रूपक जो शेर को ज़मीन से आसमान तक पहुँचा देते हैं
किसी चीज़ की ख़ूबी का इज़्हार करने के तीन तरीक़े होते हैं:
1 – एक ये कि हम साफ़-साफ़ कह दें कि फ़लाँ लड़की इन्तेहाई ख़ूब-सूरत है।
2 – दूसरा ये कि हम उसका मुवाज़ना (compare) किसी ख़ूब-सूरत चीज़ की तश्बीह (उपमा / simile) देते हुए उसकी ता’रीफ़ करें कि फ़लाँ लड़की चाँद- जैसी है।
3 – तीसरा ये कि हम मुवाज़ना और तश्बीह से आगे उसे वही चीज़ क़रार कर दें कि फ़लाँ लड़की चाँद है। ता’रीफ़ करने की यही सूरत इस्तिआरा (रूपक / metaphor) कहलाती है।
एक अच्छे शे’र में बुनियादी तौर पर तीन बातें होती हैं:
1 – मआनी
2 – मज़्मून
3 – इस्तिआरा
मआनी से मुराद शे’र के मज़्मून की वज़ाहत है, मज़्मून से मुराद उस मौज़ूअ’ की है जिसका ज़िक्र शे’र में हो या शे’र जिसके बारे में हो, और वो शे’र उस पर मबनी (आधारित / based) हो। बाज़-दफ़आ मज़्मून इस्तिआरे का काम करता है, लेकिन हमेशा ऐसा ज़रूरी नहीं बल्कि बहुत बार कोई ग़ैर-इस्तिआराती लफ़्ज़ भी मज़्मून का किरदार अदा कर सकता है, बशर्ते वो शे’र के मआनी में इज़ाफ़ा करता हो।
मिसाल के तौर पर:
अब भी है साहिलिय्यत-ए-जान-ओ-बदन वही
दरिया में उसके साथ उतरने के बावजूद
फ़रहत एहसास
इस शे’र में ‘साहिलिय्यत’ लफ़्ज़ ग़ैर-इस्तिआराती होने के बावजूद भी मज़्मून का काम कर रहा है और शे’र के मआनी में इज़ाफ़ा भी कर रहा है। देखा जाए तो इस शे’र में जान-ओ-बदन, दरिया, उसका साथ और दरिया में उतरना, ये चारों चीज़ें शे’र में मज़्मून पैदा करने का काम कर रही हैं, लेकिन शे’र इनमें से किसी मज़्मून पर मबनी नहीं है।
”दरिया में उसके साथ उतरने के बावजूद” जान-ओ-बदन की ‘साहिलिय्यत’ (किनारा-पन, हालाँकि ये लफ़्ज़ किसी लुग़त में पढ़ने को नहीं मिलेगा। मेरे ख़याल से इसे फ़रहत साहब की ईजाद कहना चाहिए।) वही है। या’नी शे’र का जो मआनी खुलता है, वो लफ़्ज़-ए-साहिलिय्यत से खुलता है।
दूसरी मिसाल:
न कोई दाग़ न धब्बा न हरारत न तपिश
चाँद-सूरज से भी ये माह-जबीं अच्छे हैं
मुज़्तर ख़ैराबादी
इस शे’र में ‘माह-जबीं’ लफ़्ज़ इस्तिआराती भी है और मज़्मून का काम भी कर रहा है। बल्कि माह-जबीं एक ऐसा रिवायती इस्तिआरा है, जो अब तक लड़कियों की ख़ूब-सूरती को बयान करने के लिए इस्ते’माल किया जाता है जबकि ‘माह’ का मतलब चाँद और ‘जबीं’ का मतलब माथा होता है और ‘माह-जबीं’ या’नी जिसका माथा चाँद जैसा हो। शे’र में कहा गया है, कि इन माह-जबीनों के न कोई दाग़ है, न धब्बा है, न कोई हरारत न गर्मी बल्कि चाँद में दाग़ होते हैं और सूरत में तपिश, तो इस लिए माह-जबीनें उनसे बेहतर हैं।
शाइरी में आम तौर पर इस्ते’माल किए जाने वाले इस्तिआराती लफ़्ज़:
माशूक़ा के चेहरे या बदन की ख़ूब-सूरती बयान करने लिए चाँद, माह, माह से बना माह-पारा/ मह-पारा, माह-जबीं, गुल, गुल से बना गुल-बदन, गुल- फ़िशाँ, गुलाब, पंखुड़ी वग़ैरा। माशूक़ा के लिए ‘बुत’ लफ़्ज़ इस्तिआरे के तौर पर बे-इन्तेहा राइज है। ज़ुल्फ़ों के लिए घटा, आँखों के लिए चराग़, नरगिस का फूल, आँसुओं के लिए समन्दर, वीरानी के लिए जंगल, सहरा दश्त वग़ैरा- वग़ैरा।
ये तमाम अल्फ़ाज़ इस्तिआरे क्यों हैं? कैसे बने?
