उर्दू में गेसू-ए-घनश्याम के ख़म
पंडित दयाशंकर नसीम की ‘गुलज़ार-ए-नसीम’ में एक दिलचस्प बात पता चली और ऐसा लगा जैसे कोई पहेली खुली हो, तो वो पहेली ये थी कि गुलज़ार-ए-नसीम में एक शे’र है,
साद आँखों के देख कर पिसर की
बीनाई के चेहरे पर नज़र की
यहाँ साद से क्या मुराद है ये समझ नहीं आ रहा था, अपने लफ़्ज़ी म’आनी, यानी “सहमति” या “किसी चीज़ को सत्यापित करने” में ये इस्तेमाल नहीं हुआ है ये तो ज़ाहिर है पर फिर क्यूँ इस्तेमाल हुआ है ये सोचने की बात है, आप भी सोच कर देखिए।
बहुत सोचने समझने और विमर्श करने के बाद एक राज़ खुला और वो राज़ ये था कि जो ص साद हर्फ़ है यहाँ उस का काम है, फ़ारसी शायरी में एक रवायत है जो उर्दू में भी रच बस गयी है।
रवायत ये है कि बनावट के ऐतबार से ऐसे कई हुरूफ़ हैं जिनसे इंसानी जिस्म/चेहरे की ख़ूबसूरती बताने के लिए तशबीह दी जाती है, ये हुरूफ़ हैं अलिफ़ “ا” (क़द के लिए), लाम “ل” (ज़ुल्फ़ के लिए), नून “ن” (भवों के लिए), सुआद/साद “ص”(आँख) के लिए।
इन तमाम हुरूफ़ की बनावट पर अगर ग़ौर किया जाए तो समझ में आ जाता है कि ये हुरूफ़ क्यूँ इस तरह इस्तेमाल किये जाते होंगे। सुआद की आप देखिए कि आँख के जैसी बनावट है, गुल बकावली की कहानी की शुरुआत नज़रों, बीनाई के ही बारे में है और हर जगह इस तरह की निस्बतें, तशबीहात इस्तेमाल हुए हैं, इसीलिए साद-ए-चश्म भी कहा जाता है।
साद का यहाँ एक मतलब और है पर वो आप जब मसनवी पढ़ेंगे तो ज़ियादा समझ आएगा।
अभी इस बात को समझने याद रखने के लिए ये शे’र देखिए,
हैं साद उसकी आंखें, और क़द अलिफ़ के मानिंद
अबरू है नून ए नादिर, गेसू है लाम गोया
भवों को यहाँ दो तरह से बताया गया है, ऐसी भवें जो नायाब हैं, दूसरा ये कि जब हम नून लिखते हैं बिना अलिफ़ के तो वो बहुत ज़ियादा गोल “ن”होता है और जब अलिफ़ के साथ यानी जिस तरह “नादिर”,”نادر” के साथ लिखा जाता है तो इसकी गोलाई ज़रा कम हो जाती है जिसके साथ भवों की तुलना की गई है।
इस तरह के ख़ूब शे’र कहे गए हैं, जैसे अमीर मीनाई का ये शे’र देखिए,
हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-शमाइल ठहरा
लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा
इसमें अलिफ़ और लाम को लड़वा दिया गया है, ग़ौर से देखा जाए तो अलिफ़ बढ़ कर लाम बनता है और लाम घट कर अलिफ़ किया जा सकता है और इस बात को कितनी ख़ूबसूरती से अमीर मीनाई ने यहाँ क़द और ज़ुल्फ़ के साथ इस्तेमाल किया है।
कई जगह ज़ुल्फ़ को जीम से भी तशबीह दी गयी है, लाम तो पहली पसंद है ही तो उस पर बहादुर शाह “ज़फ़र” कहते हैं,
कहता है कोई जीम कोई लाम ज़ुल्फ़ को
कहता हूँ मैं ‘ज़फ़र’ कि मुसत्तह है काफ़-ए-ज़ुल्फ़
वो कहते हैं कि कोई ख़म, कोई लोच नहीं होती ज़ुल्फ़ों में, ज़ुल्फ़ें होती हैं सपाट “काफ़” की तरह।
एक और शरारती शे’र है इस तरह का, किस का है ये पक्के तौर पर नहीं पता (शायद चकबस्त, शायद पंडित दयाशंकर “नसीम” ख़ुद, पुख़्ता जानकारी नहीं है) पर शे’र देखिए,
लाम के मानंद हैं गेसू मेरे घनश्याम के
हैं वही काफ़िर कि जो बंदे नहीं “इस लाम” के
आप इसे बोल कर पढ़िए, लगता यही है कि इस्लाम की बात हो रही है कि जो इस्लाम के बंदे नहीं वो काफ़िर है पर यहाँ घनश्याम के गेसू जो लाम ل के जैसे हैं उन गेसुओं का बन्दा होने की बात की जा रही है, और जो उन गेसुओं के बंदे नहीं हैं वो काफ़िर हैं।
अब हैरतज़दा होते रहिए इस शरारत पर, शायर अपना काम कर गया।
यही लफ़्ज़ों का जादू है कि जादूगर को पता होता है कब, कैसे, कौन सा करतब दिखाना है, कितना छुपाना है कितना ज़ाहिर करना है, ये उसका हुनर है, हम बस हैरान हो सकते हैं!
यहाँ पर हम कह सकते हैं कि शायर भी एक जादूगर ही होता है, जो लफ़्ज़ों से करतब दिखाता है, ऐसा जादू जो एक बार आप पर छा जाए तो फिर ज़िन्दगी भर रहता है!
NEWSLETTER
Enter your email address to follow this blog and receive notification of new posts.