम करनी है। लड़ने वाली, हार न मानने वाली और लड़ते-लड़ते एक दिन जीत जाने वाली वही आदत, वही जुनून बनाए रखना है। शहज़ाद अहमद और इम्दाद इमाम असर ने क्या ख़ूब कहा है-

हौसला है तो सफ़ीनों के अलम लहराओ
बहते दरिया तो चलेंगे इसी रफ़्तार के साथ

मुश्किल का सामना हो तो हिम्मत न हारिए
हिम्मत है शर्त साहिबे-हिम्मत से क्या न हो

हमें पूरी उम्मीद रखनी है कि दुनिया फिर उतनी ही ख़ूबसूरत होगी जितनी इन दो बरसों पहले थी। हम उसी तरह बग़लगीर होंगे, उसी तरह हसेंगे-बोलेंगे, नाचेंगे-गाएंगे, खाऐंगे-पिऐंगे। उसी तरह शादियों में शहनाइयां और ढ़ोल-नगाड़े बजेंगे। उसी तरह महफ़िलें सजेंगी, शायरी सुनी जाएगी, मुशायरे बरपा होंगे। वैसे ही ट्रेनें खचाखच भरेंगी। भीड़ वाली जगहों पर भीड़ होगी। बाग़ों में झूले सुनसान नहीं पड़े होंगे, बच्चों के साथ गुनगुनाऐंगे, लहराएंगे। सड़कें वीरान नहीं होंगी। बाज़ार बंद नहीं होंगे। अपने-अपने ख़ुदाओं के घरों में जाने की कोई रोक-टोक नहीं होगी। स्कूल और कॉलेज बच्चों और नौजवानों की चहचहाहट से महकेंगे।

यह सब होगा मगर हौसला बनाए रखना होगा। मायूसी दूर फेंकनी होगी। क्योंकि साहिर लुधियानवी की तरह हम भी इस मुश्किल वक़्त में उम्मीद से भरे हुए हैं। साहिर के मशहूर मिसरे में यह मिसरा जोड़ते हुए बात यहीं रोकता हूं-

माना कि ये शाम तवील सही
वो सुब्ह कभी तो आएगी

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