उर्दू लिपि के कुछ बारीक मसअले
आज कल की फ़ारसी रस्म-उल-ख़त, अरबी रस्म-उल- ख़त से तैयार की गई थी। जिसे ‘’नस्ता’लीक़’’ कहते हैं। आज की उर्दू भी नस्ता’लीक़ रस्म-उल-ख़त में ही लिखी जाती है। नस्ता’लीक़ दो अल्फ़ाज़ से मिल कर बना है। नस्ख़ (Naskh) और ता’लीक़ (Ta’liq). नस्ख़ (Naskh) और ता’लीक़ (Ta’liq) दोनों क़दीम इस्लामिक calligraphy (रस्म-उल-ख़त भी कह सकते) हैं, जिनमें से नस्ख़ को सरकारी दस्तावेज़ों और इस्लामिक किताबों (ख़ास-तौर पर क़ुरआन) की नक़्ल करने के लिए तैयार किया गया था, और ता’लीक़ को फ़ारसी ज़बान की ज़रूरतों के मुताबिक़ तैयार किया गया था क्यों कि अरबी रस्म-उल-ख़त, पूरी तरह से फ़ारसी के लिए खरी नहीं उतरती थी।
फ़ारसी रस्म-उल-ख़त की अस्ल क्यूनीफ़ॉर्म थी। उसके बा’द क़दीम फ़ारसी। उसके बाद बीच की फ़ारसी (Middle Persian) के बाद इब्तेदाई जदीद फ़ारसी (Early Modern Persian)। ग़ौर करने की बात है कि अरबी की रस्म-उल-ख़त की अस्ल प्रोटो सिनेटिक स्क्रिप्ट (Proto- Sinaitic script) थी (जो देवनागरी की भी अस्ल है।), तो फिर फ़ारसी अरबी रस्म-उल-ख़त में क्यों लिखी जाने लगी? चूँकि सातवीं सदी में इस्लामी फ़तह और सासानी सल्तनत (Sasanian Empire) के ख़ात्मे के बाद अरबी तक़रीबन दो सदियों के लिए फ़ारस की सरकारी और ख़ास-तौर से मज़हबी ज़बान बन चुकी थी। ये ठीक वैसे ही है, जैसे आज हिन्दुस्तान में हिन्दी और उर्दू दोनों ज़बाने अंग्रेज़ी रस्म-उल-ख़त में लिखी जाने लगी हैं।
यहाँ से एक बात साफ़-तौर पर ज़ाहिर होती है कि उर्दू, हिन्दी, फ़ारसी और अरबी चारों ज़बानों का तअ’ल्लुक एक दूसरे से है, और ये ज़बानें अंदर अंदर एक दूसरे में गुथी हुई हैं । हिन्दुस्तान में बोली जाने वाली दो अहम ज़बानें उर्दू और हिन्दी हैं। हिन्दी-उर्दू दोनों एक दूसरे से अपनी-अपनी रस्म-उल-ख़त के फ़र्क़ से अलग हुईं। देवनागरी समझने-जानने वालों की ता’दाद नस्ता’लीक़ के मुक़ाबले में ज़ियादा थी, लिहाज़ा होते-होते यूँ हुआ कि उर्दू नस्ता’लीक़ की बजाए देवनागरी में ज़ियादा लिखी जाने लगी लेकिन यहाँ हमें ठहर के सोचना चाहिए कि क्या किसी ज़बान की रस्म-उल-ख़त जाने बग़ैर हम उसे जान-समझ सकते हैं? इस का जवाब नहीं में है।
किसी भी ज़बान को पूरी तरह से समझने के लिए, उसके एक-एक लफ़्ज़ के मआनी तक पहुँचने के लिए सबसे पहले ज़रूरी है, कि हमें उस ज़बान की रस्मुल- ख़त या’नी लिपि (script) का इल्म होना चाहिए। जब तक हम कोई ज़बान अच्छी तरह पढ़ और लिख नहीं सकते, हम उस ज़बान से पूरी तरह वाक़िफ़ नहीं हो सकते। बग़ैर रस्मुल-ख़त जाने हम वो ज़बान ‘शाएद’ बोल तो सकते हैं लेकिन उस ज़बान के लेखक, कवि या शाइर नहीं बन सकते। उसकी अदबी दुनिया से वाक़िफ़ नहीं हो सकते। मज्बूरन हमें उसके लिप्यांतरण या तर्जुमे का सहारा लेना पड़ेगा। फिर रस्म-उल-ख़त बदल जाने से हम अल्फ़ाज़ के मआनी तो नहीं समझ सकते। और तर्जुमा दरअस्ल तर्जुमा नहीं बल्कि re-creation होता है।