1 – माशूक़ा चेहरे या बदन की ख़ूब-सूरती बयान करने लिए चाँद, माह या माह से बना कोई लफ़्ज़, इसी लिए इस्तिआरा है क्योंकि चाँद देखने में सुन्दर होता है और उसे चाहे कितनी देर देखते रहो, वो आँखों में नहीं चुभता। गुल, फूल या बर्ग-ए-गुल नाज़ुक और ख़ूब-सूरत होते हैं। यही तमाम ख़ूबियाँ माशूक़ में भी होती है।
आ मिरे चाँद रात सूनी है
बात बनती नहीं सितारों से
यूसुफ़ ज़फ़र
इस शे’र में एक मआनी ये है कि मुतकल्लिम (शायर) चाँद देखना चाहता है और उसे सितारे पसन्द नहीं। दूसरा ये कि उसे कम-अज़-कम रात में तो भीड़-भाड़ दुनिया-दारी से परे अपनी माशूक़ा की मौजूदगी हासिल हो।
बिन खिले मुरझा गईं कलियाँ चमन में किस क़दर
ज़र्द-रू किस दर्जा हाए माह-पारे हो गए
गुलज़ार देहलवी
इस शे’र में कलियाँ, चमन और माह-पारे का इस्तिआरे के तौर पर इस ख़ूब-सूरती से इस्ते’माल हुआ है कि इसमें अपने सतही मआनी के इलावा दीगर मआनी भी निहाँ हैं।
कहा जा सकता है, कि इस जहान-ए-ख़राब (चमन) में कितने वजूद (कलियाँ) पुर-वजूद होने के क़ब्ल ही किस क़दर अपने वजूद से जाने लगे। उन वजूदों (माह-पारे या’नी चाँद के टुकड़ो) के चेहरे किस दर्जा पीले हो गए हैं।
अगर वो गुल-बदन दरिया नहाने बे-हिजाब आवे
तअज्जुब नईं कि सब पानी सती बू-ए-गुलाब आवे
अब्दुल वहाब यकरू
अगर वो गुल-बदन या’नी फूलों जैसा नाज़ुक शख़्स दरिया में नहाने के लिए बे-हिजाब आए, तो इसमें तअज्जुब की कोई बात ही नहीं होगी अगर दरिया का पूरा पानी गुलाब की तरह महक उठे।
2 – बुत- माशूक़
बुत या’नी मूरत, और मूरत बे-हिस होती है, न वो हमसे बात करती है, न हमारी बात सुनती है और न उसे किसी बात से कोई फ़र्क़ पड़ता है, हू-ब-हू माशूक़ के लिए भी कहा जाता है, कि वो बात नहीं सुनता और बुत की मानिन्द ख़ामोश बना रहता है।
या रब मिरी उस बुत से मुलाक़ात कहीं हो
जिस बात को जी चाहे है वो बात कहीं हो
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
इस शे’र में बुत माशूक़ के लिए इस्तिआरे के तौर पर इस्ते’माल हुआ है। शे’र में कहा गया है कि मैं उस पत्थर से जो बात करना चाहता हूँ वो बात करने के लिए उससे मेरी कभी कहीं तो मुलाक़ात हो।
3 – घटा- ज़ुल्फ़
जब घनी घटा छाती है, तो आसमान काला नज़र आने लगता है। मज़्मून के तौर पर महबूब की ज़ुल्फ़ें भी काली और घनी नज़्म की जाती हैं।
ज़ुल्फ़ घटा बन कर रह जाए आँख कँवल हो जाए
शायद उन को पल भर सोचें और ग़ज़ल हो जाए
क़ैसर- उल जाफ़री
4 – चराग़- आँख
माँ की आँखें चराग़ थीं जिस में
मेरे हम-राह वो दुआ भी थी
अमजद इस्लाम अमजद
इस शेर में भी आँखों को चराग़ कह दिया गया है, चराग़ और दुआ का एक बारीक रिश्ता भी है जिसे समझने पर शेर और लुत्फ़ देगा।
5 – आँसू- समन्दर
आँसुओ को समन्दर का इस्तिआरा इसी लिए दिया जाता है, कि समन्दर बे-हद्द-ओ-हिसाब होता है और रोने के लिए आँखों में आँसुओं की भी कोई हद नहीं कि दुखों से पार पाना जान से जाना है और यूँ भी समन्दर के पानी का स्वाद भी खारा होता है और आँसुओं का भी। एक शेर दिखिए:
मैं ने जिन आँखों में देखे थे समन्दर मौजज़न
उन में जो भी डूबने वाला मिले प्यासा मिले
सादिक़ नसीम
6 – वीरानी- जंगल, सहरा, दश्त
ग़ालिब ने अपनी मसनवी ‘क़ादिर नामा’ में एक मतला कहा है जिसका ऊला मिसरा यूँ है:
दश्त सहरा और जंगल एक है
मैंने जब क़ादिर- नामा की तशरीह लिखी तब वहाँ लिखा था, कि ये लफ़्ज़ वीराने के इस्तिआरे के तौर भी इस्ते’माल होते हैं।
मिस्ल-ए-अब्र-ए-करम हम जहाँ भी गए दश्त के दश्त गुलज़ार बनते गए
ज़र्द चेहरे थे झुलसे हुए धूप से ताज़गी पा के गुलनार बनते गए
मुजीब ख़ैराबादी
सहरा को बहुत नाज़ है वीरानी पे अपनी
वाक़िफ़ नहीं शायद मिरे उजड़े हुए घर से
ख़ुमार बाराबंकवी
जंगल की वीरानी में
ख़ामोशी से गूँजा मैं
ख़ुर्शीद रब्बानी
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