अगर लिप्यांतरण करने वाले ने ज़माना को देवनागरी में जमाना लिख दिया फिर? जहाँ ‘ज़माना’ दौर या युग को कहते हैं और ‘जमाना’ का मतलब to freeze something होता है जैसे बर्फ़ जमाना, क़ुल्फ़ी जमाना वग़ैरा।
चूँकि उर्दू का तअल्लुक़ न केवल फ़ारसी से है बल्कि अरबी से भी है। लिहाज़ा उर्दू ज़बान में इन दोनों ज़बान के अल्फ़ाज़ की इफ़रात है। और वो तमाम अल्फ़ाज़ अपनी ज़बान की अस्ल रस्म-उल-ख़त में लिखे जाते हैं। लिहाज़ा उर्दू के हुरूफ़-ए-तहज्जी (Alphabet) में वो तमाम हुरूफ़ हैं जो फ़ारसी और अरबी में हैं। जहाँ ‘अ’ दो तरह के हैं, अलिफ़ (ا) और ऐन (ع), ‘त’ भी दो तरह के हैं ते (ت) और तोए (ط), ‘ह’ की तीन क़िस्में हैं, एक बड़ी हे (ح), छोटी हे, (ہ), दो चश्मी हे (ھ) जिसका इस्ते’माल ‘ख’ (क- ‘काफ़’+ह), ‘घ’ (ग- ‘गाफ़’+ह), ‘झ’ (ज- ‘जीम’+ह), ‘थ’ (त- ‘ते’+ह), ‘फ’ (प- ‘पे’+ ह) वग़ैरा हर्फ़ लिखने के लिए किया जाता है। जीम (ج) ‘ज’ के इलावा ‘ज़’ (जिसे देवनागरी में ‘ज़’ और रोमन में z से लिखने के इलावा कोई चारा नहीं है) की पाँच क़िस्में हैं ज़ाल (ذ), ज़े (ز), ज़्हे (ژ), ज़ुआद (ض), ज़ोए (ظ), श या’नी शीन (ش) के इलावा तीन ‘स’ (जिन्हें देवनागरी में स और रोमन में s के इलावा लिखने का कोई चारा नहीं है) और होते हैं- से (ث), सीन (س) और सुआद (ص) न की भी दो क़िस्में हैं नून (ن) और तन्वीन (اً)
ऐसे में बग़ैर उर्दू की रस्म-उल-ख़त सीखे हम लफ़्ज़ का तलफ़्फ़ुज़ उसका इमला उसके मआनी सब में गड़बड़ कर सकते हैं। उर्दू के हुरूफ़-ए-तहज्जी में कुछ हुरूफ़ ऐसे हैं जिनकी हमेशा एक ही शक्ल होती है जैसे अलिफ़ (ا), दाल (د), डाल (ڈ), ज़ाल (ذ), रे (ر), ड़े (ڑ), ज़े (ز), ज़्हे (ژ), सुआद (ص), ज़ुआद (ض), तोए (ط), ज़ोए (ظ), और वाओ (و) के इलावा जितने भी हुरूफ़ हैं उन सब की एक बड़ी शक्ल भी होती है और छोटी भी।
जैसे हम अगर ‘अब’ लिखेंगे तब अलिफ़ (ا)+बे(اب ) = (ب )
लेकिन अगर हम ‘बात’ लिखेंगे तब ‘बे’ की शक्ल बदल जाएगी और बात में बे بات* ऐसा दिखाई देगा। इसी तरह से एक और मिसाल देखते हैं:
रास= रे+अलिफ़+ सीन= راس यहाँ न ‘रे’ की शक्ल बदली न ‘अलिफ़’ की (जो कि कभी बदलती भी नहीं है) और न सीन की।
लेकिन अगर हम ‘सत’ह’ लिखेंगे तब ‘सीन’ की शक्ल बदल जाएगी और वो ऐसा दिखाई देगा= سطح* यहाँ सीन की शक्ल बदली लेकिन तोए (जो कि कभी बदलती भी नहीं है) और बड़ी ‘हे’ की नहीं।
लेकिन अगर हम हुज़ूर लिखेंगे तब बड़ी ‘हे’ की शक्ल बदल जाएगी और वो ऐसा حضور* दिखाई देगा। इस तरह के तमाम हुरूफ़ जिनकी दो शक्लें होती हैं एक बड़ी और एक छोटी उनकी शक्ल कब और कैसे बदलती है और उर्दू रस्म-उल-ख़त सीखने के क्या-क्या क़ाएदे हैं उन्हें आसान तरीक़े से समझने के लिए उर्दू लिपि जाजानना ज़रूरी हो जाता है।
उर्दू रस्म-उल-ख़त को आमोज़िश पर सीखने या मज़ीद मालूमात के लिए यहाँ देखें।
उर्दू रस्म-उल-ख़त को Rekhta Urdu Learning Guide के ज़रिये सीखने या मज़ीद मालूमात के लिए यहाँ देखें।
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